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BLOG: काश! इतिहास से कुछ सबक लेते मुलायम सिंह

समाजवादी पार्टी में मचे घमासान को समझने और सुलझाने के लिए जो दलीलें दी जा रही हैं वो 25 साल यानी समाजवादी पार्टी के स्थापना काल से आगे नहीं बढ़ पा रही हैं. 4 नवंबर 1991 को लखनऊ के हजरतगंज में बनी समाजवादी पार्टी अगले महीने 25 साल पूरे कर रही है. नेताजी और उनके सुपुत्र अखिलेश यादव के बीच छिड़ी इस सीधी जंग को समझने के लिए थोड़ा सा पीछे चला जाए तो इसे बेहतर ढंग से समझा जा सकता है. 1991 से बस थोड़ा सा ही पीछे 1989 चलिए और 2012 से उसकी तुलना कीजिए. 44 संयोग से मुझे 1989 और 2012 दोनों साल बहुत अच्छी तरह से याद हैं. मेरी पढ़ाई सेंट्रल यूपी के उसी इलाके में हुई जो मुलायम सिंह का गढ़ माना जाता है. बहुत अच्छी तरह याद है 1989 में जनता दल ने यूपी में भारी जीत दर्ज की थी- गवर्नमेंट इंटर कॉलेज उरई और औरैया के ग्राउंड में जब मुलायम सिंह का हाइड्रोलिक लिफ्ट वाला समाजवादी क्रांति रथ पहुंचता था तो दो ही नारे आसमान तक गूंजते थे- ‘राजा नहीं फकीर है, भारत की तकदीर है’ (स्व.वीपी सिंह के लिए) और ‘नाम मुलायम सिंह है, उनका काम बड़ा फौलादी है’(नेताजी के लिए), जिसने ‘कभी न झुकना सीखा, उसका नाम मुलायम’ है.

जैसा रथ लेकर मुलायम सिंह पूर्वी और मध्य उत्तर प्रदेश और चौधरी देवीलाल हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में घूम रहे थे, वो यूपी क्या उत्तर भारत वालों के लिए बिल्कुल नया अऩुभव था. इसके पहले दक्षिण भारत के एनटीआर जैसे नेता ही इस तरह के रथों से प्रचार करते थे. 1989 में जनता पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल औऱ कुछ छोटी पार्टियों ने मिलकर जनता दल बनाया था- इन नारों वाले रथ स्व. राजीव गांधी की हेलिकॉप्टर वाली भीड़ पर भारी पड़ रहे थे. यूपी के नतीजे आए, जनता दल ने सबका सूपड़ा साफ कर दिया. यूपी-उत्तराखंड तब एक ही था और 425 सीटों में से 208 सीटों पर जनता दल जीता.

मुलायम और अजीत सिंह दोनों जबर्दस्त भीड़ खींचते थे- दोनों ऊर्जा से लबरेज. किसान राजनीति का बिल्कुल नया दौर था- तब शायद जाति की  राजनीति यूपी में आज जितना असर नहीं डालती थी- लेकिन यादव और जाट नेता के बैनर तले किसान बहुल यूपी एकजुट हो रहा था. मुलायम सिंह का ठेठ देशी अंदाज और अक्खड़पन तो विदेश से पढ़कर आया एक जाट नेता का बेटा- सेंट्रल यूपी में मुलायम सिंह और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चौधरी अजीत सिंह ने जबर्दस्त मेहनत की थी- पहाड़ पर कांग्रेस की कई परंपरागत सीटें भी छिन गई थीं, जनता दल ने जबर्दस्त जीत दर्ज की थी.

1989 में यूपी में कांग्रेस 94 सीटों पर सिमट गई थी. अब मुख्यमंत्री चुनने की बारी आई तो मुलायम सिंह औऱ अजीत सिंह आमने-सामने आ गए. इस जीत में नेताजी का योगदान था, तो वी पी सिंह, चौधरी देवीलाल और अजीत सिंह का भी. चौधरी अजीत सिंह के समर्थक दम भर रहे थे कि ये जीत चौधरी चरण सिंह के संघर्ष की जीत है- पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी साहब को दुनिया से गए तब दो ही साल हुए थे- सहानुभूति लहर भी थी. उधर नेताजी खुद को चौधरी चरण सिंह का सच्चा उत्तराधिकारी बता रहे थे, किसान राजनीति के मसीहा.

