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औरतों को जिन कपड़ों में आराम मिलता है, वही कपड़े लोगों को बेआराम करते हैं

2014 में बांग्ला की एक सेक्स कॉमेडी फिल्म आई थी- ‘अभिशॉप्तो नाइटी’. इसमें एक हॉन्टेड नाइटी ढेर सारे लोगों का जीना हराम करती है. तीन साल बाद अब नाइटी सचमुच लोगों के लिए मुसीबत बन गई है- हॉन्टेड न होकर भी. आंध्र प्रदेश के पश्चिमी गोदावरी जिले के गांव थोकलापल्ली की औरतें सुबह सात से लेकर शाम सात बजे तक नाइटी नहीं पहन सकतीं. पहनती हैं तो दो हजार का जुर्माना भरना पड़ता है. सात महीने पहले यह फरमान मछुआरों के इस गांव के बुजुर्गों ने दिया था. इलाके के पुलिस अधिकारी को जब एक अनाम चिट्ठी में यह जानकारी दी गई तो सारे मामले का खुलासा हुआ. इस गांव की आबादी करीब पांच हजार है और इसमें आधी औरतें हैं. औरतें चूंकि नाइटी पहनकर बाजार जाती हैं, बच्चों को स्कूल छोड़ती हैं, महिलाओं के सेल्फ हेल्प ग्रुप्स की मीटिंग्स में जाती हैं- इसलिए आदमियों को उनके इन कपड़ों से ऐतराज है. बस, इसके बाद दिन भर का नाइटी कर्फ्यू लगा दिया गया.

नाइटी को हमारे परिवार के एक बुजुर्ग डेएटी कहते थे- उनकी पत्नी दिन भर नाइटी पहने रहती थीं. वह हंसकर कहते थे- रात को पहनोगी तो यह नाइटी होगी. दिन में तो डेएटी ही होती है. इसे डेएटी कहा करो. उनकी बात पर सभी ठहाके लगाते थे. नाइटी औरतें दिन में पहनती ही क्यों हैं... कभी सोचा नहीं. विक्टोरियन दौर का नाइट गाउन, सालों से हाउसकोट प्लस मैक्सी से होता हुआ, लूज नाइटी में तब्दील हो चुका है. नाइट गाउन ब्रिटिश औरतों के साथ भारत में पहुंचा था. फिर सहूलियत के हिसाब से इनमें बदलाव होते गए. जैसा कि मीडिया क्रिटिक संतोष देसाई ने अपनी एक किताब ‘मेकिंग सेंस ऑफ एवरीडे इंडिया’ के एक चैप्टर में लिखा है- सगाई की अंगूठी की तरह, नाइटी एक विदेशी आदत है जिसे हमने बिना किसी दुराव के अपना लिया है, वह भी अपने अनूठे तरीके से. इस चैप्टर का नाम है- ‘द वंडरफुल वर्ल्ड ऑफ द इंडियन नाइटी’. 1949 की फिल्म ‘अंदाज’ में नर्गिस ने जिस स्टाइलिश गाउन को पहना था, वह सत्तर के दशक में कफ्तान और मैक्सी के बाद अस्सी के दशक में नाइटी बन गया. यहां तक कि 1994 की ‘अंदाज अपना अपना’ में करिश्मा कपूर ने नाइटी में ही ‘ये रात और ये दूरी’ जैसा गाना गा लिया था.

दरअसल औरतों ने चौखट लांघकर घर से बाहर पैर रखा, तो काम से लौटने के बाद नाइटी में कंफर्ट तलाशा. भारत के गर्म, नम मौसम में राहत की सांस भला नाइटी जैसे कपड़े के अलावा कहां मिलती. चटपट नाइटी पहनी और चूल्हे पर तवा चढ़ गया- गर्म-गर्म रोटियां फूलती गईं. किचन की गर्मी ने नाइटी को इवनिंगी बना दिया. नाइटी, मानो लुंगी और शॉर्ट्स का फेमेनिन रूप. सहूलियत, हर औरत का हक है. वह दफ्तर में काम करे, खेतों में या फिर फैक्ट्री में. किचन में खाना पकाए या साफ-सफाई करे. घर पर आराम करे, बागवानी करे- या टीवी देखे. नाइटी उसे वह सहूलियत देती है. इसी सहूलियत ने केरल के मशहूर नाइटी ब्रांड एन स्टाइल को 30 सालों में 100 करोड़ रुपए का बिजनेस एंपायर बना दिया है. ऐसी ही सहूलियत जींस में भी है जिसके पीछे आंखें तरेरने वाले लाखों हैं. लेगिंग्स में भी वही आराम है जिसके लिए भृकुटियां तननी शुरू हो चुकी हैं. औरतों को जिन कपड़ों में आराम लगता है, वही कपड़े लोगों को बेआराम करने लगते हैं. बॉडी हगिंग लेगिंग्स में भी तकलीफ होती है, और ढीली-ढाली लबादे सी नाइटी में भी. दरअसल औरत के हर कपड़े पर तकलीफ होती है. उसके चलने पर. बैठे रहने पर. हंसने पर. रोने पर भी. बातचीत करने पर- तब वह बातूनी होती है. बात न करने पर- तब वह मिलनसार नहीं होती.

