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Opinion: हमें पसंद हो या न हो मोहम्मद इकबाल हमारे अखंड भारत का हिस्सा, सिलेबस से हटाना साम्प्रदायिक सोच का नतीजा

यह तो इतिहास के साथ जो छेड़छाड़ है, वह किसी भी लेवल पर नहीं होनी चाहिए. वह चाहे इकबाल के साथ हो या किसी के साथ हो. इकबाल की जो पॉलिटिक्स है, उससे हम सहमत हों या नहीं, लेकिन इकबाल के बारे में पढ़ाना तो हमारे इतिहास का हिस्सा होना चाहिए. हम पढा़एं या नहीं, लेकिन इकबाल तो इतिहास का हिस्सा रहेंगे ही. ये सब बेमानी के लफड़े हैं, जिससे इतिहास में डिस्कंटीन्यूटी आती है.

इतिहास का हिस्सा हैं इकबाल, हटाना ठीक नहीं

इकबाल की अपनी एक भूमिका है, कम्युनल पॉलिटिक्स का. मुस्लिम लीग का जो कम्युनिल पॉलिटिक्स का मामला है, इकबाल उसेक हिस्सा हैं. इकबाल में बड़े विरोधाभास भी हैं. वह आदमी 1938 में मरा है, लेकिन 1936 में उसने एक नज्म लिखी कि हमने अपने पर बेड़ियां डाल लीं, क्योंकि हिंदू-मुसलमान एक होकर नहीं लड़े. तो, बहुत विरोधाभास है, उनकी राइटिंग में. वह सिर्फ मुस्लिम लीग की पॉलिटिक्स को सपोर्ट करते हैं, ऐसा नहीं था. वह एक पार्ट था. बिल्कुल था, उन्होंने सदारत की है, पूरे सेशन्स की, लेकिन बहुत सारे कंट्राडिक्शन्स थे, उनके करियर में. उसको भी समझाना चाहिए, नयी पीढ़ी को.

पढ़ाई वो केवल थोड़े होती है, जो हमें पसंद है. वह भी पढ़ाया जाता है, जो हमें पसंद नहीं. क्यों पसंद नहीं हैं इकबाल, वह बताइए. ऐसा तो नहीं होना चाहिए कि ब्लैंक रहे, नयी जेनरेशन को पता ही न हो कि इकबाल कौन थे? वह तो हमारे इतिहास का हिस्सा हैं न, अखंडित भारत का हिस्सा हैं. वह 1938 में मर गए, पाकिस्तान और भारत की आजादी से पहले ही. तो, वह बने तो रहेंगे ही. अब हमें तय करना चाहिए कि उन्हें कैसे पढ़ाना है. हमें तो बहुत सी चीजें पसंद नहीं हैं. इकबाल के बारे में अपनी किताब में मैंने लिखा है कि क्या हमारी असहमतियां हैं, कितने विरोधाभास हैं उनकी सोच में, उनका जो इस्लामिक राष्ट्रवाद है, वह कितना संकीर्ण है, कितना अव्यावहारिक है. उसे लागू कर ही नहीं सकते. 

इससे अकादमिक तौर पर कमजोर होगी नयी पीढ़ी

नयी पीढ़ी को हम कमजोर कर रहे हैं. अकादमिक तौर पर बहुत कमजोर नस्ल होगी, जिसे बहुत सारी चीजें पता ही नहीं होगी. इकबाल तो अब जीवित नहीं हैं. पाकिस्तान कितना भी कह ले, लेकिन इकबाल तो 1938 में दुनिया से चले गए. वह बस अपनी शेरो-शायरी, पॉलिटिक्स और नज्म छोड़ गए. उसको क्रिटिकली पढ़िए, उसमें कमियां निकालिए. सावरकर को पढ़िए न. पढ़कर पता चलेगा न कि क्या कमियां थीं, उस आदमी में.

आजकल जो हो रहा है, कि कुछ निकाल दिया, कुछ जोड़ दिया, उससे इतिहास तो नहीं बनता. इससे तो आप अपने नौजवानों का ही नुकसान कर रहे हैं, जो अलग तरह का इतिहास पढ़ेंगे, जिसमे कई तरह का डिसकनेक्ट होगा. बीच में कुछ लोग नहीं मिलेंगे, कुछ गायब हो जाएगा. इकबाल अकेले नहीं हैं, जो भी बदलाव हो रहा है. मुगलों को लेकर चीजें हो रही हैं. कुछ चीजें जोड़ी जा रही है, कुछ घटाई जा रही हैं. भई, इतिहास को आप हिंदू-मुस्लिम के दृष्टिकोण से नहीं देख सकते. आज की राजनीति जो है, उसको आप इतिहास में नहीं ले जा सकते. वो लोग पावर की लड़ाई लड़ते थे.

