सीएम बीरेन सिंह लें मणिपुर हिंसा की जिम्मेदारी, दूसरे राज्यों से तुलना बेमानी, विपक्ष ने भी बहुत देर कर दी

लगभग तीन महीने बीत गए. दिन पर दिन बीत गए. मणिपुर की आग नहीं बुझी. वह जल रहा है. 3 मई से शुरू हुई हिंसा अब तक पूरी तरह शांत नहीं हुई है. मसला चाहे जो भी बनाया गया हो, अब तो बात जातीय हिंसा और धार्मिक दंगों तक पहुंच गयी है. समुदाय विशेष के धार्मिक स्थलों को आग लगाने और महिलाओं पर अत्याचार की तस्वीरें आ रही हैं. पूरा देश शर्मसार है. विदेशी हमारी टोपी उछाल रहे हैं. हंस रहे हैं कि विश्वगुरु बनने की सोचने वालों को देखो तो जरा. सरकार और विपक्ष के बीच संसद में खींचतान जारी है. कुल मिलाकर वार्ता का मार्ग कहीं नहीं दिख रहा है.
सरकार और विपक्ष दोनों हैं जिम्मेदार
लगभग तीन महीने होने को आए और मणिपुर में जो हिंसा है, वह थम नहीं रही है. लोगों पर अत्याचार रुक नहीं रहा है. वैसे तो विपक्ष भी सरकार का ही हिस्सा होता है, अगर संसदीय कार्यवाही को देखें तो. आम तौर पर लोग मानते हैं कि विपक्ष अलग होता है, लेकिन यह सच नहीं है. विपक्ष भी सरकार का ही एक हिस्सा है. वह आम तौर पर वे बातें बताता है, जो सरकार नहीं बता रही होती है. इसीलिए, लीडर ऑफ अपोजिशन को भी कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया जाता है.
विपक्ष सरकार का दुश्मन नहीं होता, राइवल होता है. मणिपुर में सरकार ने जो किया, वह तो अलग बहस की बात है. हां, आज जो विपक्ष अपना डेलिगेशन ले गया है, वह पहले भी ले जा सकता था. आज जो विपक्ष ने किया है, वह पहले भी हो सकता था. संसदीय परंपरा के अनुसार सरकार को उन्हें सारी सुविधाएं देनी पड़तीं और इसीलिए ऐसा लगता है कि कहीं न कहीं विपक्ष से भी इस मामले में चूक हुई है.
सरकार की कमजोरी तो सबके सामने है. टकराहट तो विपक्ष और सरकार की है ही. यह कहना कि 70 दिनों तक वीडियो छिपा रहा, जिसने वीडियोग्राफी की, सीबीआई ने उसको भी अरेस्ट किया है, फोन भी लिया है, ये सब है. यह सब अलग है. हालांकि, मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह का सरकारी दावा तो यह है कि ऐसी सैकड़ों घटनाएं हुई हैं. सरकार तो उनकी ही थी. अगर ऐसी घटनाएं इतनी बड़ी संख्या में हुई हैं, तो फिर दिक्कत तो है ही न.
यह घटना 3-4 मई को हुई और उसी दिन अगर सरकार सख्ती से लग जाती तो इसको कुचलना मुश्किल नहीं था. यह एडमिनिस्ट्रेटिव फेल्योर है. हालांकि, उसके बावजूद कुकी हों या मैतेई हों, उनको हथियार मुहैया कराए जाते हैं और मणिपुर जलता रहता है. मैं तो कह रहा हूं कि यह जो हुआ है, सामाजिक डी-ग्रेडेशन का उदाहरण है और यह समझ के बाहर है कि यही बीरेन सिंह कांग्रेस शासनकाल में भी सीएम थे, तब भी यही समस्या थी, तब भी यही कुकी और मैतेई रहते थे, यह घटना भी अगर देखें तो 10 मार्च से शुरू हुई है. बीरेन सिंह सरकार अगर पहले बैलेंस्ड होकर बात करती थी, तो अब उनको बहुत चीजों को एस्केलेट करने की क्या जरूरत थी?
मुख्यमंत्री को लेनी होगी जवाबदेही
उनका एक संगठन है, 'आरम्बाई तेंगोल'. यह यूं तो एक सांस्कृतिक संगठन है, जिसका उद्देश्य मैतेई संप्रदाय के लोगों की संस्कृति को बचाना और बढ़ाना है. हालांकि, जिस तरह वे हजारों की हुजूम में निकले और बहुत सारे काम हुए, उसमें बीरेन सिंह कैसे नियंत्रण नहीं कर सके, पूरा प्रशासन कैसे असफल हो जाता है, इन पर कोई बात नहीं कर रहा है.
