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लोकतंत्र के महापर्व पर बाहुबलियों व दबंगों की छाया

आम चुनाव में बाहुबलियों के हस्तक्षेप से हिंदी पट्टी की राजनीतिक संस्कृति का पोषण होता रहा है. इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि राज्यों की राजनीतिक संस्कृति का मौलिक और स्थायी आधार समाज की सामान्य प्रकृति ही है. सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्यों के अवमूल्यन का ही यह दुष्परिणाम है कि सजायाफ्ता लोग न केवल चुनाव जीतने में कामयाब हो रहे हैं, बल्कि वे अपने समाज और समुदाय के नायक के रूप में भी प्रतिष्ठित हो रहे हैं. जाति-व्यवस्था भारतीय समाज की हकीकत है, इसलिए लोग जातियों में संगठित हैं. चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दल उन लोगों पर भरोसा जताते हैं जिन्हें अपनी जाति के सदस्यों का विश्वास हासिल है.

इस चुनाव में नए प्रयोग

18वीं लोकसभा का चुनाव टिकट वितरण में नए प्रयोगों के लिए भी याद किया जाएगा. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी पूर्वांचल में उनके सहारे ही आगे बढ़ना चाहती है, जो कानून की नजर में गुनहगार हैं. बिहार में बाहुबली पाला बदलते हुए दिखाई दे रहे हैं. अब राजनीतिक प्रतिस्पर्धा सिर्फ़ अभिजात वर्ग के सदस्यों तक ही सीमित नहीं रही. सत्ता में सभी सामाजिक समूहों की भागीदारी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए आवश्यक है, लेकिन सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन के वाहक बनने की इजाजत बाहुबलियों को नहीं दी जा सकती. 

बिहार में कांग्रेस की यथास्थितिवादी नीतियों के विरुद्ध शुरू हुई सामाजिक न्याय की राजनीति के किरदारों ने जातिवाद और अपराधीकरण का ऐसा काॅकटेल तैयार किया कि उसके नशे में वंचित वर्ग के लोग भी झूमने लगे. समाज जब संस्कृतिविहीनता की स्थिति को स्वीकार कर लेता है तो हथियारबंद समूहों के प्रति दीवानगी बढ़ने लगती है. चुनाव आयोग की सक्रियता के कारण अब बूथ लूटने की घटनाएं कम हुई हैं, लेकिन शक्ति प्रदर्शन की आकांक्षा बनी हुई है.

औपनिवेशिककालीन जमींदारी व्यवस्था ने सामाजिक रुतबे की ऐसी अवधारणा विकसित कर दी कि हिंदी पट्टी में कोई उद्यमी नहीं बल्कि यथास्थितिवादी भूस्वामी ही बनाना चाहता है, जिसका एक निश्चित इलाके में प्रभाव हो. समाजवादी नेताओं ने शोषित-वंचित वर्ग के लोगों को समतामूलक समाज के निर्माण का सपना दिखाया. लेकिन इस अफ़साने की हकीकत यह है कि ऐसे नेता बाहुबलियों के संरक्षक ही सिद्ध हुए. पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की भूमि आग्नेयस्त्रों के प्रदर्शन में रुचि लेने वाले नेताओं के लिए बेहद उर्वरा रही है. गौरतलब है कि इन इलाकों से ही सबसे अधिक पलायन का रिकार्ड है. गरीबी यहां की भाग्यरेखा है.

समाजवादी और कांग्रेसी साथ-साथ

कांग्रेस को उच्च वर्ग की हिमायती पार्टी के रूप में चित्रित करके वंचितों के वोट लेने वाले साम्यवादी नेता अब इस पार्टी की पालकी ढ़ो रहे हैं. कांग्रेस के लिए यह दुविधा हमेशा रही कि वह बड़े किसानों को खुश करे या फिर श्रमिकों के आंदोलन को अपना समर्थन दे. साम्यवादी दल कांग्रेस की नीतियों से कभी सहमत नहीं रहे और अपनी राजनीतिक जमीन तलाशने के बजाय अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन के खेल को प्राथमिकता देते रहे. विचारधाराओं के इस द्वंद्व से पश्चिम बंगाल के पर्वतीय क्षेत्रों के गरीब मजदूर-किसान अपरिचित थे. इसलिए देश ने आतंक का लाल रंग देखा.

