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BLOG: क्षेत्रीय दलों के सामने घुटने टेक रहे हैं राष्ट्रीय दल

भारतीय राजनीति में इलाकाई क्षत्रपों का उभार कोई नई घटना नहीं है. लेकिन 2019 के आम चुनाव से पहले यहां तक देखने को मिल रहा है कि भारत के राष्ट्रीय दल, क्षेत्रीय दलों के आगे तरह-तरह के आसन कर रहे हैं. उत्तर भारत हो या दक्षिण, घुटने टेकने का यह फिनॉमिना जोर पकड़ रहा है. उत्तर प्रदेश में तो एसपी-बीएसपी ने कांग्रेस को अपने गठबंधन में शामिल करने लायक भी नहीं समझा. बिहार में जनता दल (यूनाइटेड) और लोक जनशक्ति पार्टी के साथ गठबंधन की मजबूरी के चलते बीजेपी चुनाव लड़ने से पहले ही पांच सीटों का घाटा उठा बैठी.

साल 2014 के आम चुनाव में बीजेपी ने बिहार की 40 में से 30 सीटों पर अकेले दम पर लड़ कर 22 सीटें जीती थीं. जबकि इस बार हुए गठबंधन में लड़ने के लिए उसके हिस्से में मात्र 17 सीटें ही आई हैं. मोदी लहर की पस्ती और नीतीश सरकार के खिलाफ संभावित एंटीइनकंबेंसी के चलते इस बात की कोई गारंटी भी नहीं है कि इन 17 में से कितनी सीटें वह बचा पाएगी. स्पष्ट है कि बीजेपी जैसे शीर्ष राजनैतिक दल को बिहार में नुकसान ही नुकसान है. यह नुकसान तब और भीषण लगने लगता है, जब हम यह देखते हैं कि जेडीयू पिछले आम चुनाव में 38 सीटों पर लड़ कर सिर्फ 2 सीटों पर जीत पाई थी और 23 सीटों पर उसकी जमानत जब्त हो गई थी.

अपनी जीत और जेडीयू की हार के प्रतिशत में जमीन-आसमान का फर्क होने के बावजूद बिहार में एनडीए की सीट संख्या बढ़ने की प्रत्याशा में बीजेपी को नक्कू बनना पड़ा. सूबे में अपनी जमीन खो चुकी कांग्रेस का राष्ट्रीय जनता दल के सामने भरतनाट्यम करना समझ में आता है. लेकिन उसने आरजेडी के साथ-साथ रालोसपा अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा, सन ऑफ मल्लाह के नाम से मशहूर विकासशील इंसान पार्टी प्रमुख मुकेश सहनी और हम पार्टी के मुखिया एवं पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी से महागठबंधन करके एनडीए के लिए कठिन चुनौती पेश कर दी है. ऐसे में बीजेपी के पास सहयोगियों से बराबरी का सौदा करने के अलावा कोई चारा ही नहीं बचा था. इस सौदेबाजी में बीजेपी ने इस बात की परवाह भी नहीं की कि जिन मौजूदा पांच सांसदों के टिकट कटेंगे, वे चुनाव के दौरान कैसा बवाल काटेंगे!

क्षेत्रीय दलों की बढ़ती दबंगई का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पंजाब में शिरोमणि अकाली दल ने भी आंखें तरेर दीं. बीजेपी के सबसे विश्वस्त सहयोगी अकाली दल ने पिछले महीने ही धमकी दी थी कि भगवा पार्टी ने अगर अकाल तख्त और गुरुद्वारा मामले में दखलंदाजी बंद नहीं की, तो एनडीए गठबंधन उसके लिए कोई मायने नहीं रखेगा और वह केंद्र सरकार की ईंट से ईंट बजा देगा! हालांकि इस बार बीजेपी पंजाब में पुराना फार्मूला (10‌+3) छोड़कर ज्यादा सीटों पर लड़ना चाहती थी. लेकिन अकाली दल की नाराजगी देखते हुए उसे तीन सीटों पर ही सीमित रहना पड़ा.

