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BLOG: कोरोना को लेकर अब कहां खड़े हैं भारत-अमेरिका

करीब 60 दिनों के बाद अब अमेरिका किसी लंगड़े आदमी की तरह लड़खड़ात हुआ लाठी के सहारे खड़े होने की कोशिश में है. पिछले तीन हफ्तों में कई राज्यों में इकनॉमी को खोलने के लिए हुए प्रदर्शनों को ट्रंप ने समर्थन दिया है.

अमेरिका और भारत में कोरोना को आए अब 60 दिन से अधिक समय हो चुका है. अमेरिका में जहां 97 हजार से अधिक लोग मर चुके हैं वहीं भारत में मरने वालों की संख्या अभी भी कम है. लेकिन इन 60 दिनों में दोनों देशों में इस बीमारी को कैसे देखा जा सकता है.

कोरोना काल पहला चैप्टर- तैयारी और पूर्व सूचना 12 मार्च की शाम लाइब्रेरी से घर लौटते हुए ईमेल आया कि यूनिवर्सिटी के सभी छात्र अपने अपने घर लौट जाएं क्योंकि पांच दिन में यूनिवर्सिटी के सारे हॉस्टल बंद कर दिए जाएंगे. ये अमेरिका के मेरे छोटे से शहर में कोरोना-काल की शुरूआत थी जिसके बारे में तब तक कोई भी गंभीरता से बात नहीं कर रहा था. अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप कुछ दिन पहले ही इसे डेमोक्रेट पार्टी का होक्स करार दे चुके थे. अब वो बैकफुट पर थे. न्यूयॉर्क में प्रभावित लोगों का ग्राफ बढ़ रहा था.

शाम को टहलते हुए भारतीय रेस्तरां के मालिक से मिला तो उन्होंने कहा, “घर में चावल दाल जमा कर लीजिए. दिक्कत हो तो मैं ले चलता हूं. सब बंद होगा 8-9 हफ्ते तक.” मैंने उनकी बात को गंभीरता से लिया. छठे दिन पूरे शहर की दुकानें, म्यूज़ियम, पब और सिनेमाहॉल बंद थे. रेस्तरां खुले थे टेक अवे के लिए. सार्वजनिक परिवहन यानी बस, ट्रेनें और एरोप्लेन यातायात चलते रहे और अभी भी चल रहे हैं. वो कभी बंद नहीं हुए. ग्रोसरी की दुकानें और मेडिकल दुकानें भी एक दिन के लिए भी बंद नहीं हुईं.

भारत में अंतरराष्ट्रीय ट्रैवल पर रोक की घोषणा कुछ दिनों बाद हो गई. इस घोषणा के कारण मैंने दो साल के बाद पहली बार अमेरिका और भारत की खबरें छाननी शुरू की. एक हफ्ते तक भारत से कोरोना के हल्के फुल्के नंबर आ रहे थे. किसी बड़ी घोषणा की संभावना थी. स्पष्टता कुछ नहीं दिखी और फिर लॉकडाउन की घोषणा हो गई. एक दिन अचानक. चार घंटे में सबकुछ बंद. कोई स्पष्टता नहीं. कुछ खुला रहेगा या नहीं. विशुद्ध अराजकता. और फिर मज़दूरों के पलायन की अंतहीन गाथा जो अब लगभग दो महीने के बाद भी जारी है.

अमेरिका में अब तक 97 हजार लोग मर चुके हैं लेकिन भारत वाली अराजकता कभी नहीं हुई. लोग भूखे यहां भी हैं लेकिन पलायन नहीं हुआ जिसके कई कारण थे. अमेरिका में मार्च के अंत तक ही सरकार ने हर उस व्यक्ति को 1200 डॉलर का चेक भेज दिया जिसकी सालाना आय 90 हजार डॉलर से कम थी. जो बेरोजगारी की लिस्ट में थे उन्हें ज्यादा रकम मिली. जो अवैध रूप से रह रहे थे दिक्कत उनकी थी. खाने पीने की और आमदनी की. उनकी मदद के लिए चैरिटी संगठन आगे आ गए.

कोरोना काल चैप्टर दो- तनाव, विषाद और अनिद्रा अप्रैल की शुरूआत होते होते भारत से आने वाली खबरें विचलित कर रही थीं और अमेरिका में भी ऐसी खबरों की अधिकता होने लगी थी जिससे लगता था कि अब ये पृथ्वी नहीं बचेगी.

