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BLOG : औरतें सिर्फ यूनिवर्सल बेसिक इनकम के झांसे में आने वाली नहीं

भारत जैसे गरीब देश में लोगों को हजार-पंद्रह सौ देने से काम चल सकता है. बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए इतना पैसा पर्याप्त भले न हो, लोगों को ताकतवर जरूर बनाता है.

पोथियां भर-भर अध्ययन करने वाले कई बार शिगूफे छोड़ते रहते हैं. नया नारा यूनिवर्सल बेसिक इनकम का है. फिनलैंड जैसे यूरोपीय देश में सभी को सरकार की तरफ हर महीने 560 यूरो मिल रहे हैं. यह स्कीम जनवरी में अगले दो सालों के लिए शुरू की गई है और इसे हासिल करने के लिए नागरिकों को कोई कागज पत्तर दिखाने की जरूरत नहीं. ये पैसा वे जिस चीज के लिए चाहे, खर्च कर सकते हैं. इस स्कीम को सोशल सिक्योरिटी की सबसे उम्दा स्कीम बताया जा रहा है और अब दूसरे देश भी इस तरह की स्कीम पर सोच-विचार कर रहे हैं. हमारा देश भी इसी लाइन पर है.

हमारे देश के कई इकोनॉमिस्ट, सोशल सेक्टर में काम करने वाले एक्सपर्ट यूनिवर्सल बेसिक इनकम की वकालत कर रहे हैं. मध्य प्रदेश में तो इसके दो पायलट प्रॉजेक्ट भी चलाए गए हैं. यह पैसा अनकंडीशनल देने की बात कही गई है. फिनलैंड की तरह आप इस पैसे को अपनी मर्जी से खर्च कर सकते हैं. भारत जैसे गरीब देश में लोगों को हजार-पंद्रह सौ देने से काम चल सकता है. बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए इतना पैसा पर्याप्त भले न हो, लोगों को ताकतवर जरूर बनाता है. पैसा ताकत तो देता ही है. खासकर गरीब औरतों को और भी ज्यादा. समाज कभी इकहरा नहीं होता. इसकी बनावट में औरत-मर्द, दोनों का साझा होता है. लेकिन तकलीफ यह है कि अपने फटे पैबंद सीने का काम औरतों को ज्यादा करना पड़ता है. अपने ही बनाए सामाजिक नियम औरतों का अधिक शोषण करते हैं. इसलिए उनके हाथों में पैसा दिया जाना जरूरी है. यूनिवर्सल बेसिक इनकम अगर औरतों के हाथों में आए तो उन्हें ताकतवर बना सकती है. युनाइटेड नेशंस डेवलपमेंट फंड फॉर विमेन का कहना है कि दुनिया भर में औरतों को गरीबी का सबसे ज्यादा दंश झेलना पड़ता है. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि समाज में पैसा नहीं. यह समाज और सरकारों, दोनों में मौजूद जेंडर बायस का नतीजा है. 1978 में डायना पीअर्स ने फेमिनाइजेशन ऑफ पावर्टी यानी गरीबी का स्त्रीकरण जैसा टर्म इसीलिए दिया था क्योंकि उन्होंने देखा था कि अमेरिका और पूरी दुनिया में महिलाओं को गरीबी से किस प्रकार संघर्ष करना पड़ता था. इसी पर आंकड़े दिए गए थे कि विश्व में 16 साल से ऊपर के दो तिहाई लोग दरअसल औरतें ही हैं. भारत जैसे देश में यह बात साफ नजर आती है. यहां 300 मिलियन से भी ज्यादा लोग गरीबी के शिकार हैं. इनमें महिलाओं की संख्या आधे से भी अधिक है. एक तिहाई से ज्यादा ग्रामीण औरतें ही हैं. भले ही प्लानिंग कमीशन के सेट पैमानों को बदल दिया जाए लेकिन फिर भी गरीब तो गरीब ही रहेंगें और औरतों का हिस्सा भी उनमें अधिक ही रहेगा. बेसिक यूनिवर्सल इनकम से कम से कम उन गरीब औरतों के हाथों में ताकत आएगी. अनुपयोग के कारण उनकी मुरझा गई क्षमताओं की ट्रेजेडी के खत्म होने की उम्मीद बनेगी. परिवार की मसीहा अब भी वही मानी जाती हैं. घर चलाने का काम उन्हीं के जिम्मे है. तो, वे विकास