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कोविड-19 के चलते वर्कफोर्स का पलायन: बड़े बे-आबरू होकर तिरे कूचे से हम निकले!

इनमें से अधिकतर अनपढ़ या बहुत कम पढ़े लिखे हैं. सरकारी नौकरी में नहीं हैं, दिहाड़ी मजदूर हैं. उनके बीच कोरोना वायरस को लेकर जागरूकता नहीं, भय है.

मिर्ज़ा ग़ालिब कह गए हैं-

‘निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन

बड़े बे-आबरू होकर तिरे कूचे से हम निकले.’

मौजूदा हालात के मद्देनजर इस शेर की विषयवस्तु का विस्तार करें तो कोरोना वायरस के चौतरफा असर से भारत के कार्यबल, खास तौर पर मजदूर वर्ग का अपने-अपने ठिकानों और कार्यस्थलों से बे-आबरू होकर निकलना हजरत आदम और किसी भी शायर (प्रेमी) से कहीं ज्यादा अपमानजनक है.

मजदूरों के ये बदहाल काफिले सिर्फ दिल्ली-एनसीआर से ही नहीं, महाराष्ट्र के मुंबई, पूना, उत्तर प्रदेश के कानपुर, लखनऊ, राजस्थान के जोधपुर, उदयपुर, मध्य प्रदेश के इंदौर, जबलपुर, गुजरात के सूरत, अंकलेश्वर, कर्नाटक के बंगलौर आदि अनेक जगहों से अपने-अपने गांवों की ओर चले हैं. सरकार द्वारा अचानक लॉकडाउन घोषित कर दिए जाने से ये बेसहारा लोग जहां के तहां फंस गए- फैक्ट्रियों में, निर्माण स्थलों में, फुटपाथों पर, झोपड़पट्टियों में, किराए के दड़बों में, फ्लाईओवर के नीचे, स्टेशन पर, बस डेपो में. इन मजदूरों में सिर्फ पुरुष नहीं हैं, गर्भवती महिलाएं, बच्चे-बच्चियां, विकलांग, भूखे नौजवान और बीमार बुजुर्ग भी शामिल हैं. इनमें विद्यार्थी, अर्द्धकुशल कारीगर, ड्राईवर, मैकेनिक, प्लंबर, इलेक्ट्रीशियन, राजगीर, रिक्शाचालक, धोबी, मोची, माली, घरों, मंदिरों, कार्यालयों और कल-कारखानों में झाड़ू-पोंछा लगाने वाली बाइयां और अमीरों के बच्चों को स्कूल लाने-ले जाने वाली धाय माताएं भी शामिल हैं.

इनमें से अधिकतर अनपढ़ या बहुत कम पढ़े लिखे हैं. सरकारी नौकरी में नहीं हैं, दिहाड़ी मजदूर हैं. उनके बीच कोरोना वायरस को लेकर जागरूकता नहीं, भय है. लेकिन उससे बड़ा भय भूखों मर जाने का है. भय है कि अगर लॉकडाउन महीना दो महीना तीन महीना खिंच गया तो परदेस में कैसे रह पायेंगे! इसीलिए उन्होंने बेहद कठिन फैसला लिया, सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर अपने गांव-घर पहुंचने का, जो कोई स्वर्ग नहीं है. लेकिन गांव उन्हें अपनी गोद में छिपा लेने का भरोसा दिलाता है. यही भरोसा अगर उन्हें सरकार पर, अपने मालिकों पर होता, तो क्या वे ऐसा दुष्कर कदम उठाते? दरअसल मुसीबत के वक्त शहर वालों ने उन्हें इस्तेमाल करके कूड़ेदान में फेंक दिया है.

कोविड-19 के चलते वर्कफोर्स का पलायन: बड़े बे-आबरू होकर तिरे कूचे से हम निकले!

संजय कुंदन की कविता मजदूरों के इन कफिलों की दारुण अवस्था का मर्मांतक बयान है-

‘जा रहे हम

जैसे आए थे वैसे ही जा रहे हम

यही दो-चार पोटलियां साथ थीं तब भी

आज भी हैं

और यह देह साथ है

लेकिन अब आत्मा पर खरोंचें कितनी बढ़ गई हैं

कौन देखता है?

