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बिहार में क्यों सभी बड़े नेता कर रहे राजनीतिक यात्रा, जनता से कनेक्ट करने में कितना है प्रभावी?

राजनीतिक दल और उसके नेता जनता के बीच अपने आपको कनेक्ट करने के लिए कई तरह-तरह से संपर्क साधने की योजना बनाते हैं. ये काम वो चुनाव हो तो भी और नहीं हो तो भी करते रहते हैं. लेकिन पिछले एक दशक में लोगों तक पहुंच बनाने को लेकर यात्राएं और अभियान चलाने का फैशन बढ़ा है. बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अभी जल्द ही उन्होंने अपनी 12वीं समाधान यात्रा की. ये पूर्णतः सरकारी यात्रा थी. इसका उद्देश्य ये है कि उन्होंने अपने कार्यकाल में जितनी भी योजनाएं चलाई हैं, उसमें क्या कमी रह गई है और जनता और क्या-क्या चाहती है, उनसे फीडबैक लेने के लिए वे इस तरह की समाधान यात्रा कर रहे हैं. चूंकि, अभी बिहार में बजट सत्र चल रहा है. इसके बाद वे देश भर में भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकजुटता के लिए यात्रा करने वाले हैं. इसी तरह से बिहार में राजद और जदयू की जो नई राजनीतिक गठजोड़ हुई वो उपेंद्र कुशवाहा को नहीं पचा चूंकि वो खुद मुख्यमंत्री के दावेदार हैं. नीतीश कुमार की पार्टी से विद्रोह करते हुए उन्होंने अपनी एक नई पार्टी बना ली है.

उन्होंने इसके के लिए एक विरासत बचाओ अभियान या यात्रा कह लीजिए शुरू किया है. चूंकि, जदयू ने जो कर्पूरी ठाकुर और लोहिया के सपनों को साकार करने की सोच के साथ आगे बढ़ी थी आब वे उसी राजनीतिक विरासत को बचाने के लिए उन्होंने यात्रा शुरू कर रखी है. चिराग पासवान जो हैं वो अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए किसी न किसी तरह से यात्राएं करते रहे हैं. अभी हम लोगों ने देखा कि राहुल गांधी ने किस भारत जोड़ो यात्रा शुरू की और उन्होंने कश्मीर में इसका समापन किया. इसी तरह से कर्नाटक में  भी भाजपा ने अपनी यात्राएं शुरू की है.

चूंकि अभी देश के 9 राज्यों में चुनाव होना है तो सभी पार्टियां कहीं न कहीं किसी रूप में अपनी यात्रा चला रहे हैं. अगले साल 2024 लोकसभा का भी चुनाव होना है. अमित शाह जी भी यात्राएं कर रहे हैं अभी वे 2 अप्रैल को नालांदा में फिर से आ रहे हैं. वे नवादा में भी जाएंगे. कुल मिलाजुला कर कहें तो ये राजनेता जो हैं वो जनता के बीच जाकर अपना संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं. वे यात्रा का कोई न कोई नाम देकर लोगों के बीच जाकर अपने पक्ष में बाते रखते हैं और विरोधियों पर हमला बोलते हैं. पहले जब विधानसभा और लोकसभा का चुनाव होता था तो राजनेता बैनर-पोस्टर लेकर जाते थे, लेकिन अब सोशल मीडिया का युग है और चुनाव आयोग ने भी कई दलों पर कई तरह की पाबंदी लगा रखा है कि आप अपने उम्मीदवारों का विज्ञापन दो से तीन बार हिंदी अखबारों में, क्षेत्रीय भाषाओं के अखबारों में और अंग्रेजी अखबारों में...तो यात्राएं जनता के बीच जाने का एक माध्यम बन गई है और खासकर यह उन पार्टियों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है जिनके पास संगठन नहीं है. भाजपा के पास तो एक बहुत बड़ा संगठन है और वो विभिन्न नामों से, विभिन्न लोगों का जयंती कार्यक्रम करते रहती है.

ये भी देखने को मिलता है कि कुछ खास नेता खास उद्देश्यों की पूर्ति के लिए यात्राएं करते हैं. बिहार में चूंकि 40 लोकसभा सीटें हैं और जिस तरह से छह महीने पहले यहां भाजपा को सत्ता से अलग करते हुए नीतीश कुमार ने राजद, कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के साथ मिलकर गठबंधन किया है. और जब भाजपा से नीतीश अलग हो गए हैं तो उनकी पार्टी को जो पिछले चुनाव में 16 सीटों पर सांसद मिले थे उसे आगामी चुनाव में बरकरार रखने की भी बड़ी चुनौती होगी. पिछले चुनाव में तो राजद के एक भी सांसद नहीं जीते थे लेकिन अभी वो बिहार में सबसे बड़ी पार्टी है तो हमें लगता है कि जब सीटों का बंटवारा होगा तो राजद और जदयू दोनों ही बराबरी के सीटों पर मानेंगे. खैर ये तो राजनीति की बात है.

