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बिहार में सियासी भूचाल से उठे बड़े राजनीतिक सवाल

अक्टूबर 2015 के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन की हुई जीत से भी बड़ी जीत है बीजेपी की जुलाई 2017 की जीत.

बिहार में नीतीश कुमार के बीजेपी के साथ जाने पर विपक्ष और खासतौर पर कांग्रेस को धोखा औऱ साजिश का हंगामा खड़ा करने से ज्यादा इससे उठे बड़े सवालों को देखना पड़ेगा. उन सवालों के जवाब के लिए अपने अंदर झांकना औऱ मंथन करना होगा. क्योंकि मौजूदा राजनीति के लिए बिहार में हुआ बदलाव बहुत बड़ा संकेत है. अगर इस संकेत को समझ विपक्ष 2019 के लिए अपनी रणनीति दुरूस्त नहीं करता तो फिर सवाल उसके वजूद का होगा. मोदी से मोर्चा लेने में विपक्ष में नये नैरेटिव की कमी रही. ये विपक्ष की कमजोरी का ही नतीजा है कि विधानसभा चुनाव में नीतीश से हार कर भी मोदी आखिरकार बिहार जीत गए. नीतीश की मौकापरस्ती जिस चेहरे को विपक्ष का सबसे मजबूत चेहरा माना जा रहा था उसने विपक्ष के पोस्टर में फिट होने की बजाय अपनी राजनीति को तरजीह दी. ये नीतीश पहली बार नहीं कर रहे हैं.  नीतीश कुमार ऐसे अचानक फैसले के लिए जाने जाते हैं. उनका फैसला अपनी छवि को बेहतर बनाने औऱ सत्ता पर पकड़ और मजबूत करने के लिए होता है. इसके लिए उन पर मौकापरस्ती का आरोप लगता रहा है. पार्टियों का साथ औऱ मुद्दे भी वो अपनी सियासी सहूलियत से चुनते रहे हैं. नीतीश के संकेत लेकिन सिर्फ नीतीश कुमार को कटघरे में खड़े करने से कुछ नहीं होगा. उन्होंने ने पिछले दिनों ये मुद्दा छेड़ा कि विपक्ष को नए नैरेटिव, नयी सोच औऱ नयी उर्जा के साथ आगे आने की जरूरत है. पुराने घिसे पिटे मुद्दों पर नरेन्द्र मोदी औऱ एनडीए को मात देने की रणनीति को जनता नकार चुकी है. क्या कांग्रेस औऱ राहुल गांधी नीतीश कुमार की इन बातों का मतलब नहीं समझ पाए? नीतीश नोटबंदी, बेनामी संपत्ति जैसे मुद्दों पर मोदी सरकार का समर्थन कर साफ कर दिए थे कि वो महज धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई के नारे पर राजनीति नहीं कर रहे हैं. कांग्रेस औऱ लालू यादव की जवाबदेही साझा रणनीति, नयी सोच औऱ मजबूत चेहरे की कमी से जूझ रहे विपक्ष की हताशा समझ आती है. कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष को ये समझना पड़ेगा जरूरी नहीं बीजेपी के सामने खड़ी हर पार्टी महज धर्मनिरपेक्षता के नाम पर उनके साथ खड़ी रहे. बिहार में यही हुआ. तेजस्वी यादव पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद बिहार के राजनीतिक हालात क्या कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी समझ नही पा रहे थे. लालू यादव औऱ राहुल गांधी दोनों ने कहा कि उन्हें पहले से पता था कि नीतीश कुमार बीजेपी के साथ जा रहे हैं. तो आखिर क्या वजह थी कि ये दोनों चुपचाप इंतजार करते रहे नीतीश कुमार के जाने का! खिचड़ी पकने का इंतजार! सबसे पहले बात कांग्रेस की. राहुल गांधी महज ये बयान देकर अपनी जवाबदेही से नहीं बच सकते कि नीतीश कुमार ने धोखा दिया. राहुल गांधी को ये भी बताना चाहिए था कि इस गठबंधन को बचाने के लिए उन्होंने क्या-क्या कोशिशें कीं? क्या लालू औऱ नीतीश की खटास को खुद मध्यस्थता कर सुलझाने की कोशिश की? राहुल गांधी को ये भी स्पष्ट करना चाहिए था कि भ्रष्टाचार के आरोपों पर उनका क्या रूख