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विपक्षी एकता के लिए क्या कांग्रेस छोड़ पायेगी 'सत्ता का जहर' पीने का मोह?

नई दिल्लीः अपने पति व देश के पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत राजीव गांधी की 77 वीं जयंती के मौके पर सोनिया गांधी ने शुक्रवार को विपक्ष को एकजुट करने के लिए जो पहल की उसकी तारीफ़ इसलिये भी की जानी चाहिए कि लोकतंत्र में अगर विपक्ष ही कमजोर व लाचार हो जाएगा तो जनता की आवाज़ कौन उठाएगा. लेकिन सवाल ये है कि सोनिया की इस अपील का समूचे विपक्ष पर क्या इतना असर हो पायेगा कि वह 2024 के लोकसभा चुनाव तक एकजुट रहते हुए मोदी सरकार को हटाने की ताकत जुटा सके?

सोनिया की इस वर्चुअल मीटिंग में दो क्षेत्रीय दलों की गैर मौजूदगी से संकेत मिलता है कि सरकार की ख़िलाफ़त के बावजूद वे एक तंबू के नीचे आने से अभी भी कतरा रहे हैं. मायावती की बीएसपी और अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी से किसी भी नेता के इस मीटिंग में शिरकत न करने से यही संदेश मिलता है कि या तो उनके अपने कुछ और ही अरमान हैं या फिर ऐसी मजबूरी है, जिसके कारण वे मोदी सरकार की आंख की किरकिरी बनने से बचना चाहते हैं.

हालांकि कांग्रेस समेत 18 पार्टियों के नेताओं का इसमें शामिल होना ये बताता है कि वो जनहित के मुद्दों को लेकर वाकई गंभीर हैं लेकिन आने वाले पौने तीन साल तक वो कितना एकजुट रह पायेंगे इसे लेकर देश की जनता के मन में तमाम तरह की जो आशंकाएं हैं, उसे दूर करना उसे अपनी प्राथमिकता बनाना होगा.

विपक्षी दलों को जनता के बीच अपनी साख बनाने के लिए ये भरोसा पैदा करना होगा कि उनके बीच कुर्सी को लेकर कोई खींचतान नहीं होगी और उन्हें अभी से ही किसी ऐसे एक चेहरे को पेश करना होगा, जो हर पहलू से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को टक्कर देने की काबलियत रखता हो.

बेशक विपक्ष का अंतिम व एकमात्र मकसद सत्ता में आना ही होता है लेकिन जब सत्तापक्ष बेहद मजबूत हो और उसे हटाने के लिए अपनी मजबूरियों के बावजूद  सबको एक ही नाव पर सवार होना पड़े, तब सबसे बड़ी पार्टी को ऐसा खेवनहार बनने की भूमिका निभानी चाहिए, जो मंज़िल तक पहुंचाकर बदले में बहुत ज्यादा पाने की आस न रखे.

सियासत जंग के उस मैदान की माफिक है, जहां ये नहीं देखा जाता कि दुश्मन को निशाना मेरी बंदूक से निकली गोली ने बनाया या फिर मेरे साथी की गोली ने. अपना लक्ष्य हासिल करना ही एकमात्र मकसद होता है. इसीलिये कहते हैं कि जंग अगर शहादत मांगती है, तो सियासत भी कई मर्तबा ऐसा त्याग मांगती है कि भले ही आप खुद शहंशाह नहीं बन सकते लेकिन अपने किसी खास को उस कुर्सी पर बैठाकर भी अपनी ताकत दिखा सकते हो.

लिहाज़ा, सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होने के नाते कांग्रेस को पहले तो पूरी ईमानदारी से ये तय करना चाहिए कि गांधी परिवार के सदस्यों के अलावा विपक्ष का ऐसा कौन-सा प्रभावशाली चेहरा है जिसकी जनता में भी ठीकठाक इमेज है और जो अगले चुनाव में मोदी को कड़ी टक्कर देने की क्षमता भी रखता हो. इस लिहाज़ से देखें,तो फिलहाल ममता बनर्जी के सिवा विपक्ष के पास कोई और दूसरा चेहरा दिखाई नहीं देता. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि समूचा विपक्ष अपने अहंकार को किसी कूड़ेदान में डालने की हिम्मत दिखाते हुए इस एक नाम पर एकमत हो पायेगा? देश की जनता का भी यही सवाल है और यही उसकी आशंका भी है.

हालांकि कल हुई इस मीटिंग में सोनिया गांधी ने विपक्ष को एकजुट करने के लिये अपनी पूरी उदारता दिखाते हुए कहा भी है कि ''अंतिम लक्ष्य 2024 के लोकसभा चुनाव है जिसके लिए व्यवस्थित तरीके से योजना बनानी होगी. ये एक चुनौती है लेकिन हम मिल कर यह कर सकते हैं क्योंकि साथ काम करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. हम सबकी अपनी मजबूरियां भी हैं लेकिन समय आ गया है और राष्ट्रहित की मांग है कि हम सब अपने मजबूरियों से ऊपर उठें. कांग्रेस अपनी भूमिका में कोई कमी नहीं छोड़ेगी."

लेकिन, फिर वही सवाल उठता है कि 2024 का मुख्य सेनापति का नाम तय करने-करवाने में कांग्रेस बड़े भाई की भूमिका निभाने में आखिर कतरा क्यों रही है? वह अगले ढाई साल का इंतज़ार किसलिये करना चाहती है?

वैसे भी सोनिया व राहुल गांधी को साढ़े आठ साल पहले का वो वाकया याद करना चाहिए, जब जयपुर के कांग्रेस चिंतन शिविर में सत्ता को लेकर मां-बेटे के बीच जो संवाद हुआ था और जिसका खुलासा खुद राहुल ने ही वहां किया था. कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनने के बाद अपने पहले भाषण में 20 जनवरी 2013 को राहुल ने कहा था-  ''बीती रात मेरी मां मेरे पास आईं और कहा कि सत्ता जहर के समान है जो ताकत के साथ खतरे को भी साथ में लाती है. वे गले लगकर खूब रोईं और कहा कि सत्ता पर हर भारतीय का बराबरी का हक है, ऐसे में सत्ता की चाभी सिर्फ कुछ ही लोगों के हाथ में क्यों होनी चाहिए."

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