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BLOG: पैसा आजादी देता है और आजाद किस्म की औरतों से आपको डरने की जरूरत नहीं

पैसा औरतों के लिए नहीं है फिर भी औरतें बैंकिग में जा रही हैं. इंटरनेशनल जनरल ऑफ साइंस एंड रिसर्च का पेपर ‘विमेन पार्टिसिपेशन इन इंडियन बैंकिंग सेक्टर- इश्यूज एंड चैलेंजेज’ बताता है कि 2005 से 2014 के बीच शेड्यूल्ड कमर्शियल बैंकों में औरतों की संख्या दोगुनी हुई है.

2011 में जब चंदा कोचर को पद्मभूषण दिया गया था तब किसी ने नहीं सोचा था कि सिर्फ सात सालों में हालत इतने बदल जाएंगे. चार महीने की जद्दोजेहद के बाद आईसीआईसीआई ने अपनी फेवरेट सीआईओ को छुट्टी पर भेज दिया है. उन पर अपनों को फायदा देने का आरोप है. इस साल महिला बैंकरों के लिए परेशानियों का सबब लेकर आया है. अप्रैल में ही एक्सिस बैंक ने अपनी एमडी और सीआईओ शिखा शर्मा के चौथे टेन्योर को कटशॉट कर दिया. उनका कामकाज सवालों के घेरे में है. बैड लोन्स देने, नोटबंदी में बैंक के सीनियर ऑफिसर्स की संदेह भरी भूमिका- ये सभी कोई छोटे आरोप नहीं हैं. इसके बाद ऊषा अनंत सुब्रह्म्ण्यम का नाम आता है. इलाहाबाद बैंक की एमडी और सीआईओ ऊषा का नाम नीरव मोदी कांड से जुड़ा हुआ है. बताया जाता है कि वह तब पीएनबी में थीं, जब नीरव मोदी से धोखाधड़ी वाला लेनदेन किया गया था.

इन कथाओं के साथ यह थ्योरी धराशाई होती है कि जहां औरतें होती हैं- वहां भ्रष्टाचार होने की गुंजाइश कम होती है. भ्रष्टाचार आदमी की नहीं, कैरेक्टर की विशेषता होती है, जो किसी में भी उभर सकती है. खैर, अभी पब्लिकली इन्हें भ्रष्ट नहीं कह सकते क्योंकि बातें अभी प्रूव होनी बाकी हैं. हां, बैंकिंग सेक्टर में औरतों का भविष्य इससे जरूर प्रभावित होता है. यह एक एक सेक्टर है जहां औरतें बड़ी मुश्किलों से अपने कोने संभालती हैं. जिस भी सेक्टर में पैसे की बात होती है, औरतें उससे दूर ही भागती हैं. शेयर मार्केट, इनवेस्टमेंट, इंश्योरेंस, बिजनेस, बैंक सब आदमियों से भरे हुए हैं. औरतों के लिए यहां की गली संकरी है. अब बैंकों की बड़ी पोस्ट्स से औरतों के नाम नदारद हो गए हैं- यह वह दौर है जब देश पहले ही जेंडर डायवर्सिटी से जूझ रहा है. लीडरशिप रोल्स में औरतों के लिहाज से 35 देशों की सूची में भारत की रैंक नीचे से पांचवी है.

पर हम डंडा लिए लकीर पीटे जा रहे हैं कि पैसा औरतों के लिए नहीं है. कैसे संभालेंगी वो इत्ती बड़ी जिम्मेदारी. लो, जिम्मेदारी दी और उन्होंने लीप-पोत-चौका कर दिया. घर पर भी गड़बड़ियां मचाती हैं- यहां भी. औरतों ने सब बिगाड़ कर दिया. पर बिगाड़ की बात से डर कर क्या ईमान की बात नहीं करोगे? नाम न पता हो तो बता दें. तरजानी वकील का. 1996 में वह एक्सिम बैंक में टॉप पर पहुंची थीं. 1969 में भारतीय बैंकों का नेशनलाइजेशन किया गया और उसके 31 साल बाद रंजना कुमार इंडियन बैंक की चेयरपर्सन और मैनेजिंग डायरेक्टर बन गईं. देना बैंक में नुपुर मित्रा पहुंची और बैंक ऑफ इंडिया में विजयलक्ष्मी अय्यर. शुभालक्ष्मी पेंड्से ने इलाहाबाद बैंक की कमान संभाली तो अर्चना भार्गव ने यूनियन बैंक ऑफ इंडिया की. ऊषा थोराट आरबीआई की डेप्यूटी गवर्नर भी रहीं. कुछ नाम और भी हैं. स्टैंडर्ड चार्टर्ड इंडिया की सीईओ जरीन दारूवाला, जेपी मॉर्गन इंडिया की सीईओ कल्पना मोरपरिया, बैंक ऑफ अमेरिका मेरिल लिंच की कंट्री हेड काकू नखाते. तो, स्कैम वाली औरतों के साथ इन औरतों को भी देख लीजिए. पैरों तले की जमीन दरक जाएगी.

