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श्रीलंका: गृह युद्ध को रोकने के लिए क्या अब सर्वदलीय सरकार ही है एकमात्र विकल्प?

अपने अब तक के सबसे भीषण आर्थिक संकट से जूझ रहे श्रीलंका में हालात गृह युद्ध जैसे बन गए हैं. प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने तो अपने पद से इस्तीफा दे दिया है, लेकिन राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने अभी तक अपनी कुर्सी नहीं छोड़ी है, जबकि प्रदर्शनकारी उनके इस्तीफे की मांग पर अड़े हुए हैं. देर शाम स्पीकर के यहां हुई आपात बैठक में ये सहमति बनी है कि पीएम और राष्ट्रपति,दोनों ही तुरंत अपना पद छोड़ें और सर्वदलीय सरकार का गठन करें. दरअसल, श्रीलंका के हालात को संभालने के लिए अब वहां एक सर्वदलीय सरकार की जरुरत है और इसमें जितनी ज्यादा देरी होगी, हालात उतने ही बेकाबू होते जाएंगे.

राष्ट्रपति राजपक्षे तो अपना आवास खाली करके किसी अज्ञात स्थान पर छुपे बैठे हैं, लेकिन शनिवार की दोपहर जिस तरह से उग्र प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति भवन पर कब्जा किया है, उससे साफ है कि देश खतरनाक अराजकता की तरफ बढ़ रहा है और उन्मादी भीड़ अब कहीं भी कब्ज़ा कर सकती है. चूंकि श्रीलंका हमारा नजदीकी पड़ोसी है, पिछले दिनों भारत ने उसे हर संभव मदद भी उपलब्ध कराई है, लेकिन पड़ोसी देश में उग्र हिंसा और राजनीतिक अस्थिरता ने भारत की चिंता बढ़ा दी है. इसलिये भारत भी यही चाहता है कि वहां जल्द से जल्द सर्वदलीय सरकार का गठन करके सियासी स्थिरता कायम हो.

हालांकि इस दिशा में विक्रमसिंघे के प्रयासों की तारीफ की जानी चाहिए. उन्होंने पीएम पद से इस्तीफ़ा देने से पहले अपने ट्वीट में लिखा, सभी नागरिकों की सुरक्षा सहित सरकार की निरंतरता सुनिश्चित करने के लिए मैं आज पार्टी नेताओं की सर्वदलीय सरकार के लिए रास्ता बनाने की सबसे अच्छी सिफारिश को स्वीकार करता हूं. इसे सुगम बनाने के लिए मैं प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दूंगा. दरअसल, श्रीलंका अपने इतिहास के सबसे ख़राब आर्थिक संकट से गुज़र रहा है. उसके पास ईंधन ख़रीदने लायक तक भी पैसे नहीं हैं, जिसकी वजह से वहां बिजली का जबरदस्त संकट तक पैदा हो गया है. देश में पेट्रोल-डीज़ल की भारी किल्लत है.यहां तक कि दवाइयों तक का अकाल पड़ गया है और महंगाई आसमान छू रही है.

वैसे तो लोगों में अपनी सरकार के खिलाफ नाराज़गी तो इस साल की शुरुआत से ही दिखने लगी थी. अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे लोगों ने राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे से गद्दी छोड़ने की मांग उठानी शुरु कर दी थी. बीते अप्रैल में लोग अपनी मांगों को लेकर लोग श्रीलंका की सड़कों पर उतर आए थे और उस दौरान के स्थानों पर हिंसक प्रदर्शन भी हुए. उन विरोध प्रदर्शन के बाद एक महीने के भीतर दो बार आपातकाल लागू किया गया. अप्रैल में पहली बार आपातकाल लागू होने के अगले ही दिन पूरी कैबिनेट ने इस्तीफ़ा दे दिया था.

पूर्व प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के इस्तीफ़े के बाद रनिल विक्रमसिंघे छठी बार देश के प्रधानमंत्री बने थे, जिन्होंने भी अब इस्तीफा दे दिया है. हालांकि रनिल विक्रमसिंघे ने पीएम बनने के साथ ही ये कह दिया था कि "ये संकट और बुरा होगा" और ऐसा ही देखने को मिल रहा है. श्रीलंका के बदतर होते हालात पर संयुक्त राष्ट्र ने एक बयान में कहा है कि, "श्रीलंका मानवीय संकट के कगार पर है." जानकार मानते हैं कि श्रीलंका में आर्थिक संकट पैदा होने की बड़ी वजह ये है कि वहां का विदेशी मुद्रा भंडार बेहद तेज़ी से घटता चला गया. हालांकि कई लोगों का आरोप है कि ऐसा वहां की सरकार की आर्थिक बद-इंतज़ामी और कोरोना महामारी के प्रभाव की वजह से हुआ है. विदेशी मुद्रा भंडार की कमी की वजह से श्रीलंका ज़रूरी सामानों का आयात नहीं कर पा रहा है जिनमें तेल, खाने-पीने की वस्तुएं और दवाएं जैसी जरुरी चीज़ें शामिल हैं.

इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ,जब इस साल मई में वो अपने कर्ज़ की किस्त भी नहीं चुका पाया था. तब उसे सात करोड़ 80 लाख डॉलर की अदायगी करनी थी मगर 30 दिनों का अतिरिक्त समय दिए जाने के बावजूद वो इसे नहीं चुका सका.श्रीलंका अभी अंतरसर्वदलीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) से लगभग 3.5 अरब डॉलर की बेलआउट राशि चाह रहा है जिसके लिए उसने  बातचीत शुरु की थी लेकिन राजनीतिक अस्थिरता के कारण वह मदद भी जल्द मिलना संभव नहीं दिखता. श्रीलंका सरकार का कहना है कि उसे इस साल आईएमएफ़ समेत अंतरसर्वदलीय समुदाय से पांच अरब डॉलर की मदद चाहिए.लेकिन जब तक वहां कोई मजबूत व स्थिर सरकार नहीं आ जाती,कोई भी देश उसे आर्थिक मदद देने की जोखिम भला क्यों मोल लेना चाहेगा? 

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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