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'टू फ्रंट वार जोन में जाने से होगा बचना, रक्षा बजट आस-पास के हालात से होते हैं तय'

रक्षा क्षेत्र के हिसाब से कुल मिलाकर इस बार का बजट ठीक है. सरकार ने हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा की जरूरतों और बाकी अर्थव्यवस्था की जरूरतों के बीच समन्वय बिठाने की कोशिश की है. हम सारा का सारा पैसा अपनी सुरक्षा पर नहीं लगा सकते. ये भी नहीं कर सकते कि सुरक्षा को पूरी तरह से नज़रअंदाज कर दिया जाए. यहीं तालमेल इस बार के बजट में देखने को मिला हैं. उसी के हिसाब से कदम उठाए गए हैं.

दूसरे देशों से तुलना सही नहीं

इस बजट में कोई ऐसी बात नहीं है कि जिस पर बहुत ज्यादा कुछ आपत्ति हो. लेकिन ये भी नहीं होगा कि फौज़ या सुरक्षा एजेंसियां जो चाहती थीं, उनको वो सब कुछ मिल जाए. ये दुनिया में कहीं नहीं होता और भारत में भी ये संभव नहीं है. दूसरे देशों के रक्षा बजट से तुलना एक तरीके से सुहावना लग सकता है, लेकिन एक हिसाब से ये तुलना बेमानी है. हर देश को ये देखना पड़ता है कि जो सिक्योरिटी एनवायरमेंट वो कैसा है. उस देश के आस-पास के जो सुरक्षा हालात हैं, उसके हिसाब से खर्च करना पड़ता है.

जरूरतों से तय होता है रक्षा बजट

चीन के सामने अमेरिका और पश्चिमी देशों से चुनौती आ रही है. यहां पर जापान है, जो दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. अमेरिका है, जो दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, जिसका बजट चीन से तीन या चार गुना बड़ा है. चीन अपनी तैयारी इस हिसाब से कर रहा कि अगर हालात बिगड़ जाए या युद्ध हो जाए, तो वो कैसे अपने आप को संभाल सकता है. अगर चीन अमेरिका के साथ तुलना करके खर्च करने लगे, तो उसका दिवालिया निकल जाएगा. इसी तरीके से अगर भारत ये तुलना करें कि चीन हमसे चार गुना खर्च कर रहा है और हम भी उतना ही खर्च करेंगे तो हमारा दिवालिया निकल जाएगा. एक लिहाज़ से इसी वजह से पाकिस्तान का दिवालिया निकल गया. वो भारत के साथ रेस करने में लग गया था.

आप-पास के हालात से तालमेल

अगर किसी के पास समुद्री जहाज ज्यादा है तो क्या आप उसी की तरफ जाएंगे या फिर ऐसी पनडुब्बी बनाएंगे, जो उसके युद्धपोत का काउंटर कर सकता है. इस हिसाब से योजना बनानी पड़ती है. इसमें आपको उतना खर्च नहीं करना पड़ता है, जितना दूसरा करता है. कुछ हद तक पाकिस्तान ने यही कोशिश की है. वो अब भारत के साथ मैच नहीं कर पाता है, तो वो ऐसे सामान खरीदता है, जो एक लिहाज से भारत के सामान के साथ बैलेंस कर पाता है. यहीं भारत को भी करना पड़ेगा.

कोई भी बजट टू फ्रंट वार के लिए पर्याप्त नहीं

कोई भी बजट टू फ्रंट वार के लिए पर्याप्त नहीं होगा और न ही आप बजट ऐसे बना सकते है कि हर बार उसमें टू फ्रंट वार के संदर्भ को भी शामिल किया जा सके. भारत के ऊपर खतरा जरूर है. इस खतरे से निपटने के लिए आपको बजट में उसी तरीके से आवंटन करना होगा कि अगर हालात बन जाए तो उतने ही पैसे में कैसे सुरक्षा का सुनिश्चित किया जा सकता है.

टू फ्रंट वार लड़ना बेहद मुश्किल

आपको दूसरी चीज ये सोचनी पड़ेगी कि ये हिमाकत होगी कि आप जानबूझकर टू फ्रंट वार के जोन में जाएं.  टू फ्रंट वार लड़ना बेहद मुश्किल होता है. ये कागजों में आसान लगता है, लेकिन वास्तविकता बहुत जटिल है. अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य शक्ति और अर्थव्यवस्था है. उनके हिसाब से इराक और अफगानिस्तान में तालिबान दो छोटे-छोटे टारगेट थे. इन दोनों से लड़ने में अमेरिका की हेकड़ी निकल गई थी. जिस हिसाब से उनको पैसा खर्च करना पड़ा, ये हम सब जानते हैं. ये भारत के लिए मुमकिन नहीं है कि हम उस हिसाब से पैसे खर्च करें या उतने रिसोर्स लेकर आएं. टू फ्रंट वार की अगर संभावना बन जाती है तो आपके पास जो सामरिक हथियार हैं, उसको कहीं न कहीं इक्वेशन में लेकर आना पड़ेगा. उन सामरिक हथियारों का खौफ दुश्मन के मन में डालना पड़ेगा. इस हालात से बचने के लिए वो हर कूटनीति और टैक्टिस अपनानी पड़ेगी, जिससे ये सुनिश्चित हो सके कि आपका दुश्मन आपके ऊपर हावी नहीं हो सके. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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