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चुनावों से पहले बंटवारे को लेकर संघ प्रमुख भागवत का ये दर्द आखिर क्यों झलका?

भारत के आज़ाद होते ही इस देश के उप प्रधानमंत्रीऔर गृह मंत्री का जिम्मा संभालने वाले वल्लभभाई झावेरभाई पटेल यानी सरदार पटेल ने कहा था कि ” हमने यह महसूस किया है कि यदि हमने विभाजन स्वीकार नहीं किया तो भारत छोटे- छोटे टुकड़ों में विभाजित होकर विनष्ट हो जाएगा. कार्यालय में मेरे एक वर्ष के अनुभव से मुझे ज्ञात हुआ कि हम जिस रास्ते पर चल रहे थे ,वह हमें विनाश की ओर ले जा रहा था. ऐसा करने पर हमारे पास एक नहीं कई पाकिस्तान होते. हमारे प्रत्येक कार्यालय में एक पाकिस्तानी शाखा होती.“

लेक़िन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से ऐन पहले आरएसएस यानी संघ प्रमुख मोहन भागवत ने सरदार पटेल की उस भावना को समझते हुए ही शायद देश के  बंटवारे का मुद्दा उठाया है उन्होंने कहा है कि मातृभूमि का विभाजन कभी ना मिटने वाली वेदना है, ये दर्द तब खत्म होगा जब विभाजन निरस्त होगा. उन्होंने ये भी  कहा कि ये नारों का विषय नहीं है, नारे तब भी लगते थे लेकिन विभाजन हुआ. लिहाज़ा,ये सोचने का विषय है. 

जो भी लोग संघ की पृष्ठभूमि से वाकिफ होंगे या आरएसएस को किसी भी तरह से फॉलो कर रहे होंगे,तो वे ये भी समझ रहे होंगे कि मोहन भागवत अपने पूर्ववर्ती प्रमुखों से ज्यादा मुखर भी हैं और धार्मिक-सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर वे अपने विचार व्यक्त करने से जरा भी नहीं हिचकते हैं. अगर सीधी-सपाट भाषा में बोला जाये, तो वे ऐसे मुद्दे उठाते रहे हैं,जो देश में एक बहस का विषय बने और उसके जरिये बहुसंख्यक आबादी संघ व बीजेपी की विचारधारा को मानने पर मजबूर हो जाये कि इससे ज्यादा राष्ट्रभक्त राजनीतिक दल कोई और हो ही नहीं सकता.

उन्होंने कल दिल्ली से लगे नोएडा के एक समारोह में जो कुछ कहा है,उसके बेहद गहरे मायने तो हैं ही लेकिन मौजूदा हालात में उसे समझने-विचारने की भी उतनी ही जरुरत है.भागवत ने जो कुछ भी कहा है,उनके हर शब्द पर गौर करने की जरुरत है.उन्होंने कहा है कि "जो खंडित हुआ, उसको फिर से अखंड बनाना पड़ेगा,ये  राष्ट्रीय व धार्मिक मानवीय कर्त्तव्य है. भारत के विभाजन में सबसे पहली बलि मानवता की ही हुई. विभाजन से ना भारत सुखी है और ना ही वो जो इस्लान के नाम पर विभाजन की मांग कर रहे थे."

दरअसल, भागवत पहले भी ये बात अनेकों बार कह चुके हैं कि भारत में पैदा होने वाले हर व्यक्ति का  DNA एक ही है,जो इसका प्रमाण है किइस्लाम,ईसाई या किसी अन्य मज़हब में पैदा होने वाले लोगों के पूर्वज भी हिन्दू ही थे.हालांकि मुसलमानों के रहनुमा कहलाने वाले तमाम मज़हबी व सियासती नेता इसे मंजूर करने को कतई तैयार नहीं हैं.लेकिन संघ की स्थापना से लेकर अब तक जितने भी सर संघचालक हुए हैं,उनमें शायद भागवत ही ऐसे विरले हैं,जो सिक्के के दोनों पहलुओं की बात करते हैं और जहां जरुरत होती है, वहां अपने पसंदीदा पहलू पर लोहार वाली चोट करने से भी गुरेज नहीं करते.

