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नक्सली हिंसा के खात्मे के लिए आर्थिक विकास ही नहीं खुफिया तंत्र की कुशलता भी है जरूरी

लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण व आर्थिक विकास के इस दौर में मान लिया गया था कि नक्सलवादी आंदोलन अंतिम सांसें गिन रहा है, लेकिन छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में जिस तरह नक्सलियों ने बारूदी सुरंग में विस्फोट कर सुरक्षाबलों के वाहन को उड़ा दिया, उसके पश्चात् नक्सल विरोधी अभियान की सीमाएं उजागर हुईं हैं. इस हमले में दंतेवाड़ा जिला रिजर्व गार्ड (डीआरजी) के आठ जवान शहीद हो गए एवं वाहन चालक की भी मृत्यु हो गई. यह विस्फोट इतना खतरनाक था कि सुरक्षाबलों के वाहन के परखच्चे उड़ गए. घटना उस वक्त हुई जब डीआरजी के जवान नक्सल विरोधी अभियान के बाद एसयूवी कार से लौट रहे थे. नक्सलियों के इस दुस्साहस के बाद खुफिया एजेंसियों की कार्यशैली पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है.

नक्सलियों का उन्मूलन अब भी बाकी

केंद्र व राज्य सरकारें अतिवामपंथी समूहों के उन्मूलन हेतु स्थानीय लोगों से सहयोग लेतीं हैं. डीआरजी  छत्तीसगढ़ पुलिस की एक ऐसी इकाई है जिसमें ज्यादातर स्थानीय आदिवासियों एवं आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों को भर्ती किया जाता है. डीआरजी के जवान नक्सल विरोधी अभियान में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं. बस्तर क्षेत्र के पुलिस महानिरीक्षक सुंदरराज पी ने बताया कि तीन दिनों तक चले अभियान में पांच नक्सली मारे गए और डीआरजी का एक हेड कांस्टेबल शहीद हो गया. अभियान के बाद जब दंतेवाड़ा से डीआरजी के जवान अपने बेस पर लौट रहे थे, तभी यह विस्फोट हुआ. घटनास्थल छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी रायपुर से करीब 400 किलोमीटर दूर है.

इस दुखद घटना के बाद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने नक्सलवाद को समूल समाप्त करने के लिए अपनी सरकार की वचनबद्धता व्यक्त की है. उन्होंने कहा है, "जवानों को खोने की सूचना से अत्यंत दुखी हूं. इस दुख को शब्दों में व्यक्त कर पाना असंभव है, लेकिन मैं विश्वास दिलाता हूं कि हम मार्च 2026 तक भारत की भूमि से नक्सलवाद को समाप्त करके ही रहेंगे." गृह मंत्री के वक्तव्य पर सबकी राय एक जैसी नहीं हो सकती, लेकिन 2010 में ही तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नक्सलवाद को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मान लिया था. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री की यह स्वीकारोक्ति परिस्थितियों के आकलन पर ही आधारित थी.

आंतरिक सुरक्षा और नक्सलवाद

बस्तर की घटना यह बताने के लिए काफी है कि जिस तरह से नक्सलवादी निरंतर आतंकी गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं उससे निश्चित रूप से आने वाले समय में देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरे उत्पन्न होंगे. कार्ल मार्क्स, लेनिन एवं माओ की विचारधारा से प्रेरित यह आंदोलन अपने मूल उद्देश्य से भटक गया है. सामंती शोषण व उत्पीड़न के विरुद्ध पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी नामक स्थान में प्रस्फुटित हुआ यह आंदोलन हिंसा के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक समानता स्थापित करने का यत्न करता है. लोकतांत्रिक भारत में इस किस्म के सशत्र संघर्ष को जनहितैषी नहीं माना जा सकता है. इसमें शामिल लोग जातिवादी गतिविधियों, गुटबंदी, समाज विरोधी एवं अनैतिक कार्यों में लिप्त हैं. ये अपने जनाधार वाले इलाके में लूटपाट करते हैं और पुलिस बलों पर हमला कर हथियार लूटते हैं. नक्सली वैध व जायज जमीन पर नाकेबंदी कर ऊंची जाति के न केवल धनवान किसानों को बल्कि गरीब किसानों को भी कृषि कार्य करने से रोकते हैं.

प्रारम्भिक दौर में यह आंदोलन पश्चिम बंगाल तक सीमित था, लेकिन धीरे-धीरे यह ओडिशा, बिहार, अविभाजित आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ एवं झारखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में भी फैल गया. चारू मजूमदार एवं कानू सांन्याल की रक्तपात वाली नीति से सामाजिक-आर्थिक विषमता का अंत तो नहीं हुआ, लेकिन देश ने वामपंथी उग्रवाद का विकृत चेहरा जरूर देख लिया. संसदीय शासन प्रणाली का विरोध करने वाले नक्सली समानांतर सरकार चलाते हैं और जन अदालत लगाकर त्वरित न्याय के नाम पर मौत की सजा भी देते हैं.

