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अयोध्या विवाद पर समझौताः वो घुमावदार सड़क जिसका अंत नहीं

आज एक अभूतपूर्व घटनाक्रम में अयोध्या में विवादित भूमि पर दशकों तक चले कठिन न्यायिक सफर के बाद आज सुप्रीम कोर्ट ने आपसी बातचीत और समझौते का रास्ता अपनाने का सुझाव दिया है. ये वो मुद्दा है जिसने सालों तक सफल सरकारों और लोगों को मानसिक रूप से परेशान किया है. सुप्रीम कोर्ट का ये सुझाव फिर से अयोध्या विवाद को सुलझाने के लिए किसी काम आएगा, ये मानना मुश्किल ही लग रहा है.
हिंदुओं का मानना है कि श्रीराम का जन्म हुआ था और और उनके जन्म पर पावन नगरी अयोध्या में जमीन के उस टुकड़े पर एक मंदिर का निर्माण हुआ था. सन 1527 में मुगल शासक बाबर ने लूटपाट के दौरान उस मंदिर को ध्वस्त कर दिया और उसकी जगह पर एक मस्जिद बना दी जिसे बाबरी मस्जिद के नाम से जाना जाता रहा. उस स्थल पर मंदिर के खंडहर के साथ मुसलमान बड़े प्रचंड रूप से अपना दावा करते रहे हैं.
राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद सदियों से समाज, राजनीति और अदालत में जारी रहा और सिर्फ स्थानीय, क्षेत्रीय ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर ये हमेशा से चर्चा का मुद्दा बना रहा. दावों के साथ जुड़े संवेदनाओं और भावनाओं को देखते हुए राजनीतिज्ञों, प्रशासन और न्यायधीश इस गर्मागर्म मुद्दे को सुलझाने की बजाए सीधे-सीधे आने वाली पीढ़ी को सौंपते गए.
मौजूदा रिकॉर्ड्स के मुताबिक इस जमीन पर कब्जे के लिए पहला सांप्रदायिक संघर्ष 1853 में हुआ था. बाद के रिकॉर्ड्स में इस जमीन को प्लॉट नंबर 583 के नाम से दर्ज किया गया. इसके 3 साल बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने अवध को हड़प लिया और 1859 में ब्रिटिश प्रशासनिक अधिकारियों ने विवादित स्थल पर बाड़ लगा दी और हिंदुओं और मुसलमानों के लिए प्रार्थना के क्षेत्र को अलग-अलग कर दिया.
ये व्यवस्था लगभग 100 साल तक जारी रही और 1949 में इसका अंत हुआ जब बाबरी मस्जिद के मुख्य गुंबद से 'चमत्कारिक' रूप से राम लला (बाल राम) की प्रतिमा अवतरित हुई. इसके बाद हिंदुओं ने जोर देकर कहा कि ये मंदिर की वही पवित्र जगह है जहां संत बैठते थे, ये राम जन्मस्थान है जहां भगवान श्रीराम का जन्म हुआ था. हालांकि मुसलमानों ने जोरदार तरीके से इस दावे का खंडन किया.
इसके बाद त्वरित रूप से जमीन के दावे के लिए स्थानीय अदालत में सिविल सूट दाखिल किया गया और इसके प्रतिउत्तर में काउंटर क्लेम दाखिल हो गया. जिसके बाद जिला प्रशासन ने इसके जवाब में विवादित स्थल पर ताले जड़ दिए और यथास्थिति जारी रखने का आदेश दिया. इसी दौरान सन 1961 में "बलपूर्वक बाबरी मस्जिद पर कब्जा" के खिलाफ एक मुकदमा दायर किया गया जिसके बाद सुन्नी वक्फ बोर्ड और निर्मोही अखाड़ा मुख्य वादी बन गए. इसके बाद हिंदु महासभा ने खुद को इस मुकदमे में भगवान श्रीराम के स्थान पर अभियोजित किया
1986 में जिला अदालत ने विवादित स्थल पर ताले हटाने का आदेश दिया. इस आदेश से विश्व हिंदु परिषद (विहिप) के राम जन्मस्थान को स्वतंत्र कराने के आंदोलन को बल मिला. 1980 के आखिरी दौर में विहिप ने इसे राम जन्मभूमि आंदोलन का रूप दिया था जिसमें बीजेपी भी अपने नेता लालकृष्ण आडवाणी की अगुवाई में शामिल हो गई. इसके बाद सोमनाथ से अयोध्या यात्रा और शिलान्यास समारोह के बाद 6 दिसंबर 1992 को कारसेवकों के द्वारा विवादित ढांचे को ढहाने की बात इतिहास में दर्ज हो गई.
