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कोरोना के बाद आर्थिक मंदी का डर

कोरोना की दूसरी लहर की वजह से आम लोगों के बीच पसरे हुए डर, दहशत और असमंजस्ता भारत में आने वाले दिनों की अर्थव्यवस्था की तरफ एक नकारात्मकता भरा इशारा करती दिख रही है.

1- महंगाई: पिछली बार जब कोरोना वायरस भारत मे फैला था तब लोगों के पास उनकी बचतें थी, वो लॉकडाउन के समय अपनी उन्ही बचतों को उपयोग में ले कर आए जो उन्होंने कई समय से बचाई थी. लेकिन कोरोना के दूसरे दौर में ना ही उनके पास अब बचत है और ना ही पहले की तरह कमाई, उस पर पेट्रोल, डीजल, खाने का तेल आदि ने आम नागरिकों का तेल निकाल दिया है, तो अंदाजा ये लगाया जा रहा है कि जब तक हम कोरोना के इस दूसरे दौर से निकलेंगे तब तक भारत में एक आर्थिक मंदी का दौर शुरू हो चुका होगा. इस आर्थिक मंदी का असर सिर्फ अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर में ही नहीं उस सर्विस क्लास सेक्टर पर भी पड़ेगा जिसका भारत की जीडीपी में करीब 55-65% का हिस्सा है.

2- चिकित्सा सुविधा: भारत मे बढ़ते कोरोना के केस भी इसमें अहम वजह बन सकते हैं. जिस तरह से सरकार की वैक्सीनेशन पॉलिसी रही है उसे देखा जाए तो देश में वैक्सीन का संकट और कोरोना के मरीजों की तादात दोनों के बढ़ने के आसार कई हद तक नज़र आ रहे हैं. साथ ही चुनावी रैलियां, धार्मिक मेले, वैक्सीन की जानकारी का अभाव, कोविड प्रोटोकॉल का पालन ना करना और देश की लचर हेल्थ सुविधा इस महामारी से लड़ने में अवरोध पैदा करते हैं.

कहा जाता है कि वही देश तरकी करता है जिसके पास बेहतर चिकित्सा सुविधा और ज्ञान होता है लेकिन आज के हालात में भारत देश इन सब चीज़ों से कही दूर है और उस पर सरकारों का बेरुखा रवैया एक पहले से बनी खाई को और गहरा करता जा रहा है.

3- आर्थिक अस्थिरता: गिरती मुद्रास्फीति, घटती बचत दरें, महंगी होती ब्याज़ दरें, आयात पर कस्टम ड्यूटी का बढ़ना, सरकार के कर्ज़ लेने में इज़ाफ़ा, गिरता रुपए का मूल्य और हाल ही में आया थोक मूल्य सूचकांक जो बढ़ कर करीब 7.39% हो गया है आदि सब मिला कर सिर्फ एक ही ओर इशारा कर रहे हैं जिसका नाम है आर्थिक मंदी. देश जहां पहले से ही आर्थिक परेशानियों से जूझ रहा था वहीं कोरोना महामारी और इससे लड़ने में सरकार की नाकामयाबी ने इस समस्या को और गहरा दिया है.

हालांकि इस अस्थिरता से निपटने के लिए पिछले कुछ दिनों में आरबीआई ने भी कई कदम उठाए हैं मगर उनका भी मानना है कि ये सभी कदम "चाहे वो मार्किट से 1 लाख करोड़ रुपए के सरकारी बॉन्ड्स की खरीद हो, अन्तराष्ट्रीय बाजार में 600 मिलियन डॉलर के फॉरेन बचत डालना हो या देश में अतरिक्त रुपए की छपाई" सिर्फ गिरती अर्थव्यवस्था को धीरे-धीरे गिरते देखने भर से ज्यादा कुछ भी नहीं है.

4- बेरोज़गारी: भारत की सरकारें आज भले ही स्वास्थ्य के नाम पर, रोज़गार के नाम पर और विभिन्न सामाजिक योजनाओं के नाम पर कितनी भी अपनी पीठ थपथपा लें लेकिन ज़मीनी हकीकत कुछ और ही है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी(CMIE) (भारत की एक प्रमुख व्यावसायिक सूचना कंपनी है) के सीईओ महेश व्यास के अनुसार, यदि आप आज की मुद्रास्फीति को देखें तो भारत की 97% से अधिक आबादी एक साल पहले के मुकाबले आज आय के मामले में गरीब हो गई है.

