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जो बोया वो काट रहे हैं मुलायम....

जी हां! समाजवाद के बीज बोकर पेड़ फलने फूलने पर जिस तरह मुलायम सिंह ने फल खाने का हक सिर्फ अपने परिवार तक सीमित रखा, अब वो उसी का खामियाजा भुगत रहे हैं. यही होता है जब समाजवाद पर परिवारवाद हावी हो जाए. क्योंकि पार्टी का नाम भले ही समाजवादी रह गया हो लेकिन ये पार्टी परिवार विशेष की होकर रह गई थी. मुलायम परिवार से जुड़े लोग पार्टी से लेकर यूपी सरकार के तमाम अहम पदों पर विराजमान थे. समाजवाद के मूल्यों और विचारों से पार्टी का दूर-दूर तक कोई नाता नजर नहीं आता था. भारतीय राजनीति में शायद ही आपको कोई कुनबा ऐसा मिले जिसके इतने सदस्य राजनीतिक पदों पर आसीन हों. पूरा परिवार समाजवाद के नाम पर वोट बटोरकर जमकर सत्ता की छाली काट रहा था. परिवार में ही कई पावर सेंटर बन गए थे. जैसा आपने हिन्दी फिल्मों में देखा भी होगा कि डॉन सहूलियत के मुताबिक अपने अपने इलाके बांट लेते हैं. जबतक वो एक दूसरे के इलाके से दूर रहते हैं सबकुछ ठीक रहता है लेकिन जैसे ही कोई दूसरे के इलाके में दखल देता है गैंगवार छिड़ जाता है.
कुछ इसी अंदाज में मुलायम परिवार के सदस्यों के बीच राजनीतिक गैंगवार छिड़ गया. ऐसा लगता था मानो यादव परिवार के दिग्गजों ने भी अपने इलाके और हिस्से बांट लिए थे लेकिन जैसे ही हितों का टकराव शुरु हुआ. परिवार का कलह जमाने में बेपर्दा हो गया. दरअसल जहां स्वार्थ हावी होगा वहां वर्चस्व के लिए संघर्ष लाजिमी है. ये संघर्ष हितों के टकराव से जन्म लेता है. सवाल ये है कि मुलायम सिंह यादव के परिवार में छिड़े इस झगड़े में वो समाजवादी सिद्धांत कहां हैं जिनकी दुहाई देकर मुलायम सालों से सेक्युलरिज्म के सिपहसलार बन रहे और इसी की आड़ में सहूलियत के मुताबिक सत्ता के लिए खेमे बदलते रहे.
दरअसल किसी भी पार्टी के सिद्धांत उसके लिए गोंद की तरह पार्टी को जोड़कर रखने का काम करते हैं. समाजवादी पार्टी की बात की जाए तो पिछले कुछ सालों में लगने लगा था कि अपने नफे नुकसान को ध्यान में रखकर समाजवाद के सिद्धांतों को परिवार विशेष के लोग परिभाषित करने लगे थे. नतीजा ये हुआ कि परिवार के लोग पूरी तरह पार्टी पर हावी हो गए और देखते ही देखते आपस में ही सत्ता संघर्ष शुरु हो गया. वैसे ये भी कम दिलचस्प नहीं कि पार्टी की ये दुर्गति उस वक्त हुई है जब कुछ ही दिनों में समाजवादी पार्टी अपनी 25वीं वर्षगांठ मनाने जा रही है. मुलायम परिवार में मचे घमासान पर गौर कीजिए तो महाभारत काल का कौरवों-पांडवों का रण याद आ जाएगा, जहां अहम और हितों के टकराव की वजह से भाई पर भाई टूट पड़े थे.
जरा इस ओर भी ध्यान आकर्षित कीजिए कि ये सब भारतीय राजनीति के उस धुरंधर खिलाड़ी के साथ हो रहा है जो अपने राजनीतिक जीवन में कई बार शह मात के खेले में जुटे दिखे. आपको याद होगा कैसे आय से अधिक संपत्ति के मामले में तथाकथित तौर पर सीबीआई के फेरे में फंसने से बचने के लिए मुलायम सिंह ने तत्कालीन मनमोहन सरकार को मना करने के बावजूद दूसरी बार सपोर्ट करके सबको चौंका दिया था. इसी तरह पलटी मारते हुए उन्होंने परमाणु करार पर संकट में घिरी तत्कालीन मनमोहन सरकार की मदद की थी.