कोई रोकता तो रुक भी जाते

बस दिखलाता आंख में थोड़ा पानी

इतना ही कहता- यह शहर तुम्हारा भी तो है

उन्होंने देखा भी नहीं पलटकर

जिनके घरों की दीवारें हमने चमकाईं.... हम जा रहे हैं

हो सकता है कुछ देर बाद हमारे पैर लड़खड़ा जाएं

हम गिर जाएं खून की उल्टियां करते हुए... जा रहे हम

यह सोचकर कि हमारा एक घर था कभी

अब वह न भी हो

तब भी उसी दिशा में जा रहे हम

कुछ तो कहीं बचा होगा उस ओर

जो अपना जैसा लगेगा.’

इन हालात में भी सत्ता समर्थक लोगों और प्लेटफॉर्म सिंड्रोम से ग्रस्त भारतीय मध्य-वर्ग द्वारा अपनी बालकनी और ड्राइंग रूम में बैठ कर दर-दर भटक रहे मजदूरों की खिल्ली उड़ाना गरीबों के घाव पर नमक छिड़कने जैसा है. इन बेहाल-परेशान लोगों के जख्मों पर मरहम लगाने के बजाय बीजेपी के वरिष्ठ नेता बलबीर पुंज ने दिल्ली-एनसीआर छोड़कर जा रहे लोगों को लेकर अपने ट्वीट में लिखा है, “ये लोग अपनी इन ‘छुट्टियों’ का इस्तेमाल अपने परिवारों से मिलने या घर के छिटपुट काम निबटाने के लिए करने जा रहे हैं.”

इसे एक किस्म का परपीड़न सुख कहा जा सकता है. वैसे भी 'कल्याणकारी राज्य' की अवधारणा से चिढ़ने वाले लोग ‘मत्स्य न्याय’ के आकांक्षी होते हैं. पलायन करते मजदूर इनकी नजर में छोटी मछलियां हैं. ये लोग समझ नहीं रहे हैं कि जब लॉकडाउन खत्म होगा तो घर में झाड़ू-पोंछा लगाने के लिए भी इन्हीं मजदूरों के पांव इनको पकड़ने पड़ेंगे. जब कच्चा माल, वर्किंग कैपिटल, मशीनों की ओवरहॉलिंग के अभाव में मझोले और छोटे उद्योग बंद हो जाएंगे, तब तबाह हो चुकी अर्थव्यवस्था को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए इन्हीं श्रमिकों को गांव से लौटने के लिए मनाना पड़ेगा.

माना कि हालात नाजुक और भयावह हैं लेकिन यह सुविधाभोगियों और सत्तानसीनों की किस मानसिकता का परिचायक है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा लॉकडाउन के ऐलान से पहले राजस्थान, महाराष्ट्र और पंजाब अपने-अपने यहां कर्फ्यू लगा चुके थे. केन्द्र ने रेलवे और हवाई सेवा बंद करने जैसे कदम उठा लिए थे. अन्य राज्य भी जरूरत के मुताबिक सख्त से सख्त कदम उठा ही रहे थे. इसके बावजूद देशबंदी का लोगों ने यह सोच कर सहयोग और स्वागत किया कि केंद्र सरकार ने अगर राज्यों से सारे संचालन-सूत्र अपने हाथ में ले लिए हैं, तो समाज के हर तबके की भावी मुश्किलों का समाधान भी उसके पास होगा ही. इससे उपजने जा रही हर परिस्थिति का अंदाजा और आकलन भी उसने किया होगा.

कोविड-19 के चलते वर्कफोर्स का पलायन: बड़े बे-आबरू होकर तिरे कूचे से हम निकले! File Photo

लेकिन अब जबकि भारत विभाजन के वक्त हुए सामूहिक पलायन की तरह के दृश्य राजमार्गों पर आम हो गए हैं, एक तरह से लॉकडाउन फेल हो चुका है, तो ऐसे में सवाल उठता है कि क्या मोदी सरकार ने मेहनतकश वर्ग और करोड़ों बेबस व  बेसहारा लोगों के बारे में कुछ नहीं सोचा था? क्या उन्होंने अचानक एक रात 8 बजे कंपलीट लॉकडाउन की घोषणा कर देने से पहले अपने मंत्रिमंडल से संभावित जटिलताओं को लेकर कोई चर्चा नहीं की? इस राष्ट्रीय संकट की घड़ी में कोई सर्वदलीय सभा क्यों नहीं बुलाई गई?

