बिहार के कैबिनेट विस्तार पर चुनावों की आहट, जातीय राजनीति की छाया

बुधवार को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने मंत्रीमंडल का विस्तार किया और सात नए मंत्रियों को शपथ दिलवाई. जिन विधायकों को मंत्री बनाया गया वो हैं – जीवेश कुमार, संजय सरावगी, सुनील कुमार, राजू कुमार सिंह, मोती लाल प्रसाद, विजय कुमार मंडल और कृष्ण कुमार मंटू. बिहार में मंत्रिमंडल के सदस्यों की अधिकतम सीमा 36 सदस्यों की है और पहले के 30 मंत्रियों की तुलना में अब मंत्रिमंडल में पूरे 36 मंत्री होंगे. माना जा रहा है कि मंत्रिमंडल के विस्तार में जातिगत समीकरणों का पूरा ध्यान रखा गया है और 36 में से 11 मंत्री सवर्ण हैं. इनमें पांच राजपूत, तीन भूमिहार, दो ब्राह्मण और एक कायस्थ हैं.
जिसकी जितनी संख्या भारी
ये ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का नारा पिछले कुछ दशकों में सुनाई देने लगा है. हाल में बिहार में हुई जातिगत जनगणना के मुताबिक बिहार में पिछड़ा वर्ग की आबादी 27.12 प्रतिशत और अनुसूचित जाति की हिस्सेदारी 19.65 प्रतिशत है. नीतीश कुमार के नये कैबिनेट में इन दोनों को 28 और 19 प्रतिशत की हिस्सेदारी तो मिल गयी है. इनकी तुलना में सामान्य वर्ग बिहार की आबादी का लगभग 15 प्रतिशत होने के बाद भी 30 प्रतिशत मंत्रिमंडल घेरे बैठा है. राज्य में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी की मांग जिस अति पिछड़ा समुदाय (ईबीसी) से जातिवार जनगणना के बाद से उठने लगी है, वो 36 प्रतिशत है लेकिन उसे हिस्सेदारी सिर्फ 19 प्रतिशत की ही मिली है. नए मंत्रियों को जगह देने के लिए पुराने मंत्रियों से विभाग लिए भी गए हैं. जैसे जीतन राम मांझी के बेटे संतोष सुमन से सूचना एवं प्रौद्योगिकी विभाग लेकर मंटू सिंह को इसका जिम्मा सौंपा गया है. भूमि और राजस्व में हाल ही में सरकार ने कई नियमों में संशोधन शुरू किये थे, उस विभाग को दिलीप जयसवाल से लेकर संजय सरावगी को दे दिया गया है. इनसे इतना तो स्पष्ट है ही कि चुनावी वर्ष में नीतीश कुमार ने जातिय समीकरण साधने की भरपूर कोशिश तो की, लेकिन उसमें पूरी तरह सफल नहीं हुए हैं.
क्या असफलताओं का ठीकरा भाजपा पर फूटेगा?
बिहार के वर्षों के नीतीश शासन के बारे में ये भी गौर करने लायक है कि जिस “सुशासन” के दावे के साथ वो 2005 के दौर में बिहार की राजनीति में छाये हुए थे, वो विकास पुरुष वाली उनकी छवि अब रही नहीं है. हाल में बहुत सी जहरीली शराब से जुड़ी घटनाओं के अलावा दलित जातियों पर ओबीसी जातियों (विशेषकर यादव) के अत्याचारों की खबरें मुजफ्फरपुर जैसे इलाकों से आती रही हैं. बालू खनन से जुड़े माफियाओं पर लगाम कसने में बिहार सरकार असफल रही है और माफियाओं के आपस में 200-400 राउंड तक गोलीबारी की ख़बरें भी आती रही हैं. यहाँ तक कहा जाने लगा है कि बिहार में व्यापार के नाम पर केवल अवध “बालू और दारू” का व्यापार चल रहा है. अदालतों में दिए हलफनामों में पुलिस करोड़ों की शराब चूहों द्वारा पी लिए जाने तक की बात स्वीकार चुकी है. हाल में ही एक वीडियो में राजद के एक बड़े नेता कच्छे-बनियान में जाम छलकाते दिखे. जब चुनावों में ऐसी असफलताओं की बात होगी, तो ठीकरा किसी न किसी के सर तो फोड़ा जाना है. भूमि और राजस्व के दाखिल-ख़ारिज में जो दिक्कतें बिहार के लोगों को हो रही हैं, उनसे संबंधित विभाग भाजपा को सौंप कर नीतीश बाबू इस आरोप से तो मुक्त हो गए हैं.
