Blog: इस बार केकवॉक नहीं होगा बीजेपी के लिए गुजरात विधानसभा चुनाव

मुख्य निर्वाचन आयुक्त एके ज्योति की घोषणा से स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गृहप्रदेश गुजरात में चुनाव इसी दिसंबर के दौरान होंगे, तारीखों का क्या है! इस चुनाव पर सबकी नज़रें टिकी हैं क्योंकि लगभग 20 सालों की एंटीइनकंबेंसी के चलते यहां बीजेपी के लिए लगातार चौथी चुनावी जीत दर्ज करना नाक का सवाल बन चुका है, वहीं 2014 के आम चुनाव में करारी हार के बाद से झटके पर झटके (पंजाब अपवाद है) खा रही कांग्रेस नई अंगड़ाई लेने की कोशिश कर रही है. मैदान-ए-जंग सज चुका है. वास्तव में अब तो दोनों पक्षों के योद्धाओं की ओर से एक-दूसरे के खिलाफ अच्छी-ख़ासी तीरंदाज़ी भी हो चुकी है.

बीजेपी 1998 से यानी लगभग दो दशक से गुजरात की सत्ता पर काबिज़ है. इसमें से अधिकांश समय मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी (2001-2014) जो अब प्रधानमंत्री हैं, रहे हैं. 2002 में गोधराकाण्ड और गुजरात दंगों के बाद हुए चुनावों, 2007 के चुनावों और 2012 के चुनावों में श्री मोदी ने न सिर्फ गुजरात में जीत की हैट्रिक लगाई, बल्कि विकास के गुजरात मॉडल को खूब प्रचारित कर अपने प्रधानमंत्री बनने का रास्ता भी साफ किया.
गुजरात में बीजेपी के लिए पहली बार मुश्किल तब खड़ी हुई जब पाटीदारों ने आरक्षण की मांग को लेकर तीखा आन्दोलन किया. पिछले साल ऊना में दलितों पर कथित गौरक्षकों के अत्याचार की तस्वीरें वायरल होने से भी पार्टी की छवि को गहरा धक्का पहुंचा. पार्टी ने इस घटना को कितनी गंभीरता से लिया इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने कथित गौरक्षकों को फटकार तक लगा दी.

गुजरात में पाटीदार और दलित, दोनों वर्ग बीजेपी समर्थक हैं. पाटीदार तो पार्टी के पारंपरिक समर्थक हैं लेकिन दलितों को 2002 में मुस्लिमों के खिलाफ हिन्दुओं के रूप में ठोस शक्ल दी गई थी. इससे महत्वाकांक्षाएं बढ़ीं और सामाजिक संघर्ष के हालात ने गुजरात में हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी और अल्पेश ठाकोर जैसे पिछड़े नेता उभार दिए, जो आज बीजेपी के खिलाफ ही ताल ठोक रहे हैं. यह अगर तीनों कांग्रेस से हाथ मिला लें, तो बीजेपी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं. लेकिन अगर इतने पर भी कांग्रेस हार जाती है तो उसका मनोबल ऐसा टूट जाएगा कि वह 2019 का आम चुनाव पस्ती के आलम में ही लड़ेगी.
गुजरात की जंग इसी पृष्ठभूमि में लड़ी जा रही है. प्रधानमंत्री ने सितम्बर में ही जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे को गुजरात बुलाकर बुलेट ट्रेन योजना की घोषणा के साथ एक तरह से चुनाव प्रचार अभियान की शुरुआत कर दी थी. उसके तीन दिन बाद अपने जन्मदिन पर उन्होंने सरदार सरोवर बांध राष्ट्र को समर्पित किया. गुजरात चुनाव के मद्देनज़र ही केंद्र सरकार ने वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) में कपड़ा, सोना-चांदी और हीरा व्यापारियों को राहत देने के लिए बदलाव किए और गुजराती स्नैक 'खाकरा' को सस्ता करने की घोषणा की. मोदी जी ने ट्वीट कर इसे 'व्यापारियों के लिए दिवाली से पहले दिवाली का तोहफ़ा' करार दिया. प्रधानमंत्री ने वडनगर में 'मैं 2001 से ही विषपाचन कर रहा हूं' जैसे बयान देकर गुजरातवासियों को 'इमोशनल ब्लैकमेल' की कोशिश भी की! कोई बच्चा भी बता सकता है कि यह सब गुजरात चुनाव के मद्देनज़र ही किया गया.
दूसरी तरफ कांग्रेस के खेमे से उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी मोर्चा संभाल ही चुके थे. लेकिन अब राजनीति के 'पप्पू' बताए जाने वाले राहुल गांधी का अंदाज़ बदला-बदला नज़र आ रहा है. सकल घरेलू उत्पाद में गिरावट की स्थिति पर 'सीट बेल्ट बांध लीजिए, आपके विमान के पंख गिर चुके हैं!’ से लेकर गुजरात में 'विकास पागल हो गया है' के नारे को लपकने और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के बेटे जय शाह की कंपनी को एक साल में 80 करोड़ रुपए (समाचार ब्रेक करने वाली वेबसाइट की रिपोर्ट के अनुसार 16 हज़ार गुना) लाभ होने के मामले में सीधे प्रधानमंत्री पर निशाना साधकर राहुल गांधी ने गुजरात की लड़ाई को रोचक बना दिया है. उन्होंने ‘शहज़ादे’ वाले तंज को ‘शाह’ज़ादे में बदल दिया है.