लेकिन जहां तक यात्राओं के संदर्भ की बात है तो मैं तो यही कहूंगा कि राजनीतिक दलों का पीपुल्स कनेक्ट खत्म हो गया है. पहले आम लोगों की जो समस्या होती थी उसे लेकर निचले स्तर पर यानी प्रखंड स्तर पर धरना-प्रदर्शन करते थे. महंगाई और बेरोजगारी न सिर्फ बिहार में पूरे देश में एक बड़ी समस्या है. लेकिन अब आम जनों की समस्याएं तो कहीं उठती नहीं हैं. कोई भी राजनीतिक दल ऐसी समस्याओं को लेकर सड़क पर आता नहीं है. लेकिन जब भी चुनाव आता है तो राजनीतिक दल के नेता अपनी राजनीति चमकाने के लिए विभिन्न नामों से यात्राएं निकालते हैं.

देखिये, खास कर के हिंदी पट्टी के राज्यों में और बिहार में जातीय समीकरण एक सच्चाई है. सारे राजनीतिक दल और उनके नेताओं की एक जाति विशेष से पहचान है. उसी को लेकर राजनीति करते हुए उनकी पहचान बनी है. बिहार में राजद के बारे में है कि वो यादवों की पार्टी है और समीकरण में यादव और मुस्लिम पर उनका प्रभाव है. उसी तरह से नीतीश कुमार भले ही आज 16-17 साल से मुख्यमंत्री के रूप में राज कर रहे हैं, उनका कोइरी और कुर्मी पर राजनीतिक प्रभाव माना जाता है. उसमी में सेंधमारी के लिए अभी उपेंद्र कुशवाहा ने अपनी विरासत बचाओ यात्रा शुरू की है. नीतीश के खिलाफ वे अभियान छेड़ रहे हैं. वे जनता को ये मैसेज दे रहे हैं कि कुशवाहा को उस तरह से मौका नहीं मिला है और नीतीश कुमार तेजस्वी को राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाने की घोषणा कर रहे हैं.

कुशवाहा समाज को दगा दिया है. भाजपा भी पिछले चुनाव तक शहरों व वैश्यों की पार्टी मानी जाती थी लेकिन उसका भी जनाधार अब बढ़ा है और यही कारण है कि बिहार में तो भाजपा ने जदयू से दोगुना अधिक सीटें जीतीं. इधर, जीतन राम मांझी भी गरीबों को जगाने को लेकर यात्रा कर रहे हैं. उनका कहना है कि उनके तबके के लोगों का दुख-दर्द मुख्यमंत्री तक पहुंच ही नहीं पाता है. इंदिरा आवास की योजना हो, राशन कार्ड बनाने की बात हो सभी के लिए भ्रष्टाचार है और गरीबों को बिना पैसा दिये कोई काम नहीं हो पाता है.

2016 से शराब बंदी लागू है बिहार में और जीतन राम मांझी शुरू से इस पर सवाल उठाते रहे हैं कि इससे गरीब पिस रहे हैं. चूंकि दुकान कहीं नहीं खुली है लेकिन शराब की होम डिलिवरी हो रही है इसमें गरीब और कमजोर तबके के लोग ज्यादा पकड़े जा रहे हैं. बिहार में शराबबंदी मामले में कुल 5 लाख केस हुए हैं और इतनी ही गिरफ्तारी हुई है. इसमें 20 हजार करोड़ से अधिक का काला धंधा बिहार में चल रहा है ऐसा लोग मानते हैं. इन्हीं सब मुद्दे को लेकर मांझी ने तीन चार जिलों में यात्राएं की और जो उन्होंने नीतीश कुमार को आइना दिखाया वो उनके लिए शर्मनाक स्थिति थी. बिहार में कैसे भाजपा की 40 लोकसभा की सीटों पर प्रभाव को कम करें और भाजपा की ओर से ये है कि नीतीश से नाता टूटने के बाद बिहार में अपना प्रभुत्व स्थापित करना और 2025 के विधानसभा चुनाव में अकेले सत्ता में आने की चुनौती है तो इन सभी राजनीतिक महत्व को देखते हुए राजनीतिक यात्राएं महत्वपूर्ण हो जाती है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. ये आर्टिकल वरिष्ठ पत्रकार अरुण पांडे से बातचीत पर आधारित है.]

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