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शिव नादर यूनिवर्सिटी में साथी छात्रा की हत्या और फिर खुदकुशी, युवाओं में कहां से आ रहा है इतना गुस्सा, जानें एक्सपर्ट से

ग्रेटर नोएडा के शिव नादर यूनिवर्सिटी में 18 मई को एक ऐसी घटना घटी, जो दिल दहला देने वाली तो है ही. इसके साथ ही ये भी सावल खड़ा हो रहा है कि आखिरकार युवाओं में इतना गुस्सा और आक्रामकता आने की वजह क्या है. दरअसल इस यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले एक युवक ने अपने साथी छात्रा की यूनिवर्सिटी कैंपस में गोली मारकर हत्या कर दी और इसके बाद हॉस्टल जाकर खुद को भी गोली मार ली. इसमें उसकी भी जान चली गई. सवाल यही उठता है कि 20-21 साल के युवाओं में इतना गुस्सा कैसे आ जाता है कि वे अपने ही साथी छात्रा की हत्या करने से भी बाज नहीं आते हैं.

बच्चों में 'आक्रामकता' बेहद चिंता का विषय

यूनिवर्सिटी में लड़के ने जिस तरह पहले लड़की को गोली मारी, फिर खुदकुशी की, ऐसी खबर सुनकर पहली प्रतिक्रिया 'अफसोस' की होती है. अफसोस इस बात का कि जिस चीजों की इन बच्चों को जरूरत है, वो इन्हें मिल नहीं पा रहा है. समाज उसे मान नहीं रहा, समाज तो दूर की बात है, पहले तो परिवार ही इनकी बात नहीं समझता. परिवार वह इकाई  है, जहां से किसी बच्चे या बच्ची की शुरुआत होती है. वह पहला पायदान है. अभी की जो जेनरेशन है, उसके पास ज्ञान बहुत है, पर उपयोग नहीं हो पता. संतुलन नहीं हो पाता है. सही सलाह के अभाव में युवा दिग्भ्रमित भी हो रहे हैं.

आज हमारा ध्यान बच्चों की पढ़ाई पर बहुत है. इंटेलिजेंस पर काफी जोर है. बच्चे का IQ अधिक हो, एकेडमिक तौर से बहुत बढ़िया हो, कितना नंबर ला रहा है, यही सब उसको आंकने का आधार बनता है. इस पूरी दौड़ में उनका इमोशनल कोशंट (EQ) बहुत पीछे रह जाता है, उसकी अनदेखी की जाती है. अगर कोई बच्चा पढ़ाई में ठीक नहीं है, तो उसके अंदर क्या चल रहा है, वह क्या चाह रहा है, कुछ और भी बातें हो सकती हैं, उस बच्चे के अंदर क्या चल रहा है, उसकी कोई चिंता नहीं करता.

बच्चों में आजकल डिप्रेशन बहुत बढ़ रहा है. चूंकि उनका एक्सपोजर बहुत अधिक है, माहौल अलग है तो उनकी फीलिंग्स समझने की कोशिश करनी होगी. उसके हिसाब से ही उनको दिशा देने की जरूरत है, जो नहीं हो पा रहा है. पैरेंट्स यह दावा तो करते हैं कि जो उनको भी नहीं मिला, वह भी बच्चों को दे रहे हैं, लेकिन यह सच नहीं है.

हमारी पीढ़ी के पास वेंट आउट करने के कई आउटलेट्स थे, लेकिन आज के बच्चों के पास नहीं है. बच्चों को जो चाहिए, वही उन्हें नहीं मिलता. अभी हमने 10वीं-12वीं के बच्चों के साथ एक वर्कशॉप किया था. उसमें एक सामान्य सवाल था कि वे अपनी भावनाएं किसके साथ साझा करते हैं और यह बेहद भयावह बात है कि 90 फीसदी बच्चों ने यह जवाब दिया कि वे किसी से शेयर नहीं करते.

अब नहीं है 'कल्चरल शॉक' कोई मुद्दा

अब तो ये बात हो गयी है कि हरेक जगह एक्सपोजर है, तकनीक की बहुलता से सारी बातें चाहे मेट्रो सिटी की हो या किसी कस्बे की, वह एक क्लिक दूर हैं. तो अब कल्चर शॉक मुद्दा नहीं है. हां, जानकारी बहुत इकट्ठा हो गयी है, उसमें से कुछ काम की है, कुछ बेकार हैं. ऐसे में आजकल के बच्चों को वह छांटना नहीं आता और वह फंस जाता है. उसकी आंखें चौंधिया जाती हैं. उसकी जिज्ञासा बहुत होती है और जानकारी की बाढ़ उसके पास है.