चूंकि उत्तरप्रदेश समेत पांच राज्यों के चुनाव सिर पर हैं और ऐसे वक्त पर भागवत की कही ये बात बेहद मायने रखती है कि आखिर विभाजन के बाद भी दंगे क्यों होते हैं.अपने संबोधन में उन्होंने बीजेपी और सरकार का राजकाज चलाने वालों को संकेतों की भाषा में नसीहत देने का प्रयास किया है. हालांकि ये कोई भी नहीं जानता कि उनके इस इशारे पर अमल करते हुए कितने नेता ऐसी गलती दोहराने की कोशिश नहीं करेंगे. भागवत ने एक बेहद रिमार्केबल बात कही है,जिसका मर्म समझे बगैर देश की धर्म आधारित राजनीति का सच समझना भी बेहद मुश्किल है.उनके इस कथन पर गहराई से गौर करेंगे,तो हमें दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के "राजधर्म निभाने" की याद आ जायेगी. मोहन भागवत ने ये भी कहा कि " देश कैसे टूटा, उस इतिहास को पढ़कर आगे बढ़ना होगा. विभाजन के बाद भी दंगे होते हैं. दूसरों के लिए भी वही आवश्यक मानना,जो खुद को सही लगे, यह गलत मानसिकता है. अपने प्रभुत्व का सपना देखना गलत है. राजा सबका होता है. सबकी उन्नति उसका धर्म है."

सियासत से जुड़े लोग जानते हैं कि जनसंघ से बीजेपी बनने तक और फिर उसे सत्ता में बैठाने का जो सपना संघ ने बरसों पहले देखा था,उसे साकार करने में उसके लाखों अनाम स्वयंसेवकों ने कोई कंजूसी नहीं बरती औऱ उनकी तपस्या,समर्पण की बदौलत ही आज संघ को बीजेपी का 'भाग्यविधाता' समझा-कहा जाता है. विपक्षी दल लाख कहते रहें कि बीजेपी सरकारों का रिमोट कंट्रोल संघ के ही हाथ में है लेकिन संघ ने आज तक कभी इसे स्वीकार नहीं किया. संघ के तमाम पदाधिकारी यही दावा करते हैं कि वे सिर्फ मार्गदर्शन करने की भूमिका निभाते हैं, कभी भी बीजेपी की सरकारों के कामों में कोई दखल नहीं देते,चाहे केंद्र हो या राज्य. लेकिन इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि संघ के काम करने,बोलने और उसके जरिये

सत्ता में बैठे लोगों तक संदेश देने का उनका अपना एक अलग व अनूठा तरीका है,जो सिर्फ वे ही समझ पाते हैं, जो संघ से जुड़े हैं या फिर कभी उनका नाता उससे रहा हो.देश से जुड़े बेहद खास मुद्दों पर भी संघ प्रमुख अक्सर संकेतों की भाषा में ही अपनी बात रखते हैं.लिहाज़ा,भागवत ने जो बोला है,वो इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि देश का राजा भले ही संघ की पसंद का है लेकिन वो हर मज़हब व तबके का है और इसीलिये सबकी तरक्की ही उसका धर्म होना चाहिए.

चूंकि संघ राष्ट्रवादी होने के साथ ही सांस्कृतिक व सामाजिक संगठन भी है, इसलिये हिंदुत्व हमेशा से उसकी प्राथमिकता में रहा है.इसलिये हिंदुत्व की बात किये बगैर भागवत का संबोधन अधूरा ही रहता है. लिहाज़ा,उन्होंने यहां भी हिंदू समाज को संगठित होने की जरूरत बताते हुए कहा कि " हमारी संस्कृति विविधता में एकता की है, इसलिए हिंदू यह नहीं कह सकता कि मुसलमान नहीं रहेंगे. अनुशासन का पालन सबको करना होगा. अत्याचार को रोकने के लिए बल के साथ सत्य आवश्यक है." पर,अगर सिक्के के दूसरे पहलू पर गौर करें,तो वहां कुछ और ही देखने को मिलता है.तक़्सीम' का अर्थ होता है- बंटवारा या विभाजन.बरसों पहले साहिर  लुधियानवी ने लिखा था- "तेरे धर्मों ने ज़ातों की तक़्सीम की तिरी रस्मों ने नफ़रत की ता'लीम दी."

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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