बिहार में नक्सलवाद

बिहार में नक्सली संगठनों ने सर्वप्रथम यथास्थितिवाद के संरक्षकों एवं बड़ी-बड़ी सामंती ताकतों व भूस्वामियों को अपना शिकार बनाना शुरु किया, जिसके प्रत्युत्तर में भूस्वामी भी अपनी सुरक्षा हेतु निजी सेनाओं का गठन करने लगे. बिहारी समाज ने एक ऐसा दौर भी देखा है जब आईपीएफ, भाकपा (माले) लिबरेशन, माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर, मजदूर किसान संग्राम समिति, पार्टी यूनिटी व पीपुल्स वार ग्रुप जैसे "नक्सली शब्द" और रणवीर सेना, लोरिक सेना, कुंवर सेना, सवर्ण लिबरेशन फ्रंट, सनलाइट सेना, डायमंड सेना व अली सेना जैसे "नक्सल विरोधी शब्द" समाचार पत्रों की सुर्खियों में बने रहते थे. 13 नवम्बर 2005 को हुए "जहानाबाद जेलब्रेक" ने सरकार की नक्सल विरोधी नीति के समक्ष नई चुनौती प्रस्तुत कर दी थी. तब नक्सली अपने लोगों को जेल से भगा कर ले जाने में कामयाब हो गए थे.

छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने कई बार बारूदी सुरंगों के जरिए राजनेताओं पर जानलेवा हमले किए, जिसके परिणामस्वरूप आदिवासी क्षेत्रों में न केवल आतंक का माहौल निर्मित हुआ, बल्कि आर्थिक विकास की प्रक्रिया भी बाधित हुई. हालांकि 2024 में जब सुरक्षा बलों ने नारायणपुर, कांकेर, दंतेवाड़ा एवं बीजापुर में सैकड़ों नक्सलियों को मार गिराया तो उम्मीद जगी कि अब माओवादी हिंसा से मुक्ति संभव है.

बदलाव आया, पर गति बढ़ानी जरूरी

पूर्व आईपीएस अधिकारी विभूति नारायण राय बस्तर में बदलाव महसूस करते हैं. अपने एक आलेख "बदलाव की ओर कदम बढ़ाता बस्तर" में वे लिखते हैं, "सरकारों की भी समझ में आ गया है कि आदिवासियों को सड़क, अस्पताल और विद्यालय की जरूरत है. सशस्त्र आंदोलन के चलते पुलिस, जंगलात और राजस्व कर्मियों की ज्यादतियों पर कुछ अंकुश लगा. तेंदु पत्ते का संग्रहण करने वाले ठेकेदारों को उनकी मजदूरी बढ़ानी पड़ी. यह सब हुआ, पर बड़ी कीमत चुकाने के बाद. माओवादियों और सुरक्षा कर्मियों, दोनों ने सैकड़ों जानें लीं." राय बस्तर में परिवर्तन की व्यापक आहट सुनने की कोशिश करते हैं. अपने इसी आलेख में वे आगे लिखते हैं, "दंतेश्वरी माता की चौकी के साथ चल रहे स्थानीय नौजवान जोर से बोलो, तुम भी बोलो, सारे बोलो जय माता दी, के पंजाबी जयकारे लगा रहे थे. वर्दी पहने ज्यादातर पुलिसकर्मी आदिवासी लग रहे थे और मेरी अनुभवी आंखें भांप सकती थीं कि उनका व्यवहार जनता के साथ रूखा तो नहीं ही था."

नक्सली हिंसा को समूल समाप्त करने के लिए यह जरूरी है कि आदिवासी क्षेत्रों में आर्थिक विकास की गति को तेज किया जाए. आज भी कई जनजातीय इलाके विकास से कोसों दूर हैं. प्राथमिक विद्यालयों एवं अस्पतालों की स्थापना तो बाद की बातें हैं, यहां तो शुद्ध पेयजल जैसी बुनियादी सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं. दुर्गम क्षेत्रों में निर्धनता, बेरोजगारी, अशिक्षा, कुपोषण और अज्ञानता के कारण भी हथियारबंद समूहों को जनसमर्थन मिल जाता है. सत्ता के विकेंद्रीकरण के सांविधानिक प्रावधानों के बावजूद आदिवासी समाज के लोग सत्ता के केंद्रों से दूरी महसूस करते है. नक्सलवाद की समस्या के स्थायी समाधान हेतु एक व्यापक रणनीति बनाते हुए जनजातीय इलाकों का विकास करना अत्यंत आवश्यक है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]

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