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गोवा के सियासी समंदर में अरविंद केजरीवाल ला पाएंगे कोई नया तूफान?

Election 2022: अगले साल की शुरुआत में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं लेकिन हम सबका ज्यादा ध्यान सिर्फ उत्तर प्रदेश और कुछ हद तक पंजाब पर ही है. लेकिन दो क्षेत्रीय पार्टियां ऐसी हैं जो समुद्री राज्य गोवा में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा रही हैं और ये सत्ताधारी बीजेपी समेत मुख्य विपक्षी कांग्रेस के लिए मुसीबत का सबब बनता दिख रहा है.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की राजनीतिक केमिस्ट्री वैसे तो एक-दूसरे से काफी हद तक मेल खाती है लेकिन गोवा में वे दोनों बीजेपी को सत्ता से बेदखल करने के लिए एकजुट नहीं हैं बल्कि अलग-अलग चुनाव लड़ रहे हैं. हालांकि मजामत की तृणमूल दो बार से वहां चनाव लड़ रही है और फिलहाल उसके पास एक सीट भी है.

हालांकि दोनों का मकसद एक होने के बावजूद जुदा होकर चुनाव लड़ने की खास वजह भी है क्योंकि ममता और केजरीवाल  दोनों ही अपनी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी बनाने की कवायद में जुटे हैं जिसके लिए जनप्रतिनिधित्व कानून के मुताबिक चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में एक निश्चित प्रतिशत तक वोट हासिल करना जरुरी है. हालांकि ये किसी से छुपा नहीं है कि ममता बनर्जी 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में संयुक्त विपक्ष की तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने के लिए बेसब्र हैं और उससे पहले वे गोवा में अपनी ताकत दिखाकर इस उम्मीदवारी को और भी ज्यादा मजबूत करना चाहती हैं.

लेकिन लोगों के जेहन में सवाल उठता है कि दिल्ली वाले केजरीवाल को भला गोवा के लोगों की इतनी फिक्र क्यों सता रही है? तो उसका जवाब ये है कि दिल्ली में उनकी सत्ता है लेकिन पांच साल पहले ही उनकी पार्टी पंजाब में तीसरी ताकत बनकर उभर चुकी है और चुनावी सर्वे के मुताबिक फिलहाल वो सबसे आगे निकलती दिखाई दे रही है. उसके बाद बात करते हैं उस उत्तराखंड की जहां वो पहली बार चुनावी-अखाड़े में इस उम्मीद के साथ कूदी है कि पंजाब की तरह वहां भी वो तीसरी ताकत बनकर ही उभरेगी. वैसे बीजेपी व कांग्रेस के दिग्गज नेता इस पर यकीन करने को तैयार नहीं हैं लेकिन सियासत समझने के लिए लोगों का मिज़ाज़ समझना पहली व बुनियादी जरूरत होती है.

अगर उस लिहाज़ से देखें तो गुजरात से निकलकर देश की सत्ता पर काबिज़ होने के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उदाहरण से केजरीवाल ने भी बहुत कुछ सीखा है लेकिन उससे आगे बढ़कर ये तोड़ भी निकाला है कि बीजेपी या कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए जनता के दिलों-दिमाग में किस तरह से अपने लिए जगह बनाई जाए. आप का दिल्ली की सत्ता पर काबिज़ होना ही इसकी सबसे बड़ी मिसाल है और वे दिल्ली की अपनी कामयाब प्रयोगशाला का फार्मूला ही तीन चुनावी राज्यों-पंजाब, उत्तराखंड और गोवा में दोहरा रहे हैं.

गोवा से पहले अगर उत्तराखंड पर गौर करें तो वहां की जमीनी राजनीति की नब्ज समझने वाले लोगों के मुताबिक उत्तराखंड में इस बार सत्ता बनाने की चाभी आप के हाथों में होगी. यानी, वहां के लोग ये मान रहे हैं कि इस बार बीजेपी या कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने वाला है और हालात त्रिशंकु विधानसभा होने की तरफ जाते दिखाई दे रहे हैं. जाहिर है कि ऐसी सूरत में केजरीवाल जिस भी बड़े दल को अपना समर्थन देंगे सरकार उसकी ही बनेगी तो एक तरह से वो 'किंग मेकर' की भूमिका में होंगे. हालांकि इसका अंदाज़ लगाना बड़े से बड़े सेफ़ॉलोजिस्ट के लिए भी मुश्किल है कि चुनाव आते-आते लोगों की सोच में कितना बदलाव आयेगा और क्या वे सचमुच आम आदमी पार्टी की झोली में इतनी सीटें डाल देंगे कि वो 'किंग मेकर' बनने की भूमिका में आ जाये. लेकिन एक सच ये भी है कि सियासत का खुला मैदान भी हमारे घर के एक कमरे की रसोई से ज्यादा बड़ा नहीं हुआ करता, जहां आप दो-चार दाने हाथ में लेकर ही पता लगा लेते हैं कि चावल अभी पके हैं या नहीं. सियासी जमीन भी कुछ वैसी ही है जहां चुनाव से पहले लोगों का मूड भांपकर काफी हद तक ये अंदाज हो जाता है कि हवा का रुख़ किस तरफ है.

बात करते हैं, उस गोवा की जहां 2017 में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बावजूद कांग्रेस अपनी सरकार नहीं बना पाई थी क्योंकि कुछ विधायकों ने कांग्रेस छोड़कर अपनी अलग पार्टी बना ली और बाद में उनके समर्थन से ही वहां बीजेपी अपनी सरकार बनाने में कामयाब हुईं. लिहाज़ा, गोवा का सियासी इतिहास बताता है कि वहां पार्टी के उसूलों से ज्यादा पैसा बोलता है और उसके लिए चुनाव जीतने के बाद भी किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता.

केजरीवाल मंगलवार को गोवा की राजधानी पणजी में अपनी पार्टी के प्रचार के लिए गए थे जहां अपनी जनसभा में उन्होंने इस राजनीतिक कमजोरी को न सिर्फ पकड़ा बल्कि एक बड़ा सियासी दांव खेलते हुए जो ऐलान किया वो बाकी दलों के लिये आफत बन सकता है. केजरीवाल ने कहा कि "कई लोग मुझसे पूछते हैं कि क्या गारंटी है कि आप के एमएलए बिकेंगे नहीं. लेकिन मैं वादा करता हूं कि हमारा हर उम्मीदवार चुनाव के पहले एफिडेविट साइन करेगा और आपको हम उस एफिडेविट की कॉपी बाटेंगे. उस एफिडेविट में लिखा होगा कि मैं अपनी पार्टी नहीं बदलूंगा. अगर मैं पार्टी बदलूंगा तो आप मेरे ऊपर केस कर देना."

उन्होंने ये भी कहा कि "चुनाव जीत जाने के बाद अगर वह पार्टी बदलेगा तो आप उसे कोर्ट में ले जाना. हम आपको चाबी दे रहे हैं, अपने पास नहीं रख रहे." दूसरी बात जो उन्होंने कही और जो लोगों को काफी हद तक प्रभावित करने वाली भी है वो ये कि "अगर हम 5 साल में काम ना करें तो हमें उखाड़ कर फेंक देना. मैं दोबारा वोट मांगने के लिए आपके पास फिर नहीं आऊंगा."

हो सकता है कि विरोधी दल इस बात को हल्के में लेते हुए इसे नजरअंदाज कर दें लेकिन केजरीवाल का ये ऐलान गोवा के सियासी समंदर में ऐसा तूफान ला सकता है जो उन्हें तीसरी ताकत ही बना डाले? यही तो वे चाहते भी हैं.

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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