सबकुछ भयावह. न्यूयॉर्क में जहां 20 हजार से अधिक लोग मर चुके थे वहीं भारत में लोगों का हजूम बड़े शहरों से निकल कर गांव की ओर चलने लगा था. हम शाम को घर से बाहर निकलते तो आसपास के कुछ लोग मैदान पर कुत्ते घुमा रहे होते. मेरा बच्चा एक कुत्ते के साथ खेलता है जिसका नाम है वाल्टर. वाल्टर की मालकिन को हम वाल्टर की मम्मी कह कर ही बुलाते हैं. मैंने उन्हें देखा एक दिन टिफिन लेकर जाते हुए ग्रोसरी स्टोर की तरफ.

लौटीं तो उन्होंने कहा- मेरी बेटी ग्रोसरी स्टोर में काम करती है. वो पिछले 15 दिन से घर नहीं आई है. मैं 60 साल से ऊपर हूं और मुझे एक किस्म की मेडिकल प्रॉब्लम है जिससे मेरे इंफेक्शन के चांसेस अधिक हैं इसलिए बेटी घर नहीं आती है. ग्रोसरी स्टोर में बहुत लोग आते हैं तो उसे डर है कि वो इंफेक्ट हुई तो मैं भी इंफेक्ट हो जाऊंगी.

मैंने उन्हें बताया कि भारत में हजारों लोग पैदल अपने घरों को जा रहे हैं और मैं भी बहुत निराश हूं. मैं भी वापस भारत जाना चाहता हूं लेकिन विमान सेवाएं बंद हैं. वो मुस्कुराते हुए बोलीं कि कोई दिक्कत हो तो झिझकना मत. दूसरे दिन वो हमारे लिए अपने घर से केक बनाकर लेकर आईं.

वो केक खाते हुए मैं उन तमाम मजदूरों की तस्वीरें देखता रहा जो मुंबई और दिल्ली से अपने घरों को लौट रहे थे. पत्रकारों से वो किसी की शिकायत नहीं कर रहे थे. किसी सरकार की नहीं. बहुत सारे मजदूरों की आवाज सुनने के बाद एक बात जेहन में रह गई मेरे- अब हम लोगों को किसी तरह घर पहुंचना है. ये घर पहुंचने की यात्रा थी और ये घर पहुंचना क्या था. क्या ये अंतिम यात्रा थी. या ये डर था कि शहर में वो मरे तो कोई लाश को कहीं फेंक देगा.

ऐसा सोचते हुए कई दिनों तक नींद नहीं आई. जब नींद नहीं आती तो मैं अक्सर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की प्रेस ब्रीफिंग देखने लगता. घंटे कभी-कभी डेढ़ घंटे की ब्रीफिंग जो हर दिन हो रही थी. हर दिन उनसे सवाल पूछे जा रहे थे. कड़े, अटपटे और कई बार झड़प हो रही थी प्रेस कांफ्रेंस में ही. मेरे मन में कभी ये ख्याल नहीं आया कि भारत के सर्वोच्च नेता क्यों नहीं प्रेस कांफ्रेंस करते हैं. हमें सुप्रीम लीडर से सवाल न पूछने की आदत हो चुकी थी. ऐसा मुझे महसूस हुआ.

कोरोना काल तीसरा चैप्टर- मास्क, दूरियां, आरोप, प्रत्यारोप, राजनीति ऐसा होता है कि बहुत सारी खराब खबरें पढ़ ले आदमी तो तनाव हो जाता है. धीरे-धीरे तनाव न्यू नॉर्मल हो जाता है जैसे कि मास्क पहनना, हाथ धोना, लोगों से छह फीट की दूरी पर खड़े होना जीवन का सामान्य हिस्सा हो चुका था. बसें, ट्रेनें, कारें सब चल रही थीं. ग्रोसरी स्टोर भी. अंडा और दूध लिमिटेड कर दिया गया था शहर में.

भारत में लोगों को खाने की किल्लत हो रही थी. लगातार लोगों के संदेश आ रहे थे कि हालात बहुत खराब है. कई मित्र पैसों से और शरीर से गरीबों की मदद कर रहे थे. मैंने अपने बूढ़े मां-बाप को फोन किया. बिहार के गांव में तो पता चला कि राशन की दिक्कत नहीं है गांव में.

लेकिन शहरों में दिक्कत थी. सब्जियों की. दूध की और पैसे की. जिसके अभाव में लोग घर छोड़कर जा रहे थे. मेरे एक मित्र के पिताजी सुलभ इंटरनेशनल में काम करते हैं. उनसे बात ही तो वो बोले कि मैं सोच रहा हूं मुरादाबाद से पैदल दिल्ली चला जाऊं बेटे के पास. हम सबने मना किया तो वो बोले कि उनके आसपास सैकड़ों मजदूर हैं जिनका राशन खत्म है. किराए और गैस के पैसे नहीं हैं. मकान मालिक उन्हें घरों से निकाल तो नहीं रहे लेकिन किराया माफ नहीं हो रहा है यानी कर्ज बढ़ रहा है इसलिए लोग गांव जा रहे हैं. वहां राशन मिल जाएगा.

