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रूस की अध्यक्षता में यूएन सिक्योरिटी काउंसिल की बैठक के बहिष्कार के पीछे अमेरिका की है गहरी रणनीति

रूस ने बुधवार को सुरक्षा परिषद की बैठक बुलाई थी ताकि युद्ध ग्रसित क्षेत्र से बच्चों को सुरक्षित बाहर निकाला जा सके. लेकिन अमेरिका, ब्रिटेन, अल्बानिया, माल्टा व कई अन्य देशों ने इस बैठक का बहिष्कार कर दिया... इनका कहना था कि रूस युद्ध करने वाला अपराधी है. ऐसे में उसकी अध्यक्षता में बैठक करना ठीक नहीं है...ऐसे में सवाल ये है कि इससे यूएन के फ्रेमवर्क पर क्या असर होगा...और ऐसा करके अमेरिका क्या दिखाना चाहता है. इसके पीछे की जो वजह है वो रूस का यूक्रेन के साथ चल रहे युद्ध और विवाद पर जा कर ठहरता है. जिसे लेकर पश्चिमी देश जो हैं वो पूरा वोकल है यूक्रेन के समर्थन में और जिस डेमोक्रेटिक वैल्यूज की जो वेस्ट बात करता है या फिर पीसफुल रेजोल्यूशन की बात करता है उसमें कहीं न कहीं फ्लॉस है. चूंकि यूएन को बनाने का जो उद्देश्य था वो ये कि हमें किसी भी तरह से युद्ध और आक्रमण को रोकना है और यूएन में जिस तरीके से पी-फाइव की जो मनमानी है उस हिसाब से पहले भी बहुत सारे अग्रेशन देखने को मिला है और यूएन जो है उन्हें रोक पाने में फेल रहा. अगर उस तरीके से इसे देखें तो जो पूरा का पूरा रिफ्लेक्शन रसिया-यूक्रेन वॉर का है जिसमें वेस्ट चाहता है कि वो उसमें शामिल नहीं हो कर उसके डिफेंस का दिखावा करने की कोशिश है.
 
यूएन के फ्रेमवर्क पर तो बिल्कुल असर पड़ेगा लेकिन जहां तक उसकी बात करते हैं तो वो एक डिबेटिंग फोरम है. वहां पर मुद्दों की बात होती है. जहां पर सिक्योरिटी थ्रेट को लेकर बहुत इंप्लीकेशन होते हैं उस पर बात करने के लिए सभी को शामिल होना चाहिए था. आप शामलि होते वहां पर अपनी बात रखते उसे लेकर और जहां तक पश्चिमी देशों को देखेंगे तो पाते हैं कि उनके पास तो वीटो पावर भी है. अगर आपके हित की कोई बात नहीं थी तो आप वीटो कर सकते थे. लेकिन आप जिस तरीके से लोकतंत्र की दुहाई देते हैं और वीटो पावर के रहते मीटिंग में नहीं शामिल होना, वार्ता नहीं करना तो मुझे लगता है कि ये कोई वेलकमिंग मूव नहीं है.
 
इसमें बहुत सारी चीजें हैं. रसिया अमेरिका से अपने संबंधों को सामान्य करना चाहता है ये उसकी पहल है. लेकिन जब दो पैरलल पावर होते हैं और जहां पर आपके पास इकोनॉमिक इंटीग्रिटी है और कहीं एक देश में युद्ध चल रहा है तो उससे पूरी दुनिया कहीं न कहीं प्रभावित हो जाती है. उस हिसाब से रसिया का वेलकमिंग मूव है लेकिन जहां तक हम यूरोपीय यूनियन और यूरोप की बात करें और अगर हम रसिया के युद्ध को देखें तो लोग इसे अग्रेशन भी कह रहे हैं तो मैं, इसे आक्रामकता नहीं मानता. चूंकि जब आप सुरक्षा की बात करते हैं, स्ट्रैटेजिक कैलकुलेशन की बात करते हैं तो यूक्रेन को जिस तरीके से यूरोप हार्म कर रहा था और अमेरिका उसका समर्थन कर रहा था. वो प्रत्यक्ष तौर पर रूस के लिए सुरक्षा का खतरा पैदा कर रहा था.
 
