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चीन के रक्षा मंत्री का भारत आना कई मायनों में है महत्वपूर्ण, LAC पर गतिरोध को कम करने की होगी कोशिश

एलएसी पर भारत और चीन के बीच तनाव बना हुआ है. इस बीच 27 और 28 अप्रैल को शंघाई सहयोग संगठन (SCO) के रक्षा मंत्रियों की एक बैठक नई दिल्ली में हो रही है. लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश से लगी सीमा पर जारी गतिरोध के बीच चीन के नए रक्षा मंत्री ली शांगफू एससीओ की इस बैठक में शामिल होंगे.

यह 2020 के बाद किसी भी चीनी रक्षा मंत्री का पहला दौरा है. ऐसे में यह सवाल है कि चीन के रक्षा मंत्री का यह दौरा कितना महत्वपूर्ण है. दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है कि  एससीओ के अंदर चीन और पाकिस्तान दोनों ही हैं. भारत की रणनीति एससीओ बैठक के दौरान क्या होनी चाहिए?

चीन के रक्षा मंत्री का दौरा काफी महत्वपूर्ण है. पिछला तीन साल छोड़ दें तो पिछले 20-30 वर्षों में भारत और चीन के संबंधों में काफी सुधार हो रहे थे. दोनों देश के बीच संबंधों में गहराई आ रही थी. लेकिन पिछले दो से तीन वर्षों में जो घटना हुई है उस वक्त से एक गतिरोध की स्थिति बनी हुई है. इसलिए उनका आना बहुत ही महत्वपूर्ण है. इससे पहले भी जब एससीओ के अंदर एनएसए की बैठक हुई तब उसमें चीन और पाकिस्तान दोनों ने वर्चुअली बैठक में हिस्सा लिया था.

चीन के रक्षा मंत्री के आने से दोनों देशों के बीच एलएसी पर जो तनाव है, उसे कम करने को लेकर वार्ता में आगे बढ़ने के और भी रास्ते खुलेंगे. भारत को यह प्रयास करना चाहिए कि चीन ने लद्दाख के जिन रणनीतिक इलाकों जैसे देपसांग प्लेन और चार्डिंग निंगलूंग नाला (CNN) से अपने सैनिकों को पीछे नहीं ले जाने की बात कही है, उसके लिए हमें वहां से डिसएंगेजमेंट करने को लेकर पुख्ता तौर पर वार्ता करनी चाहिए. भारत को इसके लिए न सिर्फ बातचीत करनी चाहिए बल्कि एक फर्म स्टैंड भी लेना चाहिए कि जब तक इन रणनीतिक क्षेत्रों से चीन अपने सैनिकों को पीछे नहीं कर लेता है तब तक हम जो और भी कॉम्प्रिहेंसिव मुद्दे हैं उस पर आगे नहीं बढ़ेंगे. यह बात सही है कि जब तक डिप्लोमेटिक चैनल बातचीत के लिए नहीं खुलेगा तब तक इन सब चीजों का समाधान होना थोड़ा मुश्किल कार्य है. इसलिए इस प्लेटफॉर्म का भारत को इस्तेमाल करना चाहिए कि वो इसके लिए चीन को कन्विंस करे कि वो इन बिंदुओं से पहले पीछे हटे.

यह बात चीन को भी पता है कि अरुणाचल प्रदेश भारत का अभिन्न हिस्सा है. चीन इन क्षेत्रों पर अपना दावा इसलिए करता रहा है क्योंकि उसकी विस्तारवाद की रणनीति शुरू से रही है. अरुणाचल प्रदेश से पहले वो सिक्किम के इलाकों को अपना बताया करता था, लेकिन कुछ समय के बाद उसने यह स्वीकार किया कि यह भारत का हिस्सा है. अभी जो अरुणाचल प्रदेश में 11 जगहों का नाम बदला और उसे अपने मैप का हिस्सा बताया मुझे लगता है कि वह ऐसा करके भारत के ऊपर एक दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है. ये एक दबाव की राजनीति है ताकि वह अन्य इलाकों में अपना जो घुसपैठ है या फिर एलएसी के क्षेत्रों में वह ज्यादा दबाव बना पाए. इसलिए अरुणाचल को चीन एक औजार के रूप में इस्तेमाल करना चाहता है. चीन का जो वर्किंग स्टाइल रहा है शुरू से वह अभी भी है. वह हमेशा किसी न किसी तरीके से भारत के ऊपर दबाव बनाने की कोशिश करता रहा है, लेकिन मुझे लगता है कि आज की जो भारतीय विदेश नीति है उसमें वह अब सफल नहीं हो पाएगा.