का एजेंट के तौर पर काम कर सकेंगी. ब्रिटिश मेडिकल जनरल लांसेट का कहना है कि हमारे देश में 60 परसेंट से ज्यादा लोग सब्जियां और फल नहीं खा पाते. इसके अलावा आम आदमी को अपनी आय का 62 परसेंट खाने की चीजों पर खर्च करना पड़ता है. इसके बावजूद भुखमरी की हालत है. हम अब भी राइट टू फूड जैसे अभियान चला रहे हैं. यह उम्मीद की जा सकती है कि महिलाओं के हाथ में पैसा आने से पोषण में सुधार होगा, स्वास्थ्य सुधरेगा और शिक्षा पर भी खर्च करना संभव होगा. मध्य प्रदेश के जिन गांवों में यूबीआई के पायलट चलाए गए, वहां पैसा मिलने से स्कूलों में भर्तियों में 12 परसेंट का सुधार हुआ. डब्ल्यूएचओ के जेड स्कोर इंडेक्स के हिसाब से बच्चों, खासकर बच्चियों के वजन में सुधार हुआ. 2016-17 के इकोनॉमिक सर्वे में भी यूबीआई के गुण गाए गए हैं. पर वित्त मंत्री इसके लिए फिलहाल तैयार नहीँ. यह अर्थव्यवस्था पर भारी दबाव बनाएगा- उनका कहना है. वैसे ऐसी बहुत सी स्कीमें हैं जिनमें कैश ट्रांसफर की बात की जा रही है. टारगेटेड पीडीएस को कैश ट्रांसफर से बदलने की बात तो कई सालों से चल रही है. इकोनॉमिक सर्वे और यूनियन बजट में कहा गया है कि इस पहल से सरकारी लागत में भी बचत होगी. लेकिन बात सिर्फ बचत ही नहीं, लोगों के हित की है. कैश ट्रांसफर का ही दूसरा नाम यूबीआई है. मतलब वहां भी पैसा मिलेगा, यहां भी. और इस पैसे से महिलाओं की बंद मुट्ठी खुलेगी. फिलहाल एलपीजी, पेंशन आदि के लिए कैश ट्रांसफर ही होता है. औरतों के आर्थिक रूप से ताकतवर बनाने से नजरिए भी बदलेंगे. दक्षिए एशिया के कुछ दूसरे देशों में भी यूबीआई के प्रॉजेक्ट चलाए गए हैं. वहां यह पाया गया कि मर्द अगर ऐसी रकम को शराब और जुए वगैरह में वेस्ट करते हैं, वहीं औरतें खाने और बच्चों के लालन पालन पर खर्च करती हैं. मध्य प्रदेश के प्रॉजेक्ट से पता चला कि कुछ औरतों ने इस रकम से अपना छोटा-मोटा बिजनेस भी शुरू किया. दुकान लगाई- खेती में इनवेस्ट किया. सिलाई मशीनें खरीदीं. आरएसआईएस, एनटीयू सिंगापुर की रिसर्च फेलो तमारा नायर तो यहां तक कहती हैं कि यूबीआई न सिर्फ औरतों को बेनेफिट पहुंचाएगा, बल्कि उन्हें इस प्रोग्राम का हिस्सा बनाएगा. यूं यूबीआई के अलावा भी महिलाओं को ताकत देने की जरूरत है. इसके बावजूद कि सोशल सेक्टर में सरकारी खर्चा कम से कम हो रहा है, हेल्थ और एजुकेशन पर हम अपनी जीडीपी के केवल 1.4 और 3.8 हिस्से को खर्च करते हैं, लेकिन फिर भी हम उम्मीद कर सकते हैं. हम उम्मीद कर सकते हैं कि मनरेगा में औरतों की 51 परसेंट हिस्सेदारी में आने वाले सालों में इजाफा होगा. लेबर फोर्स में औरतों की हिस्सेदारी 27 परसेंट से आगे बढ़ेगी. विश्व बैंक पहले ही चेता चुका है कि बढ़ते ऑटोमेशन से आने वाले कुछ सालों में भारत में 69 परसेंट नौकरियां खत्म हो जाएंगी. सोचा जा सकता है कि इससे औरतें कितना प्रभावित होंगी. तो, कैश बेनेफिट या यूआईबी के बाद सोशल सिक्योरिटी देने की सरकारी जिम्मेदारी खत्म नहीं हो जाती. औरतें सिर्फ कैश ट्रांसफर के झांसे में नहीं आ सकतीं. उनके लिए बाकी सेक्टरों में आपको सोचना होगा.

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार और आंकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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