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BLOG: गांवों की बिगड़ती जीवन व्यवस्था ही पलायन का मुख्य कारण था

जब शहरों में घरों के अंदर ही सारी सुविधाएं होने लगीं, तब गांव में लोग खेत खलियान में शौच के लिए जाते था. जब शहर में सड़कों पर स्ट्रीट लाइट की रौशनी जगमगाने लगी, गांव के बच्चे लालटेन के तले पढते थे.

शहर की झुग्गियां में रहने वाले लोग सबसे ज्यादा मुश्किल घड़ी और दयनीय स्थिति में हैं. ग्रामीण इलाकों से जो मजदूर यहां सपनों को संजोने आए थे, उनकी जिंदगी और भी बदहाल हो गई. बड़े पैमाने पर पलायन के पीछे का कारण भारत के अधिकांश गांवों में लोगों की खराब जीवन व्यवस्था थी. सड़क, शौचालाय, बिजली, चिकित्सा, स्कूल आदि की सुविधा बस शहर तक ही सीमित थी.

मेरे पिताजी सरकारी नौकरी में रहें और इस दौरान उनका कई बार तबादला हुआ. गर्मी और सर्दी की छुट्टियों में हम अपने गांव जाया करते थे. गांव की दूरी लगभग 100 किलोमीटर से कम ही रही होगी. इतनी दूरी तय करने में आज के वक्त किसी अच्छे हाईवे पर मुश्किल से डेढ़ घंटे लगेंगे. उन दिनों ऐसा करना आसान नहीं था. कुछ ज्यादा पुरानी बात नहीं है, मुश्किल से 10-15 साल पहले की बात होगी. जब छुट्टियों में गांव जाते थे, इतने छोटे सफर की प्लानिंग एक-दो हफ्ते पहले से ही शुरु हो जाती थी. गांव पहुंचने के लिए हमें 7 से 8 घंटे का समय लगता था. छुट्टियों में जाने की एक अलग ही उत्सुकता होती थी इसलिए सफर आसान हो जाता था. छुट्टियों से वापस आने के वक्त सफर कुछ ज्यादा दूर लगती थी. एक तो वापस जाने की उदासी, ऊपर से टूटे-फूटे रास्ते, सफर कुछ ज्यादा ही कठिन लगता था.

सड़क की स्थिति देख कर लगता था कि इसके पीछे बहुत बड़ी प्लानिंग हुई होगी. जैसे-जैसे आप किसी शहर से या किसी शासन प्रबंध क्षेत्र से दूर होते जाएंगे या किसी ग्रामीण इलाके में जाएंगे रास्ता उतना ही कठिन होता जाएगा. इसीलिए दरभंगा तक तो पहुंचना आसान था, लेकिन बेनीपुर-आशापुर तक पहुंचना बहुत ही कठिन था. तकरीबन 28 किलोमीरट के सफर में ढाई से तीन घंटे लगते थे. सड़क ऐसी थी कि वाहन किसी भी अनजान हादसे का शिकार हो जाए. फिर वहां से अपना गांव अंटौर, जो कि दो से तीन किलोमीटर की दूरी पर होगा, यहां से पैदल या रिक्शे या जीप की ही सवारी मिलती थी. उन दिनों हमारे गांव की और जाने वाले रास्ते की स्थिति बहुत ही दयनीय थी. कोई भी बड़ी वाहन उस ओर नहीं जा पाता था. रिक्शे भी बहुत मुश्किल से ही मिलते थे. एक हमारे गांव का रिक्शा चालक रामधनी अक्सर मिल-जाया करता था. कभी तांगे से भी जाते थे. रास्ते के स्थिति के हिसाब से तांगा बहुत ही जरूरी साधन था. यहां तक कि पुलिस की नियमित गस्त इसी से हुआ करती थी.

दूरी इतनी कम थी, अगर अच्छी सड़क की सुविधा होती तो हम लोग अक्सर गांव जाया करते. बहुत सारे पारिवारिक समारोह में हम लोग जा नहीं पाते थे, उसका सबसे बड़ा कारण था समय का अभाव और आने जाने की परेशानियां. गांव हमसे नजदीक होने के बावजूद भी बहुत दूर था, सफर लम्बा था.

जब शहरों में घरों के अंदर ही सारी सुविधाएं होने लगीं, तब गांव में लोग खेत खलियान में शौच के लिए जाते था. जब शहर में सड़कों पर स्ट्रीट लाइट की रौशनी जगमगाने लगी, गांव के बच्चे लालटेन के तले पढते थे. शहरों में जब सीलिंग फैन और ट्यूबलाइट की सुविधाएं होने लगी, गांव राशन की दुकान पर किरोसिन तेल के लिए लम्बी लाइन में लगा रहता था. सब कुछ अलग सा था, कुछ भी मिलता जुलता नहीं था, कहीं कोई मेल नहीं था. लगता था, ये सारी सुविधाएं शहरों के लिए ही होती है. अच्छी सड़कें, बिजली, शौचालाय, इत्यादि.