महाराणा प्रताप को छोड़कर सारे राजपूत राजा मुगलों के साथ थे, उनके मनसबदार थे. जसवंत सिंह हों, मानसिंह हो या जयसिंह हो, लंबी सूची है. जसवंत सिंह शिवाजी से लड़े और मानसिंह हल्दीघाटी में अकबर की तरफ से लड़े. तो, मिलीजुली सरकार थी. उसमें राजपूत भी थे, मुसलमान भी थे, मनसबदार थे. मुगलों को हटाएंगे तो महाराणा प्रताप की बहादुरी के किस्से कैसे सुनाओगे? 

यह बदलाव इसलिए हो रहे हैं कि इतिहास में कम रुचि है, आज में अधिक इंटरेस्ट है. आज की राजनीति को कैसे चमकाएं, यही सोचा जा रहा है. इतिहास का तो बस इस्तेमाल हो रहा है. नयी पीढ़ी को नुकसान तो पहुंचेगा ही. उनको बहुतेरी चीजें पता नहीं होंगी. अगर कोई इतिहास आप पढ़ाना चाहते हैं और आपको लगता है कि कुछ चीजें छूट गयीं, जैसे आहोम साम्राज्य के बारे में कहा जा रहा है, तो उसे पढ़ाइए.

हमारा इतिहास जो नॉर्थ सेंट्रिक रहा है, तो साउथ के बारे में पता नहीं रहता, तो वो सब चीजें जुड़नी चाहिए. बात तो ये है कि एक तरफ तो हम छात्रों का बोझ कम करने की बात करते हैं, इसलिए बहुतेरे चैप्टर हटाते हैं. फिर, आप जोड़ेंगे कैसे? ये विरोधाभास है. संतुलन नहीं है, तो पता नहीं चल रहा है कि क्या चाह रहे हैं? हम तो चाहते हैं कि दक्षिण के जो साम्राज्य हैं- चोल, चालुक्य, पांड्य- उनको भी पढ़ाया जाए. ऐसा नहीं है कि हमने नहीं पढ़ाया है. हमारी किताबों में भी है, लेकिन यह एक परसेप्सन है कि हमारी किताबों में नहीं है. अब, अराजक तरीके से हटाना और जोड़ना तो ठीक नहीं है.

सांप्रदायिक सोच से देश को नुकसान

इकबाल को हटाना तो सांप्रदायिक सोच का नतीजा ही है. अब जिस देश में फैज अहमद फैज पर विवाद हो सकता है, जिसका कम्युनल पॉलिटिक्स से कोई लेना-देना नहीं, जो प्रोग्रेसिव राइटिंग के लिए जाना जाता है, जो अपने ही देश में, पाकिस्तान में वर्षों जेल में रहा, सरकार की आलोचना की वजह से, लेकिन उसकी नज्मों, फिलॉसफी को समझते नहीं है और उस पर भी विवाद करते हैं.

इस तरह का पहले की किसी भी सरकार में नहीं था. काट-छांट तो होती रही है, लेकिन ये जो प्लान्ड तरीके से हो रहा है, ये जो विचारधारा के स्तर पर हो रहा है, वैसा नहीं होता था. पिछली सरकारें जो थीं, वो मिले-जुले लोग थे. खुद कांग्रेस में कई सांप्रदायिक लोग थे, सभी प्रोग्रेसिव नहीं थे. तो, वो कॉकटेल की तरह रहता था.

यह पहली सरकार है जो एक वैचारिक सोच से बनी है. पहले तो सब तरह के लोग सरकार में थे. लेफ्ट, राइट सेंटर सभी तरह के, तो बैलेंस हो जाता था. सरकार को सुझाव के तौर पर यही कहूंगा कि अपनी सोच को खुला रखे और संकीर्ण विचारधारा सोच में नहीं आनी चाहिए, जब आप इतिहास को पढ़ते हैं.

(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है) 

 

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