चीन भारत के साथ व्यापार करके हमेशा से फायदे में रहा है. चूंकि हम यह जानते हैं कि भारत और चीन के बीच जो व्यापारिक रिश्ते हैं और जो व्यापार है उसमें चीन हमेशा से फायदे में रहा है. भारत के साथ व्यापार संतुलन का पलड़ा चीन के पक्ष में रहा है. सेकेंडरी और इंडस्ट्रियल गुड्स के मामले में चीन हमेशा से आपूर्तिकर्ता की भूमिका में रहा है. ऐसे में चीन हमेशा चाहेगा कि भारत के साथ जो उसके आर्थिक संबंध हैं, उसे और बढ़ाया जाए ताकि वह और रेवेन्यू बढ़ा सके. आर्थिक कारण भी एक बड़ा पहलू है चीन को वार्ता के मेज पर लाने की या उसे ऐसा लगता है कि व्यापार और अर्थव्यवस्था के लिए भारत के साथ बातचीत करना जरूरी है. लेकिन हमें यह कोशिश करनी चाहिए कि हम इस व्यापारिक संबंध को अपने पक्ष में कैसे लेकर आगे बढ़ें. व्यापार संतुलन को कैसे अपने पक्ष में किया जाए. कैसे फिर हम इस आर्थिक लिवरेज का लाभ चीन के साथ दूसरे क्षेत्रों में कर सकते हैं. जैसे एलएसी विवाद को सुलझाने में इसका इस्तेमाल किया जाए. यह भारत के लिए एक चुनौतीपूर्ण कार्य है.

एससीओ में कुल आठ देश हैं. इसमें चार सेंट्रल एशियन देश शामिल हैं और अन्य चार देशों में रूस, चीन, भारत और पाकिस्तान है. पाकिस्तान, चीन के दबाव के कारण ही एससीओ के अंदर आया है. भारत की जो परंपरागत विदेश नीति रही है और सामान्यतः जो इस तरह के क्षेत्रीय संगठन रहें हैं, उसका उपयोग हम लोग मल्टीलेटरल मुद्दो के लिए ही करते आ रहे है और यही ठीक भी रहेगा कि हम वो चीजें ही करें जहां पर सभी की सहमति हो. लेकिन उस दौरान हमें अपने द्विपक्षीय मुद्दों को भी तवज्जो देना होगा.

एससीओ भारत के ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए, आतंकवाद को लेकर कार्रवाई करने के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण संगठन है. भारत को एससीओ के अंदर इन सभी मुद्दों पर बातचीत करनी चाहिए. चूंकि SCO अपने आप में यूनिक मंच है जहां पर चीन और पाकिस्तान दोनों ही इसके अंदर हैं. दोनों देशों के साथ हमारे संबंध कई बार बहुत ही बुरे दौर में चला जाता है. ऐसे में इस प्लेटफॉर्म के माध्यम से द्विपक्षीय वार्ता को बढ़ावा देने के लिए इसका उपयोग किया जा सकता है.

हाल के वर्षों में भारत का चीन के साथ बहुत ही इंगेजिंग और डायनेमिक संबंध रहा है. 2020 के घटनाक्रम को अगर छोड़ दिया जाए तो बहुत ही डायनेमिक रहा है. लेकिन यह भी है कि जहां-जहां सख्त रुख अख्तियार करने की जरूरत पड़ी है, वहां भारत ने कड़ा रुख अपनाया है. चाहे वो लद्दाख में सीमा विवाद हो, डोकलाम का मुद्दा हो या अरुणाचल का तो कुल मिलाकर चीन के प्रति भारत की जो वर्तमान विदेश नीति है उसमें दृढ़ता है. यूपीए सरकार के दौरान जो विदेश नीति थी या जो चीन को लेकर दृष्टिकोण था उसमें इतनी गत्यात्मकता नहीं थी. ये बदलाव कुछ हाल के वर्षों में हुए हैं.

(ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)

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