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क्या सचमुच कांशीराम की विरासत को ही आगे बढ़ाना चाहती हैं मायावती ?

आज से तकरीबन 40 बरस पहले किसने सोचा था कि दिल्ली के करोलबाग इलाके की एक पिछड़ी बस्ती कहलाने वाले रैगरपुरा में दो कमरों के मकान में रहने वाला एक शख्स इस देश की राजनीति को ऐसी नई दिशा देगा कि हर पार्टी को सत्ता में आने के लिए दलितों का समर्थन पाना,एक बड़ी मजबूरी बन जायेगी. पंजाब के रूप नगर में जन्मे और 1984 में बहुजन समाज पार्टी बनाकर दलितों-शोषितों की आवाज़ उठाने वाले कांशीराम का सपना था कि सबसे पहले पंजाब में एक बड़ी ताकत बनकर उभरा जाए. पर,उनके इस सपने को साकार किया, देश के सबसे बड़े सूबे उत्तरप्रदेश ने जिसकी उम्मीद खुद शायद उन्हें भी नहीं थी.

लेकिन ये कांशीराम की पारखी नज़र का ही कमाल था कि दिल्ली के इंद्रपुरी इलाके में रहने वाली जो महिला उनके पास IAS बनने के गुर सीखने गई थीं, उन्होंने उस महिला को राजनीति का ऐसा पाठ पढ़ाया कि सियासत के सारे दिग्गज हैरान रह गए. जी हां वह महिला बीएसपी की कमान संभालने वाली मायावती ही हैं. इसीलिये वे कई मर्तबा इसकी ताकीद कर चुकी हैं कि अगर कांशीराम न होते तो उन्हें राजनीति में इतना बड़ा मुकाम कभी हासिल भी न होता.

यूपी के सिंहासन का स्वाद चख चुकीं उन्हीं मायावती ने शुक्रवार को एक बड़ा बयान देकर अपने राजनीतिक विरोधियों को भी थोड़ा हैरान कर दिया है. अगली 15 जनवरी को अपनी उम्र के 66 बरस पूरे करने जा रहीं मायावती ने कहा है कि वह अभी पूरी तरह से स्वस्थ हैं और पार्टी को किसी उत्तराधिकारी की कोई जरूरत नही हैं और भविष्य में पार्टी के लिए कड़ी मेहनत करने वाले दलित नेता को ही उनका उत्तराधिकारी बनाया जाएगा.

इस बयान के कई मायने हैं. अगले छह महीने के भीतर यूपी में विधानसभा के चुनाव हैं और उससे पहले मायावती ने ये ऐलान करके एक साथ कई निशाने साधे हैं. पहला संदेश तो ये दिया है कि उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ब्राह्मण या अगड़ी जातियों का वोट उन्हें मिलता है या नहीं.जबकि उनके खास सिपहसालार और पार्टी में खासी हैसियत रखने वाले सतीश मिश्रा पिछले कुछ दिनों से राज्य के हर जिले में ब्राह्मणों के सम्मेलन आयोजित करने के बहाने उन्हें बीएसपी के साथ लाने की मशक्कत कर रहे हैं. सो निजी तौर पर उनके लिए इसे बड़े झटके के रूप में देखा जा रहा है क्योंकि राजनीतिक पंडित मानते हैं कि मिश्रा ने ये सारी कवायद इसलिये शुरु की है कि वे मायावती का उत्तराधिकारी बनने के लिए खुद को सबसे काबिल नेता साबित कर सकें लेकिन मायावती ने ये बयान देकर उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया.

दूसरा अहम पहलू ये है कि 2014 के लोकसभा चुनावों और 2017 में हुए यूपी विधानसभा चुनावों के नतीजों से मायावती को ये अहसास हो चुका है कि दलितों में उनका जनाधार लगातार कम होता जा रहा है और वो बीजेपी के अलावा अन्य दूसरी पार्टियों की तरफ भी खिंचता जा रहा है. इसीलिये ये कयास लगाया जा रहा है कि उसी दलित वोट बैंक को थामने और उसे वापस बीएसपी की तरफ लाने के लिए मायावती ने बेहद सोच-समझकर ये बात कही है. यूपी के चुनावी नतीजों में बीएसपी किस मुकाम तक पहुंच पायेगी, ये तो वक़्त ही बतायेगा लेकिन मायावती ने अपने इस बयान से इतना साफ कर दिया है कि वे कांशीराम की विरासत की ये कमान किसी सवर्ण के हाथों में नहीं सौंपने वाली है.

वैसे मायावती की राजनीति को नजदीक से समझने वाले लोग मानते हैं कि वे बेहद तौल-मोल कर ही कुछ बोलती हैं और खासकर केंद्र की सत्ता में बैठी पार्टी के खिलाफ बोलने से अक्सर वे बचती रही हैं. शायद यही वजह है कि शुक्रवार को लखनऊ की अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कांग्रेस के खिलाफ जमकर अपनी भड़ास निकाली और समाजवादी पार्टी को भी नहीं बख्शा. लेकिन बीजेपी या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार के खिलाफ कुछ भी बोलने से परहेज रखा. इसके जवाब में कांग्रेस व सपा के नेताओं ने बीएसपी पर बीजेपी की बी टीम होने का आरोप लगाते हुए कहा कि मायावती विपक्ष की नहीं,बल्कि अपनी सुविधा व समझौते की राजनीति कर रही हैं और यूपी की जनता इसे समझ भी रही है.
 
कहते हैं कि किसी इंसान की जिंदगी में कुछेक बार ऐसा मौका भी आता है, जब वो प्रकृति से जो मांगता है,उसे उम्मीद से भी ज्यादा मिल जाता है. भारतीय राजनीति में मायावती को उसकी जीवंत मिसाल समझा जाना चाहिए. कांशीराम व मायावती की पहली मुलाकात व उनके बीच हुए संवाद के बारे में 90 के दशक की शुरुआत में खुद कांशीराम ने अपने एक इंटरव्यू में इसका खुलासा किया था. 'संडे मेल' अखबार के तत्कालीन कार्यकारी संपादक त्रिलोक दीप ने अपनी पुस्तक 'संस्मरणनामा' में लिखा है- "कांशीराम ने जवाब दिया कि मायावती जब पहली बार मुझसे मिलीं तो उन्होंने कहा कि मैं IAS बनना चाहती हूं. मेरा मार्गदर्शन कीजिये. 

कुछ देर की बातचीत में मुझे यकीन हो गया कि इस महिला में वो करंट है,जो समाज बदलने का जज़्बा रखती है. मैंने उससे कहा कि ,मैं तुन्हें वहां देखना चाहता हूं,जहां तमाम IAS अफसर तुम्हारे दस्तखत लेने के लिए आगे-पीछे घूमते नज़र आएं. मैं खुश हूं कि उसने इस सपने को मेरे जीते जी ही साकार करके दिखाया."

लिहाज़ा,अगर मायावती ने बीएसपी का उत्तराधिकारी किसी दलित नेता को ही बनाने का फैसला किया है,तो वह इसलिये सराहनीय है कि वे कांशीराम की विरासत को आगे बढ़ाने में कोई धोखा नहीं दे रही हैं, बशर्ते कि वे अपने परिवार के ही किसी सदस्य को इसकी कमान देने से बचें. 

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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