पैसा औरतों के लिए नहीं है फिर भी औरतें बैंकिग में जा रही हैं. इंटरनेशनल जनरल ऑफ साइंस एंड रिसर्च का पेपर ‘विमेन पार्टिसिपेशन इन इंडियन बैंकिंग सेक्टर- इश्यूज एंड चैलेंजेज’ बताता है कि 2005 से 2014 के बीच शेड्यूल्ड कमर्शियल बैंकों में औरतों की संख्या दोगुनी हुई है. ये कुल वर्कफोर्स का 22% हैं. और तो और, 2.77 लाख महिला इंप्लॉयीज़ में 1.29 लाख अधिकारी भी हैं. फिर भी टॉप की रेस में कुछ ही औरतें जीतती हैं. चूंकि घर की रेस में हाथ-पैर फूल जाते हैं. इस रेस को आप भी दौड़कर देखिए. आदमी जब घर में टू लेग्ड रेस दौड़ेगा, औरतों के लिए बाहर की रेस ईज़ी हो जाएगी.

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हम फिर कहते हैं, औरतों को पैसा संभालने दीजिए. पैसा आजादी देता है और आजाद किस्म की औरतों से आपको डरने की जरूरत नहीं. मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में ऐसी औरतों का एक ग्रुप अपना बैंक चला रहा है. छोटे-मोटे कारोबार करने वाली औरतों ने यहां अपनी घरेलू बचत से बैंक खोला है. कोई सब्जी बेचती है, कोई किराने की दुकान चलाती है और किसी ने सैनिटरी नैपकिन बनाने की यूनिट खोली है. फिर, बैंक को चलाने वाली ने कॉमर्स-एमबीए की डिग्री नहीं ली है. वह सिर्फ आठवीं पास है- और हिसाब-किताब की पक्की. इस बैंक में 800 खाते हैं और डेली 1 लाख का ट्रांजैक्शन किया जाता है. इसी तरह छत्तीसगढ़ का सखी महिला बैंक. 2003 में इसे 23 गांवों की औरतों ने 5-10 रुपयों की बचत के साथ शुरू किया था. घर में एक मुट्ठी अनाज रोज जमा करती थीं. उसे बेचकर हर महीने जो पैसा आता था, उसे बैंक में जमा कर देती थीं. ऐसे तरीके कैट पास करने वाले नहीं समझ सकते. न ही फाइनांशियल मैनेजमेंट की भारी किताबों में इनकी रटंती कराई जाती है. तो, धीमी ही सही, पर एक सी रफ्तार से यह बैंक अब अच्छा-खासा चल रहा है. इसे दुनिया जहान में जाना जाता है.

बैंकिंग के इन लोकल तरीकों से ही औरतों में फाइनांशियल मजबूती आती है. औरतें पैसों का हिसाब संभालना खूब जानती हैं. इसीलिए बैंकिंग के फॉर्मल सेक्टर में औरतों के नंबर्स खूब बढ़ रहे हैं. हां, चंदा कोचर को गुडबाय कहने का मतलब यह नहीं कि रास्ता बंद हो चुका है. रास्ता खुलेगा क्योंकि औरतें समझ रही हैं कि पैसे की ताकत कितनी है. आज वह अपना सेंटर खोज रही है जिसमें पहले से आदमी बैठा हुआ है. इसलिए सेंटर खोजने की जगह उसे अपना सेंटर खुद बनाना होगा. सेंटर नया बनेगा तो पुराना सेंटर अपने आप धसक जाएगा.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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