यूं नाइटी खुद बड़ी मिलनसार है. जाति, धर्म, उम्र और वर्ग से परे. काम करने वाली बाई भी नाइटी पहनती है, काम कराने वाली मेमसाहब भी. पंजाबी आंटी भी, केरलाइट चेची भी. सब एक से भाव से. एक मशहूर टीवी चैनल ने जब ‘नाइटी नेशन’ नाम से एक शो किया तो उसमें मशहूर ऑथर और पत्रकार सत्य सरन ने कहा था कि नाइटी औरतों, खासकर लो इनकम ग्रुप्स की औरतों को मुक्ति देती है. पल्लू और दुपट्टे से. इस भार से कि उसे सजकर रहना है. वैसे दुनिया भर में गाउन्स बनाने वाले ढेरों डिजाइनर्स हैं. उक्रेन के डिजाइनिंग लेबल ली फेफर ऐसे गाउन्स बनाते हैं जिन्हें पहनकर औरतों पार्टी भी कर सकें, और सो भी सकें. मतलब नाइटी स्टाइलिश हुई जा रही है, हम उसे रात को छिप-छिपाकर पहनने की कोशिश कर रहे हैं. इससे पहले बेंगलूर और चेन्नई के कुछ स्कूल पेरेंट्स को हिदायत दे चुके हैं कि वे नाइट वियर में बच्चों को स्कूल छोड़ने न आएं. यहां भी असल निशाना नाइटी ही थी, क्योंकि तब कहा गया था कि बच्चों की मम्मियों को ऐसे कपड़ों में देखने के लिए शोहदे स्कूल के आस-पास मंडराते रहते हैं. अब आंध्र प्रदेश में दिन का नाइटी कर्फ्यू इस श्रृंखला की अगली कड़ी है.

नाइटी दिन में डेएटी न बने, इसके पीछे एक ही वजह बताई जाती है- यह किसी को अच्छा नहीं लगता. अच्छा लगना, एक क्राइटीरिया है तो लुंगी, मुंडू या लंबे से अंडरवियर में घूमते आदमी भी औरतों को भले नहीं लगते. नंगे बदन, या बनियान पहने... छोटे से शॉर्ट्स-टीशर्ट में थुलथुल सी देह वाले जॉगिंग करते मर्द संस्कृति की भी ऐसी तैसी करते हैं- कलात्मक बोध की भी. ऐसे वीभत्स दृश्य से आंखों की पुतलियां पलट जाती हैं. पर औरतें इन दृश्यों को प्रतिबंधित नहीं कर सकतीं. वे प्रतिबंध झेला करती हैं.

हो सकता है, प्रशासन की दखल के बाद थोकलापल्ली गांव में दिन का नाइटी कर्फ्यू हट जाए. उसी तरह जैसे राजस्थान में इस साल जींस को शैक्षणिक संस्थानों में पहनकर जाने पर लगा प्रतिबंध हट गया था. लाग-लपेटकर के बाद इसे स्वैच्छिक बना दिया जाए. जैसा कि दिल्ली यूनिवर्सिटी की लड़कियां हॉस्टल्स में लगने वाले नाइट कर्फ्यू के खिलाफ पिंजड़ा तोड़ने का ऐलान कर रही हैं और पूछ रही हैं- हम बाहर कब निकलेंगे, यह कौन तय करेगा- हम या आप. हमारा सवाल भी यही है. कपड़े हम किसकी मर्जी से पहनेंगे. अपनी या आपकी... अपनी सहूलियत से या आपकी सहूलियत से... मर्द किसकी मर्जी से कपड़े पहना करते हैं?

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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