बीजेपी के हिंदुत्व कार्ड की काट के लिए राहुल गांधी गुजरात में मंदिरों की खाक भी छान रहे हैं (यह अलग बात है कि बीजेपी के उग्र हिंदुत्व के मुकाबले कांग्रेस 'सॉफ्ट' हिंदुत्व का कार्ड शंकर सिंह वाघेला के नेतृत्व में 2007 के चुनाव में भी खेलने का असफल प्रयास कर चुकी है). इसके बावजूद राहुल गांधी के कट्टर आलोचक भी यह मानने लगे हैं कि वह पहले से परिपक्व हो गए हैं. चाहे वंशवाद पर उनका बयान हो या फिर यह स्वीकारोक्ति कि 2014 की हार का कारण उनकी पार्टी में घमंड भर जाना था या फिर उनका यह कहना कि बीजेपी ने उन्हें पीट-पीटकर बहुत कुछ सिखा दिया है. राहुल गांधी की छवि बदल रही है, उन्हें सुनने भीड़ जुट रही है, उनकी बातों को सुनकर तालियां बजा रही है.
इन तमाम कारकों के चलते यह लगने लगा है कि गुजरात में बीजेपी की जीत केकवॉक तो नहीं ही होगी. कांग्रेस के लिए एक सकारात्मक बात इसी साल राज्यसभा चुनाव में अहमद पटेल की नाटकीय जीत भी रही, जिसमें महज एक सीट को छीनने के लिए बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने साम, दाम, दंड, भेद- सभी हथकंडे अपनाए थे और कांग्रेस के विधायक फोड़ने से लेकर क्या-क्या धतकरम नहीं किए थे!
जहां तक बीजेपी का सवाल है, गुजरात के विकास मॉडल को सामने रखकर देश जीतने वाली पार्टी के राष्ट्रीय विकास मॉडल की असली परीक्षा इस चुनाव में होगी. पार्टी को नोटबंदी की तबाही के बावजूद यूपी में मिली प्रचंड जीत के बाद यह लगने लगा था कि देश में नोटबंदी कोई मुद्दा ही नहीं है, पर समय गुज़रने और जीएसटी लागू होने के बाद स्थिति कोढ़ में खाज जैसी हो गई है. अर्थव्यवस्था में लगातार आ रही गिरावट और कारोबार चौपट होने के चलते पार्टी का मूलाधार माना जाने वाला व्यापारी वर्ग और 'जॉबलेस ग्रोथ' से युवा बेचैन हो उठे हैं. गुजरात का चुनाव इसके नकारात्मक असर से नहीं बच सकता. इसका अंदाज़ा बीजेपी को भी है. इसीलिए वह हिंदुत्व और गुजराती अस्मिता से लेकर अपने विकास और कांग्रेस के भ्रष्टाचार की याद दिलाने में जुट गई है. चुनावी ड्रामा का परदा उठ चुका है, लेकिन मैदान के महारथियों की चुनावी अदाकारी का असली जलवा तो अब शुरू होगा.
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