हालांकि '6 दिसंबर' से पहले विवादित ढांचे को ढहाने की बढ़ती संभावनाओं को सच होने से रोकने के लिए तत्कालीन सरकार द्वारा कई चरणों की समझौता वार्ताएं की गई. ये कोशिशें 6 दिसंबर के बाद भी जारी रहीं. जाहिर तौर पर अस्थाई रूप से प्लास्टिक शीट के राम मंदिर का विकल्प कारगर नहीं था, और ना ही बाबरी मस्जिद को दोबारा बनाना संभव था जैसा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने वादा किया था.
इससे भी अहम ये होता कि अयोध्या विवाद पर समझौता होने से काशी और मथुरा में लगातार गहराते जा रहे विवाद को सुलझाने के लिए भी रास्ता खुलता, लेकिन ये सब कोशिशें बेकार हो गईं. 1992 की गर्मियों में तब के बीजेपी अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने मुझे एक इंटरव्यू में बताया था कि "समझौते की जो भी कोशिशें हैं वो सिर्फ वियना कांग्रेस की तरह है जो सिर्फ नाच रही है और आगे नहीं बढ़ रही है."
बीजेपी ने 6 दिसंबर के बाद अपने सभी विकल्प खुले रखने का संकेत दिए. लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी राजनीतिक लेखनी के जरिए कहा कि 'बीजेपी सभी संभावनाएं खुली रखेगी जिसमें बातचीत और न्यायिक प्रक्रिया शामिल हैं. इनके जरिए अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को पूरा करने की कोशिश की जाएगी. पार्टी के 2014 घोषणापत्र में भी इस वादे को संशोधित करके "संविधान के दायरे में रहकर अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की सारी संभावनाएं पूरी की जाएंगी'. इसी वादे को अभी-अभी खत्म हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में के लिए भी बीजेपी के मेनिफेस्टो में जस का तस रखा गया. जैसा कि आप जानते हैं इन चुनाओं में बीजेपी ने 403 में से 325 सीटों पर विरोधियों पर जीत हासिल की.
कुछ देर के लिए साल 2010 में लौटते हैं जब विवादित स्थल पर पहला सिविल सूट दाखिल हुए 50 साल बीत चुके थे और वास्तविक राम मंदिर को ध्वस्त किए हुए करीब 500 साल हो चुके थे. इसी साल में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विवादित स्थल का एक तिहाई हिस्सा श्री राम को, एक तिहाई हिस्सा निर्मोही अखाड़े को और एक तिहाई हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को सौंपने का अपना फैसला सुनाया.
जैसे ही ये फैसला आया सभी ने इसको स्वीकार किया और इस फैसले का स्वागत किया. हालांकि उस दौरान इस तरह की घमण्ड भरी चर्चाएं भी चलने लगी थीं कि मुसलमानों को आपसी बातचीत के जरिए शांतिपूर्वक इस बात के लिए राजी किया जाए कि वो अपना संपत्ति का तीसरा हिस्सा छोड़ दें और इसके बदले में उन्हें उचित मुहावजा दे दिया जाए, जैसा कि आमतौर पर भारत में संपत्ति विवाद को सुलझाया जाता है. जिस तरह ये तरीका सालों से भारत में अदालतों और आपसी व्यवस्था और समझौते के जरिए किया जाता रहा है.