महाराष्ट्र में हमने देखा ही है कि पूरे पांच साल शिवसेना की दुलत्तियां खाने के बावजूद किस तरह बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को उद्धव ठाकरे की जिद के सामने झुकना पड़ा. राज्य की 48 लोकसभा सीटों में से बीजेपी 25 और शिवसेना 23 पर चुनाव लड़ने जा रही है. विधानसभा सीटों के लिए फिफ्टी-फिफ्टी का बंटवारा हुआ है. जबकि पिछले चुनावी नतीजों से स्पष्ट था कि विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने पर शिवसेना बीजेपी से मात्र आधी सीटें (बीजेपी 122, शिवसेना 63) ही जीत पाईं थी. बीजेपी ने जिस तरह से शिवसेना की शर्तें मानी हैं, उससे तो यही लगता है कि उसे अब क्षेत्रीय दलों का छोटा भाई बनने से भी कोई गुरेज नहीं है.

राष्ट्रीय दलों का असली बौनापन देखना हो, तो तमिलनाडु की स्थिति पर नजर डालनी चाहिए. वहां एआईएडीएमके ने बीजेपी को राज्य की 39 में से महज 5 सीटें दी हैं, और डीएमके बमुश्किल कांग्रेस को 9 सीटें देने पर राजी हुई. इस दयनीय स्थिति के बावजूद बीजेपी नेतृत्व एआईएडीएमके के साथ गठबंधन हो जाने को अपनी उपलब्धि मान रहा है और इसी संभावना को लेकर बेहद खुश है कि जयललिता का बनाया वोट बैंक ठोस बना रहेगा, जिससे तमिलनाडु में एनडीए को यूपीए से अधिक सीटें मिल जाएंगी. दूसरी तरफ कांग्रेस इस बात को लेकर इतरा रही है कि एंटीइनकंबेंसी राज्य और केंद्र सरकार के खिलाफ होगी, जिसका लाभ इस बार यकीनन डीएमके को मिलेगा और साथ में उसकी नैया भी पार लग जाएगी.

उत्तर-पूर्वी राज्यों में बीजेपी को आगामी लोकसभा चुनाव में पिछली बार के मुकाबले काफी बेहतर प्रदर्शन करने की उम्मीद थी. लेकिन वहां केंद्र सरकार के नागरिकता संशोधन विधेयक-2016 को लेकर उसके सहयोगी दलों में भारी गुस्सा फैल गया है. ऐसे में बीजेपी आईपीएफटी, एनडीपीपी, एनपीपी, यूडीपी जैसे छोटे-छोटे 11 दलों वाले नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस को अपने पाले में बनाए रखने के लिए शीर्षासन करके दिखाया और राज्यसभा में बिल ही नहीं पेश किया.

स्पष्ट है कि अगर बीजेपी और कांग्रेस की सीधी टक्कर वाले गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड जैसे राज्यों को छोड़ दें, तो शेष राज्यों में ये दोनों राष्ट्रीय दल क्षेत्रीय दलों का पिछलग्गू बनने को खुशी-खुशी तैयार हैं. इसकी बड़ी वजह यह है कि गठबंधन की स्थिति में सहयोगी दलों के अमूमन 80 फीसदी वोट ट्रांसफर हो जाया करते हैं. स्थानीय स्तर पर, क्षेत्रीय दल ही किसी छोटे दल की खूबियों और खामियों को बेहतर समझ सकते हैं. भले ही बहुत से छोटे दलों से बीजेपी या कांग्रेस को बंपर लाभ न मिले, लेकिन हो सकता है कि उनकी सहयोगी पार्टियों को इनसे बड़ा लाभ मिल जाए. बिना जनाधार वाले राज्यों में अपनी सीटों की संख्या बढ़ाने का राष्ट्रीय दलों के पास इससे बेहतर नुस्खा भला और क्या हो सकता है?

बेवजह नहीं है कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी, अपना दल नेत्री अनुप्रिया पटेल की मान-मनौव्वल में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के मुखिया ओम प्रकाश राजभर को तो उनके समधी मनभरण राजभर की मनमाफिक पोस्टिंग सुनिश्चित करके शांत किया गया है! तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में बीजेपी अभिनेता से नेता बने पवन कल्याण की अनाम-सी पार्टी जनसेना और केरल में किसी भारतीय धर्म जनसेना के साथ गठबंधन करने की सोच रही है. झारखंड में कांग्रेस ने समझौता किया है कि विधानसभा चुनाव में वह झारखंड मुक्ति मोर्चा से भी कम सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी. क्षेत्रीय दलों के सामने राष्ट्रीय दलों के ऐसे आसनों को नाम देने के लिए पाठक स्वतंत्र हैं.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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