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ब्लॉग: पिशाचिनी मुक्ति पूजा के बावजूद बीवी आपका गला नहीं छोड़ेगी

इस खबर में खास क्या है कि वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर एक सौ पचास आदमियों ने मिलकर अंतिम संस्कार किया- खास यह है कि यह अंतिम संस्कार किसका किया गया... शादीशुदा संबंधों का. 'बीवियों से परेशान' ये बेचारे मिल- जुलकर भातृत्व भाव से यह आयोजन कर आए. 'फेमिनिज्म के आतंक' से प्रताड़ित, मासूम, निरीह, निरपराध, निर्दोष, निष्कपट... कितने ही पर्यायवाची ढूंढ सकते हैं आप इनके लिए. इस आयोजन में पिंडदान भी किया गया और पिशाचिनी मुक्ति पूजा भी ताकि बीवियों की नेगेटिव एनर्जी से उन्हें छुटकारा मिल सके. जाहिर सी बात है, बीवियां डायन-चुड़ैल वगैरह से कम थोड़ी न होती हैं. इनकी जिंदगी नरक बना रखी थी, बीवियों से मुक्ति पाने के साथ-साथ उनकी स्मृतियों से भी मुक्ति पा ली.

ये सभी एकसाथ कैसे वाराणसी पहुंच गए? एक पुरुष अधिकार संगठन है, 'सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन'. उसके दस साल पूरे होने पर यह आयोजन किया गया था. यह ग्रुप मैन्स राइट्स ग्रुप नाम के एक दूसरे संगठन के साथ आदमियों की बराबरी की वकालत करता है. आदमियों के साथ बुरा बर्ताव होता है समाज में- इनका कहना है. इसलिए समानता जरूरी है. आदमियों और औरतों की समानता. यूं फेमिनिज्म भी यही कहता है लेकिन इनकी बराबरी की दुहाई कुछ अलगकिस्म की है. इनका कहना है कि औरतें कानून का सहारा लेकर आदमियों को परेशान करती हैं. इसलिए ऐसी औरतों के खिलाफ वाराणसी में यह ईवेंट किया गया.

भारतीय विवाह को बचाओ फाउंडेशन, भारतीय विवाह संस्था को बचाना चाहता है. भारतीय विवाह संस्था, यानी जहां आदमी कमाए- औरत गंवाए, टाइप. आदमी बाहर जाकर काम करे, औरत घर पर रहकर काम करे. बच्चे संभाले, सास-ससुर की सेवा करे, आत्मत्याग करे. भारतीय परिवार तो ऐसे ही होते हैं. औरतें जहां तलाक न लें प्रतिकार न करें- चुप रहे- इंडियन सोप ऑपेरा की तरह. अब औरतें जहां बदले पर उतर आती हैं तो उन जैसी पिशाचनियों कौन संभालेगा. चलो, दाह संस्कार कर आएं ऐसे संबंधों का. तो दाह संस्कार हो गया. भारतीय विवाह संस्था बच गई, औरत का जीते-जी अंतिम संस्कार हो गया.

इस ईवेंट से चर्चा बटोरनी थी, बटोर ली गई. लेकिन इस चर्चा के फेर में मर्दवादी संगठनों ने ऐसी बहस भी छेड़ दी है, जिसका जवाब देना जरूरी लगता है. कहा गया है कि औरतें लगातार दहेज विरोधी कानून का दुरुपयोग कर रही हैं. पिछलेसाल सुप्रीम कोर्ट तक ने एक मामले में यह कहा था. वाराणसी के ईवेंट में शामिल एक सौ पचास लोग बीवियों के झूठे आरोपों से त्रस्त हैं. इसीलिए यह मांग की जा रही है कि दहेज विरोधी कानून को रद्द कर दिया जाना चाहिए. न रहेगा, बांस न बजेगी बांसुरी.

दरअसल इंडियन पीनल कोड के सेक्शन 498ए को आसान शब्दों में दहेज विरोधी कानून कहा जाता है. यूं इस सेक्शन में दहेज विरोधी कानून की बात सिर्फ एक खंड में की गई है. इस सेक्शन के दो हिस्से हैं जिनमें से एक क्रूरता के बारे में है. ससुरालियों, पति की क्रूरता के बारे में. क्रूरता हर किस्म की- मानसिक, शारीरिक, भावनात्मक. दूसरा हिस्सा दहेज उत्पीड़न से जुड़े मामलों से डील करता है. फिर यह पहला और अकेला कानूनी उपाय है जो औरतों के साथ होने वाले सभी प्रकार के उत्पीड़नों को मान्यता देता है.