जब आपके पास ज्ञान बहुत होता है, गाइडेंस नहीं है और 'वेंट आउट' करने का रास्ता नहीं है, तो आज के यूथ के पास एक चीज बहुत बढ़ गयी है. वह है ओवरथिंकिंग यानी बहुत अधिक सोचना. यहां तक कि नौवीं-दसवीं के बच्चे यह पूछते हैं कि 'फेक रिलेशन' को कैसे पहचानें और कैसे बचें? हमारे समय में 'अफेयर' एक शब्द था. आज तो 'रिलेशनशिप', 'ब्रेकअप', 'पैचअप' और 'एक्स' जैसे बहुत सारे शब्द इस्तेमाल होते हैं.

पैरेंट्स की ये शिकायत होती है कि बच्चे उनको मिली चीजों के लिए कृतज्ञ नहीं है, वो सिर्फ लेना चाहते हैं, देना नहीं जानते हैं. नयी पीढ़ी की खूबसूरती है कि वे बहुत तार्किक हैं. वे जब तक आपसे कन्विंस नहीं होंगे, तब तक आपकी बात नहीं मानेंगे. मां-बाप की उनसे शिकायत भी यही होती है कि बहस बहुत करते हैं, जुबान लड़ाते हैं. इनके सवालों के जवाब में अगर आपने इनको संतुष्ट कर दिया तो फिर ये बहुत अच्छे से उस बात को मानते हैं, वरना डांट-डपट से ये नहीं मानेंगे. इनको आप थोथा बनाकर बैठा नहीं सकते.

कंपटीशन और कंपेयर से बढ़ी रही आक्रामकता

बच्चों में हम प्रतियोगिता और तुलना भर रहे हैं. हम कहते हैं कि फलाने को देखो, तुमको फलाने से आगे निकलना है. बच्चे के दिमाग में दो चीजें आजकल बचपन से आ गयी हैं. पहला, दूसरों से आगे निकलना और जीत हासिल करना. इसमें छुपी हुई बात क्या है...वह है कि जो चीज वह चाहे, उसे मिले. बच्चों को बहुत बेसिक बात बतानी ही हम भूल गए हैं. उनको बताना होगा कि रिजल्ट उनके हाथ में नहीं है, उनके हाथ में बस मेहनत करना है.

दूसरी बात है, कंपेयर करने की. आजकल एक बात बहुत कॉमन हो गयी है. वह है कि हरेक को बॉयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड चाहिए ही चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता है तो उसके दोस्त, उसका Peer group (एक ही उम्र का ग्रुप) उसको धमकाता है, छेड़ता है. फिर, बच्चे इमोशनली बहुत 'हॉलो' यानी खाली हैं. चूंकि उनका परिवार से बॉण्ड टूट चुका है, तो वो उस खालीपन को भी बाहर से ही भरने की कोशिश करते हैं. फिर, आपने हारना भी नहीं सीखा है. तो, जो भी आपको चाहिए, वह चाहिए ही. इसलिए आपको अगर किसी ने ना बोला, तो वह आप बर्दाश्त नहीं करेंगे.

इमोशनल कोशंट पर ध्यान देने की जरूरत

यह बातें एक-दूसरे से जुड़ी हैं. अगर आपने बच्चों के इमोशनल कोशंट पर ध्यान दिया, उनको प्रतियोगिता में नहीं झोंका, उनको सफलता के मायने बतलाया, बताया कि खुशी जरूरी है, खुशी के मायने क्या हैं, तो शायद ऐसी स्थिति टाली जा सके. एक अच्छा इंसान बनना बहुत जरूरी है, यह बताना बहुत जरूरी है.

यह हम अनजाने में परिवार से ही उसको आक्रामक प्रवृति देते हैं. फिर, वह समाज में जब जाता है, तो वही चीजें फैलाता हैं. इससे निबटने का एक उपाय है कि जैसे बेसिक स्वास्थ्य के लिए हम बात करते हैं, उसी तरह मेंटल हेल्थ की भी बात होनी चाहिए. स्कूलों में एक काउंसलर की व्यवस्था को अनिवार्य किया जाए और वो बच्चों की संख्या के लिहाज से हो. चार-पांच हजार बच्चों पर एक काउंसलर रखने से फायदा नहीं होगा. अभिभावकों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी और बच्चों पर बहुत ध्यान देना होगा.

हम जैसे काउंसलर को भी मिशन की तरह इसे अपनाना होगा. समाज में ये सामूहिक जिम्मेदारी है कि कैसे बच्चों और युवाओं को गुस्से और आक्रामकता से बचाया जाए. इस पर बचपन से ही ध्यान देने की जरूरत है. अगर ऐसा नहीं किया गया तो बच्चों की ऐसी दर्दनाक मौत के किस्से हमें सुनने को मिलते ही रहेंगे.

(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है) 

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