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पंजाब चुनाव: किसानों के मैदान में कूदने से आखिर किसके हाथ लगेगी सत्ता की बाज़ी?

सबकी निगाहें अगले साल की शुरुआत में होने वाले यूपी के चुनाव पर लगी हुई हैं लेकिन लगता है कि इस बार पंजाब विधानसभा का चुनाव सियासी लिहाज़ से कुछ ज्यादा दिलचस्प हो सकता है,जो कई तरह के उलटफेर होने का इशारा दे रहा है.इसलिये नहीं कि देश के सबसे खुशहाल कहलाने वाले इस सूबे के मुख्यमंत्री राह चुके कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अपनी नई पार्टी बनाकर बीजेपी से गठबंधन कर लिया है,बल्कि वह इसलिये कि ये देश राजनीति की एक नई प्रयोगशाला बनता दिख रहा है.हालांकि फिलहाल कोई भी राजनीतिक दल ये अंदाजा लगाने की हैसियत में नहीं है कि ये प्रयोग किस हद तक कामयाब हो पायेगा. लेकिन सच तो ये है कि साल भर से ज्यादा तक आंदोलन चलाने वाले किसान भी अब पंजाब के चुनावी-मैदान में कूदने का ऐलान कर चुके हैं,जिसने  तमाम बड़ी पार्टियों के गणित को गड़बड़ा कर रख दिया है.

वैसे पूरे आंदोलन की अगुवाई करने वाले संयुक्त किसान मोर्चा ने पहले ही ये एलान कर दिया था कि न तो वह चुनाव लड़ेगा और न ही किसी को अपना बैनर इस्तेमाल करने की ही इजाजत देगा.लेकिन पुरानी कहावत है कि किसी भी कानून के बनते ही उसका तोड़ पहले ही निकल आता है.सो,ये तो सरकार द्वारा बनाया गया कोई कानून था नहीं,सिर्फ फरमान था.लिहाज़ा पंजाब के महत्वाकांक्षी किसान नेताओं ने इसका जो तोड़ निकाला है,उसकी मुखालफत न तो राकेश टिकैत कर पाएंगे और न ही संयुक्त किसान मोर्चा यानी एसकेएम जुड़ा कोई और दूसरा नेता.उन्होंने बीच का ऐसा रास्ता निकाल लिया कि सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे.

दिल्ली की बॉर्डर पर साल भर तक अपना तंबू गाड़े बैठे किसान आंदोलन में वैसे तो देश के कई संगठन शामिल थे लेकिन इसमें पंजाब से मुख्य रुप से 32 किसान संगठन हिस्सेदार थे जिनका वाकई कोई वजूद है.उनमें से 22 संगठन एकजुट हो गए हैं,जिन्होंने  'पंजाब संयुक्त समाज मोर्चा' के नाम से एक अलग सियासी पार्टी बनाकर ये ऐलान कर दिया है कि वो पंजाब की सभी 117 सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ेगी. किसानों के इस मोर्चे व पार्टी का मुख्य चेहरा बलबीर सिंह राजेवाल होंगे.पंजाब की राजनीति के जानकार बताते हैं कि इसमें कोई शक नहीं कि वे पंजाब के किसान संगठनों के बड़े नेताओं में शुमार हैं और पिछली सरकारों से उनकी नजदीकियां भी रही हैं.लेकिन अचानक चुनावी-मैदान में कूदने के लिए 22 संगठनों को मनाकर एक मोर्चा बनाने के पीछे जरुर कोई ऐसी सियासी चाल है,जिसका रिमोट किसी और के हाथ में है.

पंजाब की सियासी नब्ज़ समझने वाले कहते हैं कि किसान आंदोलन की कामयाबी के बाद बलबीर सिंह राजेवाल की ख्वाहिश प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने की हो गई है. इसके लिए वे अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी से गठबंधन की चर्चा भी कर चुके हैं लेकिन सीट शेयरिंग से ज्यादा बड़ा पेंच सीएम उम्मीदवार के चेहरे पर फंसा हुआ है क्योंकि आप ने राजेवाल के नाम पर अभी तक कोई हरी झंडी नहीं दिखाई है.

हालांकि राजेवाल ने मीडिया को यही सफाई दी है कि आम आदमी पार्टी से कोई बात नहीं हुई है और हम अपने बूते पर ही सारी सीटों पर चुनाव लड़ेंगे.लेकिन उनसे जुड़े अन्य किसान नेताओं का दावा है कि आम आदमी पार्टी से सीट शेयरिंग पर बातचीत हो रही है और हो सकता है कि वे हमारे मोर्चे को 35-40 सीटें दे दें लेकिन फिलहाल अंतिम फैसला नहीं हुआ है.

दरअसल, केजरीवाल से 'अंतिम हां' होने तक बलबीर सिंह राजेवाल अपने पत्ते खोलना नहीं चाहते. इसीलिये अपना नया मोर्चा बनाने के बाद उन्होंने यही सफाई दी कि संयुक्त किसान मोर्चा अलग अलग विचारधारा के लोगों के साथ बना है.लेकिन हम एक बहुत बड़ी लड़ाई जीत कर आए हैं,लिहाज़ा हम से लोगों की उम्मीद बढ़ गई है.हम पर लोगों का दबाव बना कि अगर वो मोर्चा जीत सकते हैं,तो फिर पंजाब के लिए भी कुछ कर सकते हैं. इसीलिये जनता की आवाज को सुनते हुए हम पंजाब के लिए एक मोर्चे की घोषणा कर रहे हैं,हालांकि उनका दावा है कि इस मोर्चे में शामिल होने के किये  बाकी तीन संगठन भी आपस में विचार कर रहे हैं क्योंकि हम सब एक नए पंजाब की सृजना करना चाहते हैं.

वैसे गौर करने वाली बात ये भी है कि पंजाब चुनाव को लेकर अब तक आये तमाम सर्वे में केजरीवाल की आप को ही सबसे बड़ी पार्टी के रुप में उभरता हुआ दिखाया जा रहा था.लेकिन कैप्टन अमरिंदर सिंह की नयी बनी पंजाब लोक पार्टी और बीजेपी का गठबंधन हो जाने के बाद वहां की सियासी तस्वीर में भी बदलाव आता दिख रहा है.लिहाज़ा,आम आम आदमी पार्टी को भी ये खतरा सताने लगा है कि जीती हुई बाज़ी कहीं हाथ से निकल न जाये.इसलिये कयास ये भी लगाए जा रहे हैं कि किसानों का मोर्चा बनवा कर उन्हें चुनावी-मैदान में कूदने के लिए तैयार करने के पीछे आप के मुखिया अरविंद केजरीवाल का भी दिमाग हो सकता है.हालांकि इसकी कोई गारंटी नहीं है क्योंकि सियासत में जो होता है,वो दिखता नहीं है. वैसे भी लोकतंत्र में पांच साल में एक बार ही आईना सिर्फ जनता के पास आता है.देखते हैं कि वो इस बार अपना आईना किसे दिखाती है?

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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