गांव में ऐसी जिंदगी की आदत सी हो गयी थी, कैसे भी करके जिंदगी कट रही थी. इस सब के बावजूद उनके भी अपने सपने थे, महत्वाकांक्षाएं भी थीं. उसी सपनों को संजोने, आज गांव में हर कोई नौकरी और खुशहाल जिंदगी की तलाश में शहर की और चल देते हैं. गांव खाली होता गया, घरों में ताले लगते गए. खेत- खलिहान भी सूने होने लगे. गांव में बस, बूढ़े, बच्चे, और औरतें रह गईं. गांव खाली हो गया.

कैसे भी कर के गांव से शहर आ गये और नौकरी भी मिली, जितनी कमाई थी उसी के हिसाब से घर भी किराए में लिया और आस पास का इलाका भी उसी तरह से था. सुकून एक ही था की हर महीने तनख्वाह मिलती थी. हरसंभव प्रयास रहता था कि कुछ बचा लें और अपने पीछे छोड़ आए परिवार को कुछ भेज दें. यही सिलसिला बीते एक या ढेर दशकों से चला आ रहा है. ये गांव से आए हुए लोग अधिकतर शहर के अति पिछड़े इलाके में रहते हैं, खासकर दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे शहरों में.

ये वही लोग हैं जो आज शहर के छोटे-छोटे गलियों में, शहर के बाहर झुगियों में रहते हैं. इन इलाकों में जिंदगी बद से बदतर होती है. इसी इलाके को शहर में स्लम्स या झुगी-झोपड़ी कहते हैं. छोटे से कमरे, सामूहिक शौचालाय और सामूहिक पानी की व्यवस्था. एक अच्छी जिंदगी की तलाश में आए लोग, पैसे बचा कर घर वापस जाने की आस में यही झुग्गी-झोपड़ी के बन के रह जाते हैं.

अगर देखा जाय तो, इन्हीं लोगो ने शहर को बनाया है. यही लोग शहर को चलाते हैं. इनमें से कुछ लोगों ने अपने सपनों को भी पूरा किया. अपनी आने वाली पीढ़ी को अच्छी शिक्षा और अच्छी जिंदगी देने की कोशिश की है. बहुतों को कामयाबी भी मिली और बहुत सारे लोग जैसे थे, वैसे ही रह गए.

आज गांव पहले जैसा नहीं रहा, वहां भी बिजली, पानी, गैस-सिलिंडर, शौचालाय, सड़कें, स्कूल की सुविधाएं पहुंचने लगी हैं. लेकिन आज भी नौकरी की तलाश में लोग शहर ही जाते हैं और वहां स्लम्स में, एक छोटे से कमरे में, झुग्गियों में, निर्माणाधीन इमारत के नीचे, फ्लाइओवर के नीचे, फुटपाथ पर, गंदे नदी-नालों के किनारे, और न जाने कहां-कहां रहते हैं? ये सिलसिला कब खत्म होगा, इसका उपाय किसी भी राज्य सरकार के पास नहीं है. सवाल पलायन का नहीं है, सवाल है वहां उनकी सामाजिक स्थिति का, उनकी सुरक्षा का, उनके भविष्य का.

कोरोना की लाचारी ने इन प्रवासी मज़दूरों को मजबूर कर दिया है गांव वापस जाने को. इनके वापस जाने का कारण है, उनके नियमित खर्च और काम न होना. इनमें से शायद बहुत सारे लोग शहर वापस न आएं, इसके बहुत सारे कारण हो सकते हैं. लेकिन इस रिवर्स पलायन के दौरान बहुत सारे बातों का ख्याल रखना होगा. हर संभव प्रयास होनी चाहिए कि जो जहां भी रहें, लॉकडाउन का सख्ती से पालन करें, जिससे ये त्रासदी जल्द ही नियंत्रित हो जाए.

सरकार भी किसानों और मजदूरों की आमदनी बढ़ाना चाहती है. बहुत सारी नयी योजनाएं भी हैं, जिससे वापस आने वाले मज़दूरों को लाभ हो-सकता है. बेशक आज गांव की जिंदगी, शहर से कई मामलों में अच्छी है. भविष्य में खुद के आत्मबल और सरकार की सही नीतियों से मज़दूर वर्ग खुद को इन शहरों की अर्बन स्लम्स में जाने से रोके और अपने गांव में ही रोज़गार का अवसर ढूंढे, उसी में उनके और उनके आश्रितों की भलाई है.

(हेमन्त झा एक विपुल विचारशील लेखक हैं, नियमित रूप से सार्वजनिक समस्याओं, कार्यक्रमों और शीर्ष प्रकाशनों में पब्लिक मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त करते हैं. नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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