इसके उलट पलायन करते मजदूरों की ओर ध्यान खींचने पर सरकार समर्थक लोग कुछ इस तरह के प्रश्नों की झड़ी लगा देते हैं- मोदी ने लॉकडाउन करके क्या गलत किया? देश को बचाने के लिए ठोस निर्णय लेने होते हैं, क्या आप और इंतजार कराना चाहते थे? बीमारी की गंभीरता पहले कुछ दिनों में समझ नहीं आती. ऐसे में क्या उपाय था? मोदी जी ने ट्वीट करके लोगों से मार्मिक अपील की थी कि यात्रा न करें, गांवों की ओर न लौटें. भारत के लोग ही समझदार नहीं है, तो इसमें मोदी जी की क्या गलती है?

ये सवाल बिल्कुल वाजिब हैं और लॉकडाउन भी उनका निर्णय भी एकदम सही था. लेकिन क्या जनता को मालूम था कि मोदी जी रात 8 बजे लॉकडाउन करने वाले हैं और क्या प्रधानमंत्री जी को यह आभास नहीं था कि अचानक लॉकडाउन के बाद कैसी भयावह स्थिति बन सकती है? जनवरी के आखिर में केरल में पहला केस मिला था, मार्च के पहले सप्ताह से देश में और भी मामले सामने आना शुरू हो गए थे. लेकिन प्रश्नकर्ता और सरकार समर्थक कृपया गौर फरमाएं कि इस दौरान वायरस से निबटने की तैयारियों के बजाए मोदी सरकार किस तरह के धतकरमों में व्यस्त थी, उसकी प्राथमिकताएं क्या थीं?

दुनिया भर में कोविड-19 पैर पसार रहा था और भारत में लिट्टी-चोखा खाने वाली फोटो खिंचाने में कौन व्यस्त था? केंद्रीय गृह-मंत्री अमित शाह समेत अन्य बीजेपी नेता शाहीनबाग को लेकर कैसे-कैसे भड़काऊ बयान दे रहे थे? भारत में कोरोना की दस्तक न सुन कर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप का मजमा कौन जमा रहा था? एमपी की सरकार को गिराने का गेम कैसे खेला गया? कोरोना टेस्ट किट बनाने वाली निजी एजेंसियों ने दो महीने पहले से किट पर काम शुरू कर दिया था. उन्हें मालूम था कि देश में गंभीर परिस्थितियां बनने वाली हैं. फिर क्या सरकार को इसकी जरा भी भनक नहीं थी? मोदी जी देश की नब्ज समझते हैं. उन्हें अंदाजा होना चाहिए था कि जब काम बंद हो जाएगा तो मजदूर क्या खाएगा, क्या करेगा, कहां जाएगा.

फिलहाल आशंका इस बात की है कि इतने बड़े स्तर पर पलायन कर रही भीड़ में अगर चंद लोग भी कोविड-19 वायरस से संक्रमित पाए गए तो वे इस महामारी को गांव-गांव में फैला देने वाले कैरियर साबित हो सकते हैं. फिर तो सारा दोष इनके मत्थे मढ़ना सबके लिए बड़ा आसान हो जाएगा. ये मजदूर मुख्यतः उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान के हैं, जहां स्वास्थ्य सेवाओं और कोरोना से निबटने का सामर्थ्य लगभग शून्य है.

ऐसे में उन्हें खाना खिलाने और बसों में भर कर उनके गांव पहुंचा देने मात्र से काम नहीं चलेगा, बल्कि केंद्र को इंटिग्रेटेड डिजीज सर्विलांस प्रोग्राम (आईडीएसपी) यानी इस महामारी के निगरानी तंत्र को इन राज्यों में पहले से और भी ज्यादा मुस्तैद करना होगा तथा संबंधित राज्य सरकारों को रैपिड रेस्पॉन्स टीमें बनाकर इनके सफर के दौरान और गंतव्य स्थल पर इनके परीक्षण की चाक-चौबंद व्यवस्था करनी होगी. जरूरत पड़े तो उन्हें क्वॉरंटीन और आइसोलेट भी करना पड़ेगा. राज्य प्रशासन को नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल (एनसीडीसी) के साथ मिलकर इस अप्रत्याशित पलायन के कुपरिणामों से बचने की पुलिसिंग की अभूतपूर्व रणनीति बनानी होगी. वरना सुना है कि इन मजदूरों को गांवों में न घुसने देने के लिए कई वीर लट्ठ को तेल पिलाकर पहले ही बैठ गए हैं!

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उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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