प्लॉट नंबर 583 पर दावा कर रहे दोनों ही वादी पक्ष जानते थे कि समझौते का कोई रास्ता नहीं है क्योंकि पहले ही वो इसकी कई कोशिशें कर चुके थे. तो इसलिए दोनों पक्षों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. जिसमें उन्होंनें अपने-अपने हिस्से को खारिज करते हुए पूरे हिस्से की मांग की. उनके मुताबिक फैसला होना चाहिए कि या तो ये राम मंदिर है या बाबरी मस्जिद. हिंदुओं के मुताबिक राम लला के जन्मस्थान पर 2 तिहाई हिस्सा लेना उन्हें बिलकुल स्वीकार्य नहीं था और ये उनकी आस्था के साथ न्याय नहीं करता था. वहीं मुसलमानों के लिए भी केवल एक तिहाई हिस्सा लेकर संतुष्ट हो जाना नामुमकिन है. सुन्नी वक्फ बोर्ड के लिए ये दोषी को छोड़ देने जैसा था.
इस पृष्ठभूमि को विस्तार से समझना जरूरी है कि क्यों अयोध्या विवाद को बातचीत, शांतिपूर्वक चर्चाओं और किसी दूसरे तरीके से सुलझाना लगभग नामुमकिन है. यहां तक कि अदालत द्वारा किए गए सैटलमेंट को भी लागू करना नामुमकिन नहीं तो मुश्किल तो जरूर होगा.
क्या सुप्रीम कोर्ट ने वो फैसला दिया जैसी उससे उम्मीद थी? कानून के आधार पर जमीन के स्वामित्व का फैसला दिया? इसकी बजाए सुप्रीम कोर्ट ने लगभग सात सालों की याचिका के बाद बीजेपी सांसद सुब्रमण्यम स्वामी की राम मंदिर मुकदमे की जल्द सुनवाई की मांग पर कहा कि यह एक संवेदनशील और भावनात्मक मामला है. कोर्ट ने कहा कि ‘संवेदनशील मसलों का आपसी सहमति से हल निकालना बेहतर है.’ सर्वोच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस जे एस खेहर की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि ऐसे धार्मिक मुद्दों को बातचीत से सुलझाया जा सकता है और उन्होंने सर्वसम्मति पर पहुंचने के लिए मध्यस्थता करने की पेशकश भी की. साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस विवाद का हल तलाश करने के लिए सभी संबंधित पक्षों को नये सिरे से प्रयास करने चाहिए.
सुब्रमण्यम स्वामी ने इस पर सधी हुई प्रतिक्रिया दी और मुसलमानों को सुझाव दिया कि वो सरयू पार मस्जिद का निर्माण कर सकते हैं. बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के जफरयाब जिलानी ने अदालत के बाहर निजी समझौते को खारिज किया और वो चाहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में मध्यस्थता करे. इस मामले में ज्यादा साफ तस्वीर 31 मार्च तक आ पाएगी. हालांकि ये तीसरे पक्ष की मध्यस्थता इस मामले को सुलझाने में कैसे मदद कर पाएगी
आज एक बार फिर अयोध्या मामले को सुलझाने के लिए आपसी बातचीत का रास्ता अपनाने का विचार बेहद बुरा ही है. निर्रथक चर्चाओं के बीच वही पुराने घुमावदार तथ्य रास्ते में आते रहेंगे. बार-बार इन्हीं बातों को दोहराना केंद्र ओर लखनऊ की बीजेपी सरकार के लिए राजनीतिक और रणनीतिक दोनों ही रूप से गलत होगा. हो सकता है कि ये एक निंदक का नजरिया हो लेकिन ये पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता है.
अगर पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर आज जीवित होते तो इस मौजूदा स्थिति को देखकर कहीं ना कहीं वो मुस्कुरा रहे होते. क्योंकि फिर से अयोध्या विवाद ऐसी यात्रा बनता जा रहा है जिसका कोई अंत नहीं है.
नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.
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