है? क्या महगठबंधन चलाने की जिम्मेदारी सिर्फ नीतीश कुमार की थी? राहुल जी खिचड़ी के पूरी तरह पकने का इंतजार क्यों कर रहे थे? राहुल पर सवाल राहुल गांधी अब चाहे जो भी कहें लेकिन वो नीतीश कुमार की राजनीतिक चाल के आगे कमजोर साबित हुए. सच तो ये है कि ना तो वो नीतीश कुमार की इस राजनीतिक दांव को समझ पाए औऱ ना ही उसका कोई जवाब ढूंढ़ पाए. राजनीति का कोई भी मंजा हुआ खिलाड़ी कम से कम ऐसी स्थितियां तो बनाता कि नीतीश नैतिक दुविधा में पड़ते. इस तरह नीतीश कुमार के हाथों पहले शह और फिर एक ही चाल में मात का इंतजार नहीं करता. लालू यादव की जिद इधर गठबंधन टूटने में लालू यादव को अपनी भूमिका स्वीकार करनी होगी. लालू यादव पुत्र औऱ परिवार मोह में ऐसे जकड़े कि उन्हें ये याद नहीं रहा कि जनादेश का चेहरा नीतीश कुमार थे. खुद आरजेडी के समर्थकों की एक बड़ी संख्या ये मानती है कि आरोपों के बाद तेजस्वी यादव को इस्तीफा देना चाहिए था. पिछले सालों में राजनीति का चेहरा जैसे बदला है उसमें कोई भी सजग नेता भ्रष्टाचार पर समझौता करते नहीं दिखना चाहता. लालू को तो ये मालूम था कि जब बात नीतीश कुमार जैसे अपनी छवि को लेकर बेहद सजग नेता की हो तो समझौते की गुंजाईश औऱ कम हो जाती है. लालू की चुनौती अगर लालू यादव ने अपने बेटे से इस्तीफा दिलवाया होता तो नीतीश कुमार गठबंधन से निकलते हुए इतने सहज नहीं होते. लेकिन लालू यादव अपनी पुरानी राजनीति से आगे नहीं बढ़ पाए. वो अपनी वही राजनीति कर हैं जो बिहार में वोटों के समीकरण के उनके गणित में बिल्कुल फिट बैठती है. सत्ता से बाहर, आरोपों में घिरे, जेल जाने के खतरे के बीच लालू यादव की प्राथमिकता इस समय विपक्ष की एकजुटता से ज्यादा बिहार में अपने वोट बेस को एकजुट रख अपने बेटे को स्थापित करने की है. ताकि बिहार की राजनीति में उनकी और उनके परिवार की प्रासंगिकता बनी रहे. बीजेपी के लिए 2015 से ज्यादा अहम है ये जीत तो क्या कांग्रेस और लालू यादव दोनों ये नहीं समझ पाए कि बीजेपी अगर नीतीश कुमार को अपने साथ ले जाने में सफल हो जाती है तो ये उसकी सबसे बड़ी जीत होगी. अक्टूबर 2015 के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन की हुई जीत से भी बड़ी जीत है बीजेपी की जुलाई 2017 की जीत. इसमें सिर्फ बिहार नहीं बल्कि 2019 की रणनीति की जीत नज़र आ रही है. बीजेपी ने एक तीर से कई शिकार किए हैं. ना सिर्फ बिहार में सत्ता में भागीदारी की वापसी की है बल्कि हालिया दिनों में विपक्ष के पोस्टर ब्वॉय बने नीतीश कुमार को भी पोस्टर से उड़ा ले गयी. बिहार की तर्ज पर आगे किसी भी गठबंधन के बनने की संभावना को भी खत्म किया है. विपक्ष की एकजुटता की मुहिम को मजबूत होने से पहले ही सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है. औऱ पिछले दिनों के अपने मुखर विरोधी नीतीश कुमार को साथ लाकर 2019 के लिए एक नई सियासी स्वीकार्यता का समीकरण बनाती दिख रही है. अगर ये सारी बातें समझते हुए भी कांग्रेस ने इतनी सहजता से नीतीश को बीजेपी के साथ जाने दे बिहार को बीजेपी की झोली में डाल दिया तो फिर 2019 में साझा विपक्ष की मुहिम में साथ आने वाली पार्टियों को उसके नेतृत्व में भरोसा कैसे होगा? नोट- उपरोक्त दिए गए विचार और आंकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.
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