मुलायम समर्थक पार्टी के अंदर और बाहर यही रट लगाए रहे कि आईआईटी खडगपुर और इलिनॉयस से टेक्नोलॉजी की पढ़ाई करने वाले चौधरी अजीत सिंह यूपी नहीं संभाल पाएंगे, यूपी के लिए तो मुलायम सिंह जैसा कोई खांटी नेता चाहिए. मुलायम का शक्तिप्रदर्शन रंग लाया और 1989 में उन्होंने देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश के सीएम की कुर्सी हथिया ली.

वक्त की नजाकत देखिए.. अब मुलायम सिंह उन्हीं अजीत सिंह को अपना सच्चा दोस्त बताते हुए फोन पर अपने सगे बेटे की करतूत पर रोए कि जो ‘अपने बाप का नहीं हुआ, वो बात का क्या होगा’ … नेताजी किस ‘बात’ का जिक्र कर रहे हैं... ये तो वही जानें लेकिन कुश्ती के माहिर मुलायम सिंह धोबीपछाड़ दांव के बारे में बखूबी जानते हैं. जिस अजीत सिंह को उन्होंने 1989 में मुख्यमंत्री बनने से रोका था.. वो कहीं ऐसा दांव न चल दें कि शिवपाल, प्रतीक औऱ अमर सिंह क्या मुलायम सिंह का पूरे जीवन का करा-धरा मिट्टी में मिल जाए. मुलायम सिंह अपने बेटे पर दबाव की स्प्रिंग कहीं इतनी न खींच दें कि वो आरएलडी और कांग्रेस के साथ महागठबंधन बनाने को मजबूर हो जाए.. शायद इसीलिए मुलायम अजीत को समझाने की कोशिश कर रहे होंगे कि ‘जो बाप का नहीं हुआ.. वो बात का क्या होगा’.

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नेताजी के घर का झगड़ा कहां खत्म होगा.. इसका जवाब तो वक्त ही दे सकता है.. लेकिन राजनीति के अनुभवी खिलाड़ी मुलायम सिंह इतिहास से कुछ सीख क्यों नहीं रहे हैं ये आश्चर्य का विषय है. जिस अमर सिंह का साथ न छोड़ने की वो बार-बार दुहाई दे रहे हैं, मुख्तार-अफजाल अंसारी के परिवार को सम्मान से नवाज रहे हैं, वो नेताजी ये क्यों बार-बार भूल जा रहे हैं कि जब अमर सिंह और अंसारी पूरी ताकत से उनके साथ रहे तब भी नेताजी कभी अपनी पार्टी को पूर्ण बहुमत से यूपी की सत्ता में नहीं ला पाए.

2007 में समाजवादी पार्टी महज 96 सीटों पर थी- यूपी के लोगों को अखिलेश के नेतृत्व में ताजगी दिखी और 2012 में समाजवादी पार्टी ने 403 में से 229 सीटें जीतीं. देश के सबसे बड़े सूबे का राजनीतिक परिवार में आज जिस तरह गुत्थमगुत्थी है उसमें ये भूल किसी को नहीं करनी चाहिए कि ये शिवपाल-रामगोपाल या अमर सिंह-अखिलेश या प्रतीक-अखिलेश की लड़ाई है. ये सीधे-सीधे अखिलेश और मुलायम सिंह की लड़ाई है.

आज भी यूपी के लोगों को लगता है कि अपने पिता की वजह से सत्ता के 4 साल में अखिलेश वो नहीं कर पाए जो वो करना चाहते थे या कर सकते थे. चाचा-भतीजे में धक्का-मुक्की, समर्थकों में मारपीट, अमर-मुख्तार को लेकर आरोप-प्रत्यारोप तो वक्त के साथ लोग भूल जाएंगे लेकिन अगर अखिलेश ने कोई बड़ा कदम उठा लिया तो ये मुलायम पर बहुत भारी पड़ेगा.

सत्ता की राजनीति में साफ होता है कि जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी सत्ता में उतनी हिस्सेदारी. आज संख्याबल अखिलेश के साथ है. जो फॉर्मूला 1989 में मुलायम सिंह ने अपनाया आज अगर अखिलेश अपना लें तो उसमें क्या गलत होगा? इतिहास खुद को दोहराता है- क्या ये 25-30 साल में ही दोहरा सकता है- नेताजी को इस बात का एहसास जरूर होगा.

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Note: ये लेखक के निजी विचार हैं, इससे एबीपी न्यूज़ का  कोई संबंध नहीं है.

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