हथियारबंद आंदोलन के जरिए भूमि सुधार की चाहत ने किसी का भला नहीं किया. अपराध को विचारधाराओं के आवरण में छुपाने की तरकीब से लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति जनसाधारण की निष्ठा कम होती है. जब समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव किसी मुजरिम की मौत पर राजनीतिक चर्चा करते हैं तो उद्देश्य न्याय की मांग न होकर वोट बैंक को समृद्ध बनाना होता है. सत्ताधारी दल के नेताओं पर भी कानून की धज्जियां उड़ाने का आरोप लगता रहा है. राजनीति में अपराधियों की घुसपैठ के लिए किसी एक दल को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. चुनाव में जीत हासिल करने के लिए कमोबेश सभी राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय राजनीतिक दल नैतिक मूल्यों की उपेक्षा करते हुए दिखाई देते हैं. 

विश्व के प्रथम गणतंत्र का वर्तमान

इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि वैशाली में प्रथम गणतंत्र की स्थापना हुई थी, लेकिन यह इलाका बाहुबली वीरेंद्र सिंह उर्फ वीर महोबिया की राजनीतिक उपस्थिति के लिए भी जाना जाता है. गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, महात्मा गांधी एवं जय प्रकाश नारायण की कर्मभूमि बिहार ने आनंद मोहन, मुन्ना शुक्ला, रामा सिंह, पप्पू यादव, अनंत सिंह, सूरजभान एवं शहाबुद्दीन को भी पुष्पित-पल्लवित होने का अवसर प्रदान किया. उस दौर को लोग आज भी याद करते हैं जब कोयलांचल में मतदान व्यवहार पर सूर्यदेव सिंह का प्रभाव हुआ करता था.

इस बार राष्ट्रवादी भाजपा ने सामाजिक अभियंत्रण यानी सोशल इंजीनियरिंग को रामवाण मानते हुए दबंग ढु़लू महतो को धनबाद से अपना प्रत्याशी घोषित किया है. भारतीय समाज की राजनीति का विश्लेषण करने के लिए मानवशास्त्रीय दृष्टि की जरूरत है. मार्क्सवादी विचारक देश के अंदर उभरती हुई नई सामाजिक शक्तियों की भूमिका को समझने में विफल रहे. इसलिए जातिवाद के सहारे आगे बढ़ने वाले नेता मेहनतकश किसानों को अपना बनाने में कामयाब हो सके. 

उत्तर प्रदेश की राजनीतिक पहचान गढ़ने के लिए सिर्फ जवाहर लाल नेहरु, लाल बहादुर शास्त्री, गोविंद वल्लभ पंत, राममनोहर लोहिया, आचार्य नरेंद्रदेव एवं अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता ही याद नहीं किए जायेंगे बल्कि कलमकारों को स्याही डीपी यादव, अतीक अहमद, मुख्तार अंसारी, ब्रजभूषण शरण सिंह, धनंजय सिंह, अखिलेश सिंह, अभय सिंह, हरिशंकर तिवारी एवं बृजेश सिंह जैसे जनप्रतिनिधियों की "शौर्यगाथा" लिखने के लिए भी सुरक्षित रखनी होगी.

हालांकि योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के पश्चात प्रदेश में बाहुबलियों की सियासत ढलान पर है. अब अपराधियों का प्रभाव भी खत्म हो रहा है. लोकतांत्रिक समाजवाद, वैज्ञानिक समाजवाद, गांधीवादी समाजवाद, हिंदुत्ववाद, अंबेडकरवाद, संसदीय लोकतंत्र एवं धर्मनिरपेक्षतावाद की अपनी-अपनी व्याख्याओं से संतुष्ट अध्येता सियासत में बाहुबलियों के दबदबे का सटीक विश्लेषण करने से हमेशा बचने की कोशिश करते रहे हैं.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]

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