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ब्लॉग: मोदी और आमित शाह के जाल में फंसते नजर आ रहे हैं राहुल

पूर्वोत्तर राज्यों जैसे त्रिपुरा, मेघालय नागालैंड और कर्नाटक में जीत, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ की तैयारी ही राहुल की राजनीतिक पारी को एक अवसर दे सकती है न की सेंट्रल हॉल के ढोकला और कॉफ़ी पर चर्चा.

संसद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने तरकश से खूब तीर चलाए और समां बांध दिया. भावनाओं और आवेश में वह कुछ ऐसी बातें कह गए जिसे विपक्ष संसद और प्रधानमंत्री की गरिमा के अनुकूल नहीं मान रहा लेकिन पीएम मोदी का व्यक्तित्व ही ऐसा है. उनकी लोकप्रियता ऐसी है कि समर्थक सब बातों को सच मानकर उस पर अडिग रहते हैं. चर्चा यह भी है कि मोदी एक राजनीतिक माहौल बनाए रखना चाहते हैं - एक देश एक चुनाव, मध्यावधि चुनाव जैसे विकल्प भी खुले रखना चाहते हैं और देश में कांग्रेस विरोधी हवा भी बनाए रखना चाहते हैं.

मोदी और अमित शाह के आकलन में गिरती हुई अर्थव्यवस्था, चुनावी वादों का न पूरा होना कृषि और रोजगार से जुड़ी समस्याओं का कोई ठोस विकल्प न भी हो तो हिन्दू समाज में असुरक्षा की भावना, कांग्रेस का तथाकथित भ्रष्टाचार, नेहरू परिवार की राजनीतिक दादागीरी, जवाहरलाल नेहरू की कश्मीर नीति, भाजपा को राजनीतिक रूप से मज़बूत रखने के लिए काफी है. देश के मध्यम वर्ग के लिए कांग्रेस अभी भी स्वीकार करने योग्य नहीं हैं और राहुल गांधी का नेतृत्व युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करने में अक्षम रहा है.

अपरोक्ष रूप से राहुल भी मोदी और अमित शाह के इस जाल में फंसते नज़र आ रहे हैं. कांग्रेस नेहरू बनाम पटेल संवाद में यह दिखाने और जुटाने में लगी है कि कश्मीर मुद्दे पर कैसे नेहरू और पटेल एक राय रखते थे और आरएसएस के विरुद्ध पटेल ने क्या क्या लिखा और किया. कांग्रेस यह बात समझ नहीं पा रही है कि अतीत के विवादों को वह समाप्त नहीं कर सकती क्योंकि आरएसएस और संघ परिवार ने राष्ट्रीय स्तर पर इस बारे ऐसा माहौल तैयार किया है जिसकी काट रामचंद्र गुहा, कुलदीप नय्यर और राजमोहन गाँधी के लेखों से नहीं हो पाएगी. देश में एक बड़ा वर्ग और युवा वर्ग किताबों से दूर व्हाट्सएप की दुनिया में समाया हुआ है जहाँ उसे सिर्फ वह बात और तथ्य रोचक लगते हैं जो उसकी सोच को आकर्षित कर सकें. राहुल कांग्रेस को इसका जवाब देने के लिए एक नई सोच के साथ देशव्यापी अभियान की जरूरत है जो सामाजिक और भावनात्मक रूप से जनता, विशेष रूप से बहुसंख्यकों, शहरी आबादी और युवाओं से जुड़ा हो.

दूसरी तरफ राहुल के जरिए अनौपचारिक चर्चा में यह कहना कि 2019 में मोदी जी के स्थान पर कोई दूसरा NDA का प्रधानमंत्री हो सकता है, उनके राजनीतिक अनाड़ीपन को दर्शाता है. मोदी और अमित शाह की पकड़ को देखते हुए कोई भी राजनाथ सिंह, नीतीश कुमार या शिवराज सिंह चौहान को प्रधानमंत्री के रूप में नहीं पेश कर सकता यदि बीजेपी की अगले लोकसभा चुनाव में 200 से अधिक सीटें आती हैं और एक गठबंधन की सरकार बनती है. एक सरीखे राजनेता के रूप में राहुल को 2019 को अपना चुनाव और अपने चैलेंज के रूप में पेश करना चाहिए. यदि जनता एक गठबंधन को मौक़ा देना चाहती है तो मोदी विकल्प क्या बुरा है?

राहुल के तेवरों में आक्रमण की कमी है. आर्थिक मुद्दों विशेष रूप से किसानों और रोज़गार से जुड़े मामलों पर उनका विज़न क्या है? उनके पास इन जटिल समस्यों का समाधान क्या है? पूर्वोत्तर राज्यों जैसे त्रिपुरा, मेघालय नागालैंड और कर्नाटक में जीत, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ की तैयारी ही राहुल की राजनीतिक पारी को एक अवसर दे सकती है न की सेंट्रल हॉल के ढोकला और कॉफ़ी पर चर्चा.

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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