रूस को कहीं न कहीं ये संदेश दिया जा रहा था कि उसकी जो रसियन माइनॉरिटी है जिसे की बाद में उसने कनेक्ट कर लिया, और वो कहीं न कहीं उन्हें सुरक्षित कर पाने में कहीं न कहीं फेल हो रहे थे. फिर जिस तरीके से वहां जनोसाइडल टेंडेंसी चल रही थी तो रसिया की वो मजबूरी थी यूक्रेन के साथ और जिस तरीके से पश्चिमी देशों ने इसे आगे बढ़ाया, कोई वार्ता नहीं हुई और कोई गंभीर पहल नहीं की गई इसे रोकने के लिए बल्कि इसे हो जाने दिया..तो इसके पीछे का कारण ये है कि जो यूएस की वेपन इंडस्ट्री है उसका भी एक इंटरेस्ट था जिससे कि जितने भी उनके आउटडेटेड हथियार थे उसका सप्लाई किया गया.

जिस तरीके से अमेरिका के मिलिट्री पर्सनल यूक्रेन में इन्वॉल्व हैं...तो एक तरीके से रूस का जो डिफेंस है वो अमेरिका और वेस्ट को लेकर कम्बाइंड है...तो इसे हम एक पहलू से नहीं देख सकते है कि ये रूस का अग्रेशन है. आप याद कीजिए कि जब क्यूबा में रसिया ने अपने मिसाइल लगाया था उससे अमेरिका को डायरेक्ट रूप से सुरक्षा का खतरा था चूंकि जब आप किसी के आंगन में जाकर किसी को क्षति पहुंचाएंगे तो उस पर सिक्योरिटी थ्रेट नहीं हो सकता है क्या? तो ये डबल स्टैंडर्ड वाली पॉलिसी है. जब अमेरिका ने 2003 में इराक के ऊपर अग्रेशन किया तो वो तो आपने यूएन सिक्योरिटी काउंसिल के रेजोल्यूशन के बिल्कुल भी खिलाफ जाकर किया गया था...तो ये जो डेमोक्रेटिक वैल्यू की, मोरालिटी की बात करते हैं तो वो सब एक छलावा है. यहां पर जो मेन मुद्दा है वो ये कि किसी तरह से यूरोप को फिर से इंटिग्रेट करके अमेरिका को लीडरशिप लेना था क्योंकि ट्रम्प के शासनकाल में यह पूरी तरह से बिखर गया था...तो मेरा मानना है कि रसिया को अकेला इसके लिए बदनाम नहीं किया जा सकता है.

यूरोपीय देशों को अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए रसिया पर निर्भर रहना पड़ेगा. ये सही है कि ओपिनियन हर देश का महत्वपूर्ण होता है. लेकिन बात ये है कि अल्बानिया, माल्टा आदि देशों के विरोध करने से क्या फर्क पड़ जाएगा. जब हम वॉर की बात करें और इससे पहले भी युद्ध हुए हैं. देखिये नाटो तो सुरक्षा प्रदान करने के लिए बना था लेकिन वो परे तरीके से अफगानिस्तान में घुसा, लीबिया में हस्तक्षेप किया तो जब ये अफगानिस्तान में घुसे तो क्या वहां पर निर्दोष बच्चों और महिलाओं की किलिंग हुई. ह्यूमन राइट्स का वायलेशन तो वहां पर भी हुआ और जो देश ह्यूमन राइट्स की आज बात कर रहे हैं तो क्या उन्होंने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम नहीं गिराया.
 
इस स्तर पर आकर ये सब बातें करना..तो यही कहा जा सकता है कि गुनहगार जो है वो परोपकार का पाठ पढ़ा रहा है...तो अमेरिका का ये सारा स्ट्रैटेजिक कैल्कुलेशन है कि यूरोप को किस तरीके से अपनी गिरफ्त में लाना है और वो उसमें सफल भी हुआ है और जो देश रूस के मीटिंग का विरोध कर रहे हैं तो इनका अपना सुरक्षा का कोई आर्किटेक्चर है ही नहीं इसलिए ये नाटो से जुड़ रहे हैं ताकि किसी तरह से अपनी सुरक्षा और अखंडता को सुरक्षित किया जाए.
 
[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]
 
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