CMIE की ही एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की बेरोजगारी दर मई महीने तक दोहरे अंकों में चली गई है जो देश के लिए असामान्य स्थिति है, इससे पहले अप्रैल और मई 2020 में कड़े राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के चलते बेरोजगारी की दर ने दोहरे अंकों को छुआ था. रिपोर्ट बताती है कि जनवरी 2021 से लगातार रोजगार की दर गिर रही है अकेले जनवरी से अप्रैल 2021 के बीच ही 1 करोड़ रोज़गार की गिरावट देखी गई है.

ये बात सिर्फ भारत के ही आर्थिक मुद्दों से जुड़े संस्थान ही नहीं कहते बार्कलेज बैंक की माने तो भारत में बढ़ती बेरोज़गारी की दर इस तरह से समझी जा सकती है कि अकेले मई महीने में भारतीय अर्थव्यवस्था को हर हफ्ते करीब 8 अरब डॉलर यानी करीब 60,000 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है, यह कुल घाटा 117 अरब डॉलर यानी 8.5 लाख करोड़ रुपये या सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 3.75% है.

वहीं कुछ अन्तराष्ट्रीय संस्थाएं भी है जो भारत की अर्थव्यवस्था और सरकार द्वारा की जा रही सामाजिक योजनाओं का मूल्यांकन करती है जैसे संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा दी जाने वाली एक रिपोर्ट "मानव विकास सूचकांक" जो कि एक राष्ट्र के स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर का माप करती है के अनुसार साल 2020 के मानव विकास सूचकांक में भारत 189 देशों में एक स्थान गिरकर 131 पर आ गया है.

यूएनडीपी के प्रतिनिधि शोको नोडा के अनुसार भारत की रैंकिंग में गिरावट का मतलब यह नहीं है कि भारत में विकास कार्यक्रम नहीं किये जा रहे है लेकिन अन्य देशों ने भारत की तुलना में ज्यादा बेहतर तरीके से अपने देशों में विकास कार्यों को अंजाम दिया है. वहीं एक और अन्तराष्ट्रीय संस्था विश्व बैंक के विकास अर्थशास्त्र समूह द्वारा प्रकाशित "मानव पूंजी सूचकांक (एचसीएल) 2020" ने भारत को 174 देशों में 116वां स्थान दिया है. सूचकांक इंगित करता है कि भारत में औपचारिक और अनौपचारिक बाजार का पतन हो रहा है, जिसके कारण रोज़गार मिलने में बड़ी गिरावट आई है या जिनके पास रोज़गार है उनकी कुल आय में 11% से 12% की कमी हो रही है. रिपोर्ट के अनुसार इन सब का गरीबों और महिलाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना है कुल मिला के भारत में कोविड -19 का "गंभीर प्रभाव" पड़ रहा है.

हालिया विभिन्न रिपोर्ट को देखते हुए अर्थशास्त्री कहते है कि भारत सरकार को अर्थव्यवस्था से जोड़े रखने के लिए भविष्य में कई ठोस कदम उठाने होंगे जिसमे की वो विभिन्न सरकारी संस्थानों को बेचने की भी बात की गई है जो काफी समय से नुकसान में चल रहे है और बंद होने की कगार पर है. साथ ही सरकार को तेल पर टैक्स घटाने की सिफ़ारिश भी की गई है. भारत का एक बड़ा तबका सर्विस क्लास(जिसमें हम असंगठित क्षेत्र को भी अगर जोड़ लें) से जुड़ा है जो कोरोना महामारी के दौरान पहले से ही आर्थिक अस्थिरता से जूझ रहा है और अगर देश मे आर्थिक मंदी के हालात बनते है तो इसका सीधा और गंभीर असर इस ही तबके पर पड़ेगा.

सरकारों को चाहिए कि वो अपने सर्विस क्लास के लिए कुछ आर्थिक उदारता वाली नई योजनाएं ले कर आएं, जिससे कि आने वाली मंदी से निपटा जा सके, अगर सरकारें इस ही तरह से इस परेशानी को नज़र अंदाज़ करती रहेंगी तो आने वाला वक़्त भयावह हो सकता है.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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