इस मामले में या तो बीरेन सिंह सरकार की पूरी अक्षमता दिखती है या फिर शायद वे इसमें शामिल हों. एक राज्य की तुलना दूसरे राज्य से करना हालांकि ठीक नहीं है. लोगों को बहुतेरी चीजें पता नहीं होती हैं और वे एक नैरेटिव सेट करने के लिए ऐसी बातें कर लेते हैं. गुजरात की जहां तक बात है तो वहां बहुत पॉकेट्स में दंगा हुआ था, पर हरेक जगह नहीं हुआ था. यहां तो पूरे राज्य में ही आग लगी हुई है. मणिपुर का जो वीडियो वायरल हुआ है, उसमें जो तीन महिलाओं की बात हो रही है. वे पूरी घटना के दौरान जंगल में जाकर रह रहे थे. वहां पुलिस भी पहुंचती है, लेकिन उन लोगों को वापस भीड़ को ही सौंप देती है. इसमें मैतेई महिलाओं के संगठन का भी नाम आ रहा है. उस भीड़ ने वापस उन महिलाओं का क्या हाल किया, यह तो पूरी दुनिया जान रही है. जो राइफल्स या बंदूकें जो कथित तौर पर आईकार्ड लेकर, आधार कार्ड लेकर दिया गया है, उसकी तुरंत जांच सीएम ने क्यों नहीं की है?
दूसरे राज्यों से तुलना बेमानी
सरकार का या उसके नुमाइंदों का तुलनात्मक रवैया बिल्कुल गलत है. बिहार या अन्य प्रदेशों में जो घटनाएं घटी हैं, उनमें और मणिपुर की घटना में कोई तारतम्य नहीं है, साम्य नहीं है. मणिपुर में पूरा सिस्टम ही बैठ गया था. उसको हमने समझने की कोशिश नहीं की है. इंटरनेट को बंद करना एक बात है, लेकिन उसके आधार पर तुलना का कोई मतलब नहीं है. ये सवाल तो मीडिया पर भी आता है. पहले तो यह इंटरनेट नहीं था न. पहले तो रिपोर्टर जो थे, वे ऐसी घटनाओं को फील्ड पर जाकर कवर करते थे. मणिपुर की घटना तो मुझे लगता है कि 50 वर्षों की सबसे वीभत्स घटना होगी. उत्तर-पूर्व में जहां तक उग्रवाद की बात भी रही है, तो मिजो हों या नगा उग्रवादी हों, वे सहवासियों को निशाना नहीं बनाते, सिविलियन क्षेत्र पर हमला नहीं करते.
ऊपर से ये जातियां तो खुद ही इतनी विकसित हैं. नगा में जहां तक मुझे पता है, 30 साल में एक रेप की घटना हुई थी. लोगों ने खुद ही उस लड़के को पुलिस को सौंप दिया था और उसके बाद जिस तरह इन पर काम किया गया, वह दिखाता है कि वे कितने विकसित हैं.
मणिपुर के दंगों में मैतेई समुदाय का भी नुकसान हुआ है. ऐसा नहीं है कि एक ही समुदाय का हनन हो रहा है. मैतेई जब मिजोरम गए, मेघालय गए तो उनको वापस वहां से इम्फाल आना पड़ा. तो, इसका असर पूरे उत्तर-पूर्व पर पड़ रहा है.
इस पूरी घटना में प्रशासनिक अक्षमता दिखती है, नौकरशाही की असफलता दिखती है. इसमें जब कुकी दावा कर रहे हैं कि उनके 200 से अधिक चर्च जलाए गए, (नगालैंड पोस्ट के संपादक ज्यॉफ्री इडेन के नेतृत्व में फैक्ट-फाइंडिंग का नतीजा), लोगों के घर जलाए गए, कार्यालय जलाए गए, तो मैतेई के साथ भी ऐसा हुआ है. दोनों तरफ से बराबरी की जो टक्कर हुई है, उसको समझने की जरूरत है.
नैरेटिव तो बहुतेरे हैं, पर सीधी सी बात है कि बहुतेरे परिवार तबाह हुए, जानें गयीं, लोग तबाह हो गए और ऐसे में अगर हम कहें कि राजनीति हो रही है, हम जवाब नहीं देंगे और दूसरे लोग अगर कहें कि तुम केवल जवाब दो, तो यह गड़बड़ बात है. सरकार जितनी जल्दी चीजों को खोलेगी, उतनी जल्दी ही चीजें ठीक होंगी. वहां नयी जिंदगी भी शुरू करनी है, इसके लिए किसी तरह का नैरेटिव बिल्ड करने की जरूरत नहीं है. यह तो ह्यूमन ट्रेजिडी है. संसद हो या बाहर, सरकार संजीदगी से इन सबसे निपटे.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]




