बेटे को उतारने की जल्दी
इस राजनैतिक उठापटक के बीच ये भी दिखने लगा है कि नीतीश कुमार के सुपुत्र निशांत कुमार तस्वीरों में दिखाई देने लगे हैं. पहले जहां वो राजनीति में उतरने के प्रश्न पर साफ़ इनकार करते थे, अब वो शरमाते हुए इस प्रश्न को टालते हैं. इसका ये भी मतलब निकाला जा रहा है कि अगले चुनावों में नीतीश कुमार राजद के युवा नेतृत्व और अपने ही खेमे की चिराग पासवान जैसी चुनौतियों के सामने अपने बेटे को उतारेंगे. इस आशय के पोस्टर पटना में जद (यू) कार्यालय के बाहर दिखने भी शुरू हो गए हैं. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि प्रशासनिक रूप से नए मंत्रियों का आना बिहार वासियों के लिए कोई बदलाव नहीं लाने वाला. इसका पूरा असर चुनावी वादों, और भाषणों में ही दिखने वाला है.
सत्ता के विरोध की लहर है क्या?
राजनीति में ये भी कहते हैं कि एक समय के बाद जनता ऊबने लगती है. राजस्थान सहित कई राज्यों में तो ये परंपरा ही रही थी कि बारी-बारी से एक बार भाजपा तो एक बार कांग्रेस को सरकार बनाने का अवसर मिलता था. हाल के दशक में देखा जाए तो ये परिपाटी भी टूटने लगी है इसलिए जनता नीतीश कुमार से उब गयी है, ऐसा कहना जल्दबाजी होगी. केवल विकास की योजनाओं की बात करें तो हाल की अपनी प्रगति यात्रा में भी मुख्यमंत्री ने इतनी योजनाओं की घोषणा की है कि राजद और कांग्रेस जैसे दल उन्हें विकास के मुद्दे पर घेर नहीं पा रहे हैं. उससे पहले भाजपा नेताओं की यात्राओं में अस्पतालों से लेकर सड़कों तक की योजनाओं की बात हुई है. उद्योग का विभाग भी तेज-तर्रार मंत्रियों को सौंपा गया ताकि ये बताया जा सके कि बिहार में नए उद्यमों को शुरू करने और पुराने बंद पड़े उद्यमों को पुनः जीवित करने का काम हो रहा है. नयी नौकरियों की बात करके राजद ने नीतीश सरकार को घेरने का प्रयास किया था, लेकिन हाल ही में अभियंताओं को नियुक्ति पत्र दिए जाने के बाद इसपर भी विराम लग गया है.
ऐसे में राजद के पास केवल एक सुशासन का मुद्दा बचता है. बिहार में हाल के वर्षों में अपराधों में फिर से बढ़त नजर आ रही है. हर वर्ष एनसीआरबी के आंकड़ों और रिपोर्ट के आते ही इसपर थोड़ी हलचल होती है. छोटी मोटी लूट, चोरी, अवैध शराब की बिक्री आदि ने पुलिस के इकबाल पर बट्टा तो लगाया है. फ़िलहाल राजद “जंगलराज” के आरोप पुलिस पर थोपने के प्रयास में है. इसके अलावा केवल युवा नेतृत्व ही ऐसी चुनौती है जिसका सामना नीतीश कुमार को करना होगा. अभी तक राजनैतिक तौर पर नीतीश कुमार का पलड़ा ही भारी दिख रहा है. जबतक चुनावी प्रचार पूरे जोर शोर से शुरू नहीं होता, नीतीश कुमार के लिए बिहार में मुश्किलें बहुत कम ही नजर आती हैं.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]



