ममता बनर्जी के साथ राष्ट्रपति चुनाव में साझा प्रत्याशी के नाम पर सहमति जताने के बाद मुलायम सिंह अचानक प्रणब मुखर्जी को समर्थन देने पर पर राज़ी हो गये थे. किसी जमाने में पहलवान रहे मुलायम सिंह यादव ने ऐसा ही धोबीपाट रिटेल एफडीआई के मुद्दे पर यूपीए 2 सरकार बचाकर दिया था. यही नहीं धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े झंडाबरदार होने का दावा करने वाले मुलायम ने पिछले बिहार विधानसभा चुनाव से पहले बने नीतीश कुमार नीत धर्मनिरपेक्ष महागठबंधन से खुद को अलग कर भी मौकापरस्ती का परिचय दिया था. मलतब ये मुलायम सिंह यादव भारतीय राजनीति में जो चाल अलग अलग पार्टियों के साथ चलते रहे, जिस तरह की राजनीतिक बिसात बिछाते रहे.
अब परिवार में ही उसका शिकार हो गए. पिता पुत्र, चाचा भतीजे, भाई भाई की इस लड़ाई में कोई जीते, कोई हारे लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले छिड़े इस परिवारवादी संग्राम की कीमत पार्टी को चुकानी पड़ेगी. हो सकता है समाजवाद के ध्वजावाहक रहे मुलायम सिंह यादव को अब पार्टी को अपने परिवार के हवाले करने का मलाल भी हो रहा हो लेकिन अब शायद बहुत देर हो चुकी है!
दरअसल किसी भी पार्टी के सिद्धांत उसके लिए गोंद की तरह पार्टी को जोड़कर रखने का काम करते हैं. समाजवादी पार्टी की बात की जाए तो पिछले कुछ सालों में लगने लगा था कि अपने नफे नुकसान को ध्यान में रखकर समाजवाद के सिद्धांतों को परिवार विशेष के लोग परिभाषित करने लगे थे. नतीजा ये हुआ कि परिवार के लोग पूरी तरह पार्टी पर हावी हो गए और देखते ही देखते आपस में ही सत्ता संघर्ष शुरु हो गया. वैसे ये भी कम दिलचस्प नहीं कि पार्टी की ये दुर्गति उस वक्त हुई है जब कुछ ही दिनों में समाजवादी पार्टी अपनी 25वीं वर्षगांठ मनाने जा रही है. मुलायम परिवार में मचे घमासान पर गौर कीजिए तो महाभारत काल का कौरवों-पांडवों का रण याद आ जाएगा, जहां अहम और हितों के टकराव की वजह से भाई पर भाई टूट पड़े थे.
जरा इस ओर भी ध्यान आकर्षित कीजिए कि ये सब भारतीय राजनीति के उस धुरंधर खिलाड़ी के साथ हो रहा है जो अपने राजनीतिक जीवन में कई बार शह मात के खेले में जुटे दिखे. आपको याद होगा कैसे आय से अधिक संपत्ति के मामले में तथाकथित तौर पर सीबीआई के फेरे में फंसने से बचने के लिए मुलायम सिंह ने तत्कालीन मनमोहन सरकार को मना करने के बावजूद दूसरी बार सपोर्ट करके सबको चौंका दिया था. इसी तरह पलटी मारते हुए उन्होंने परमाणु करार पर संकट में घिरी तत्कालीन मनमोहन सरकार की मदद की थी.
ममता बनर्जी के साथ राष्ट्रपति चुनाव में साझा प्रत्याशी के नाम पर सहमति जताने के बाद मुलायम सिंह अचानक प्रणब मुखर्जी को समर्थन देने पर पर राज़ी हो गये थे. किसी जमाने में पहलवान रहे मुलायम सिंह यादव ने ऐसा ही धोबीपाट रिटेल एफडीआई के मुद्दे पर यूपीए 2 सरकार बचाकर दिया था. यही नहीं धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े झंडाबरदार होने का दावा करने वाले मुलायम ने पिछले बिहार विधानसभा चुनाव से पहले बने नीतीश कुमार नीत धर्मनिरपेक्ष महागठबंधन से खुद को अलग कर भी मौकापरस्ती का परिचय दिया था. मलतब ये मुलायम सिंह यादव भारतीय राजनीति में जो चाल अलग अलग पार्टियों के साथ चलते रहे, जिस तरह की राजनीतिक बिसात बिछाते रहे.
अब परिवार में ही उसका शिकार हो गए. पिता पुत्र, चाचा भतीजे, भाई भाई की इस लड़ाई में कोई जीते, कोई हारे लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले छिड़े इस परिवारवादी संग्राम की कीमत पार्टी को चुकानी पड़ेगी. हो सकता है समाजवाद के ध्वजावाहक रहे मुलायम सिंह यादव को अब पार्टी को अपने परिवार के हवाले करने का मलाल भी हो रहा हो लेकिन अब शायद बहुत देर हो चुकी है!
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