वैसे कानून का दुरुपयोग आम बात है. सिर्फ दहेज विरोधी कानून का ही क्यों, दूसरे बहुत से कानूनों का भी मिसयूज होता रहता है. आईपीसी के सभी सेक्शंस के तहत झूठी शिकायतें दर्ज की जाती हैं. धोखाधड़ी, अपहरण, क्रिमिनल ब्रीच ऑफ ट्रस्ट से जुड़े मामलों में लोग आरोप लगाते हैं, झूठे भी साबित होते हैं. यहां तक कि 2012 में लॉ कमीशन ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि हर मामले में कानून का दुरुपयोग किया जाता है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कानून को ही रद्द कर दिया जाए. कानून को रद्द क्यों किया जाए- सदियों की प्रताड़ना सहने के बाद पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए कानून बनाए जाते हैं. औरतों की तरफदारी करने वाले कानूनों को भी ऐसे ही जामा पहनाया गया है, सालों साल चले विमेन मूवमेंट्स की देन हैं वे. परंपरा के नाम पर, पारिवारिक संबंधों के नाम पर, औरतों ने बराबर परेशानियां झेली हैं- आज भी झेलती हैं. कानून ने ही तो उन्हें सहारा दिया है. इसके बावजूद कितनी औरतें इस कानून का सहारा ले पाती हैं.

फिर औरतें आदमियों पर अत्याचार करती हैं, या आदमी औरतों पर- यह जानने के लिए आंखे खोलिए- दिमाग शांत कीजिए. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-3 के आंकड़े कहते हैं (हम या कोई और नहीं) कि 15 से 49 साल की 40% शादीशुदा औरतें अपने पतियों की इमोशनल, शारीरिक या यौन हिंसा का सामना करती हैं. जहां तक औरतों द्वारा आदमियों के अत्याचार का सवाल है तो यह आंकड़ा सिर्फ 1 प्रतिशत है. सेंसस 2011 के आंकड़ों की मानें तो कुल 24 करोड़ शादीशुदा औरतों में 9.7 करोड़ औरतों को अपने पतियों के अत्याचार से प्रताड़ित होना पड़ता है. तो आदमी बीवियों को कितना परेशान करते हैं, यह हम नहीं कहते- सरकार खुद कहती है.

इस डेटा से पेट न भरा हो तो एक बानगी और है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के डेटा बताते हैं कि सेक्शन 498ए के तहत देश भर में 2015 में 1,13,403 मामले दर्ज किए गए. मतलब देश की कुल 0.1% औरतें पतियों या ससुरालियों के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट करती हैं. वैसे पुलिसिया रिकॉर्ड्स बताते हैं कि इनमें से 90% मामलों में चार्जशीट बनाई गई लेकिन सिर्फ 3300 मामलों मे ‘कानून के दुरुपयोग’ की बात सामने आई. यूं कोर्ट्स खुद ये कोशिश करते रहते हैं कि कोई भी इंसान कानून का मिसयूज न करे. 2014 में बिहार के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इसी कानून के तहत सीधी गिरफ्तारी पर रोक लगाई थी. इसी साल उत्तर प्रदेश के एक दूसरे मामले में भी कोर्ट ने एफआईआर दर्ज करने से पहले शुरुआती जांच का आदेश दिया था.

जिस शादी नामक संस्था का दाह संस्कार वाराणसी में किया गया, वह तो दरअसल औरतों के लिए ही सबसे बड़ा बंधन है. हमारे यहां शादियों के सारे वचन भले ही प्रो-वुमेन लगते हों, लेकिन जीवन में होता इसका उल्टा ही है. हर वचन पर पति कबूल करता है कि वह बीवी को अपने बराबर समझेगा- मनुष्य समझेगा- यथोचित आदर करेगा. लेकिन सहजीवन के शुरू होते ही सभी शर्तें पलट जाती हैं. तब औरत को समझ आता है कि अपनी देह को सौंप सके- पति के पैरों तले स्वर्ग ढूंढ सके- चुपचाप रहकर सब कुछ सह सके- हर जरूरत के लिए किसी का मुंह ताक सके- तो भी जरूरी नहीं कि उसे अच्छी बीवी माना जाए. हां, अपनी जि़ल्लत महसूस करे, अपने इंसान होने का ख्याल करे तो जरूर उसे आसानी से पिशाचिनी-डायन-चुड़ैल माना जा सकता है. तो, पिशाचिनी मुक्ति पूजा के बावजूद बीवी आपका पीछा नहीं छोड़ेगी. यकीन मानिए.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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