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चुनाव नतीजे: क्या पीएम मोदी का जादू फीका पड़ रहा है?

वर्ष 2014 के आम चुनावों में मिली ऐतिहासिक जीत के बाद दिसंबर 2017 तक पीएम नरेंद्र मोदी का जादू कुछ ऐसा सर चढ़ कर बोल रहा था कि उनके नाम पर बीजेपी ने देश भर में स्थानीय निकायों से लेकर विधानसभा चुनावों तक में विपक्षियों का सूपड़ा साफ कर दिया. फरवरी 2017 में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, मार्च में मणिपुर, नवंबर में हिमाचल प्रदेश और दिसंबर में गुजरात विधानसभा चुनावों में बीजेपी की एक के बाद एक सरकारें बनती चली गईं. बिहार, दिल्ली और पंजाब अपवाद रहे, जिनमें से अब बिहार बीजेपी की सत्ता का अंग बन चुका है. लेकिन उप-चुनावों में बीजेपी को जो हार के करारे झटके लगने शुरू हुए थे, वे थमने का नाम ही नहीं ले रहे हैं. हिंदी पट्टी के तीन प्रमुख राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सत्ता बीजेपी के हाथ से सरक गई है. ऐसे में यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि क्या पीएम मोदी का जादू फीका पड़ रहा है?

अगर ऐसा है तो लगभग सिर पर आ बैठे 2019 के आम चुनाव के मद्देनजर पीएम मोदी और बीजेपी के लिए यकीनन यह खतरे की घंटी है. यह इसलिए भी कि तेलंगाना और मिजोरम समेत जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए, उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जहां बीजेपी और पीएम नरेंद्र मोदी को खुश करने वाला परिणाम देखने में आया हो. वर्ष 2014 के बाद छोटे-बड़े जो भी चुनाव बीजेपी जीती है, उन सबका श्रेय प्रधानमंत्री को दिया गया. लेकिन, इधर देखने में आया है कि चुनाव के महीनों पहले से पीएम मोदी के कई दौरों के बावजूद बीजेपी को छत्तीसगढ़ में सबसे बुरी हार का सामना करना पड़ा. चुनाव प्रचार के आखिरी दौर में उन्होंने राजस्थान में दस चुनावी सभाएं कीं, लेकिन वहां वे बीजेपी की सरकार बचाने में कामयाब नहीं हो सके. मध्य प्रदेश में भी उनकी कुल मिलाकर दस चुनावी सभाएं हुईं और नतीजा सबके सामने है. दरअसल, नरेंद्र मोदी के पीएम बनने के बाद पहली बार कोई एक दिन (11 दिसंबर 2018) बीजेपी के लिए इतना अधिक हताशा भरा साबित हुआ है. ऐसे में पीएम मोदी का जादू फीका पड़ जाने की बात उठना स्वाभाविक है. पीएम मोदी के जादू का यह उतार-चढ़ाव तब और अब की अवधारणाओं का विश्लेषण करके काफी हद तक मापा जा सकता है.

BJP का विजय रथ रोकना कांग्रेस के बूते की बात नहीं तब चौक-चौबारों पर कहा जाता था कि बीजेपी का विजय रथ रोकना कांग्रेस के बूते की बात नहीं है, क्योंकि निर्भीक निर्णय लेने वाले साहसी नेता नरेंद्र मोदी के सामने अपरिपक्व राहुल गांधी का कद काफी बौना है. अब पान की गुमटियों तक में कहा जा रहा है कि चौबीसों घंटे चुनावी मोड और मूड में रहने वाले पीएम मोदी के मुकाबले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कहीं ज्यादा गंभीर और वाणी पर संयम रखने वाले राजनेता बन गए हैं. तब पीएम मोदी के नोटबंदी और जीएसटी जैसे निर्णयों को आर्थिक सुधार की दिशा में क्रांतिकारी उपाय समझा जा रहा था, अब इन्हें अर्थव्यवस्था को पंगु करने वाले आत्मघाती कदम करार दिया जा रहा है. तब 'सबका साथ सबका विकास' का नारा लोगों के मन भाया था, अब लोग इसके पीछे साम्प्रदायिक एजेंडा छिपा देख ले रहे हैं. तब मोदी जी को देश के लिए 17-18 घंटे काम करने वाला पीएम माना जाता था, अब लोगों के जेहन में उनकी भांति-भांति की पोशाक बदलने और विदेश यात्राओं की छवि घर कर गई है.

इतना ही नहीं, तब पाकिस्तान और चीन को सबक सिखाने की जोशपूर्ण बातें सुनकर लोग तालियां बजाते थे, अब उनकी उसी ललकार को वे जुमला समझ कर उदास होने लगे हैं. तब युवाओं को 2.5 करोड़ नौकरियां मिलने का भरोसा था, अब वह वादा पकौड़ा तलने के मजाक में कैद होकर रह गया है. तब विदेशी दौरों के जरिए भारत का विश्व में डंका बजता दिखाया जा रहा था, अब विदेशी निवेश न आने पर उसकी कोई चर्चा ही नहीं करता. तब किसानों की आय दोगुनी करने की बातें फिजा में तैरती थीं, अब उनके आंदोलन और आत्महत्याएं सुर्खियां बनती हैं. तब महिलाओं को अपनी सुरक्षा की आस जगी थी, अब लैंगिक अत्याचार बढ़ता देख वे और निराश हो गई हैं. तब सर्जिकल स्ट्राइक का हल्ला था, अब सीमा पर सैनिकों का बलिदान भी बहस का मुद्दा नहीं रह गया. तब मेक इन इंडिया जैसी योजनाओं का समां बांधा गया था, अब उनका कोई नामलेवा नहीं है.

पीएम मोदी ने अच्छे दिन के जो सपने दिखाए, उनमें खरोंच लग गई तब और अब में गिनाने को बहुत कुछ है, लेकिन वास्तविकता यही है कि यूपीए के ढीलेपन और भ्रष्टाचार से तंग देश की जनता को पीएम मोदी ने न्यूनतम सरकार अधिकतम शासन के फार्मूले पर चलकर अच्छे दिन लाने के जो सपने दिखाए थे, उनमें खरोंच लग गई है. आज कोई आकलन नहीं बता रहा है कि देश के हर नागरिक के सिर पर कितना विदेशी कर्ज है और मानव-सूचकांक में हम कितने फिसड्डी हो चुके हैं. देश की गरीब जनता महानायक के होते हुए अपना धन लूट कर भागते अमीरों का कुछ न बिगाड़ पाने की मजबूरी के चलते हथेलियां मल रही है और दांत पीस रही है. यह कुछ-कुछ वैसा ही अनुभव है, जैसा कि किसी हिट मसाला हिंदी फिल्म का नाइट शो देख कर लौट रहे दर्शकों को हुआ करता है. सिनेमाघर के अंदर हीरो की चौतरफा मारधाड़ देखकर उपजा जोश और आक्रोश अंधेरी गलियों में विलीन होने लगता है. वहां उनका जमीनी हकीकत से सामना हो जाता है और वे फिर से निराशा के सागर में डूबने-उतराने लगते हैं. ऐसे में किसी भी महज संवाद अदायगी करते महानायक का जादू उतरना लाजिमी है.

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