मैं इन बातों को सुनता रहता. मेरे शहर में कई चर्चों ने अपने नंबरों पर लोगों से मैसेज करने को कहा था कि अगर उन्हें किसी चीज की जरूरत हो तो वो मैसेज कर सकते हैं. संदेश भेजने पर चर्च के लोग खाने पीने का सामान घर के बाहर रख कर जा रहे थे. यूनिवर्सिटी अपने पूर्व छात्रों से पैसे इकट्ठा करके जरूरतमंद छात्रों की मदद कर रहा था.

कोरोना काल चैप्टर चार- गरीबी, काला-गोरा भेदभाव अप्रैल के अंत तक आते-आते वैक्सीन, हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन और अमेरिका का डब्ल्यूएचओ से बाहर निकलने की खबरों के बीच जो सबसे दुखद खबर आई वो ये कि काले लोगों में कोरोना के संक्रमण और उससे मरने का खतरा गोरे लोगों से अधिक है. ये बात व्हाइट हाउस की ब्रीफिंग में ही कही गई.

कारण जाहिर थे. गरीबी काले लोगों में है. वो छोटे घरों में रहते हैं और शारीरिक श्रम से जुड़े जितने काम हो रहे थे वो सब काले लोग करते हैं मसलन ट्रेन, बस के डार्इवर, ग्रोसरी स्टोर या फिर ऑनलाइन शॉपिंग के गोदामों का काम. गरीबी यानी मेडिकल इंश्योरेंस की कमी और इलाज में आने वाला खर्च न उठा पाने की परेशानी काले लोगों को मार रही थी.

सरकार ने स्वीकार किया था ऐसा हो रहा है. ठीक करने का कोई उपाय नहीं बताया गया. अमेरिका गरीबों के बारे में नहीं सोचता. मेरे मन में सबसे पहले यही ख्याल आया. ये देश अमीरों का अमीरों के लिए अमीरों द्वारा बनाया गया देश है. मैं गुस्से में ये बड़बड़ा रहा था लेकिन ऐसा करते हुए भारत के गरीबों का चेहरा घूम गया.

मुझे लगा कि भारत और अमेरिका में कोई अंतर नहीं है. गरीब दोनों जगह मारे जा रहे हैं या मारे जाएंगे. कोरोना काल में भारत में धर्म के आधार पर भले ही भेदभाव की खबर आई हो लेकिन कम से कम जाति के आधार पर भेदभाव तो नहीं दिखा क्योंकि ये तय था कि पलायन करने वाले किसी एक जाति के नहीं हैं. या शायद उनकी एक जाति थी- गरीबी. और उनका एक सपना था- अपनी जमीन पर मरना.

कोरोना काल चैप्टर पांच- उम्मीद, रिओपनिंग, राजनीति करीब 60-70 दिनों के बाद अब अमेरिका किसी लंगड़े आदमी की तरह लड़खड़ात हुआ लाठी के सहारे खड़े होने की कोशिश में है. पिछले तीन हफ्तों में कई राज्यों में इकनॉमी को खोलने के लिए हुए प्रदर्शनों को ट्रंप ने समर्थन दिया है.

जानकार कहते हैं कि ट्रंप गलत कर रहे हैं लेकिन दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश का राष्ट्रपति गलती कर रहा हो तो उसे कौन मना कर सकता है. उनके गले में घंटी बांधने की हिम्मत किसी में नहीं है. क्योंकि भारत की तरह राजनीति अमेरिका में भी है. अगर इकनॉमी ओपन नहीं होगी तो बेरोजगारी बढ़ेगी और ऐसा हुआ तो अक्टूबर में होने वाले चुनावों में ट्रंप को नुकसान होगा. दो प्लस दो चार की राजनीति.

लेकिन भारत में चुनाव दूर हैं. कम से कम चार साल तक चुनाव नहीं होने वाले शायद इसलिए ही इकनॉमी को रिओपन करने, गरीबों की मदद करने या उन्हें अपने घर पहुंचाने जैसे सवाल गैर राजनीतिक हो चुके हैं. वैसे भी मजदूर मतदान के समय मुंबई रहता है या बिहार ये कौन तय करेगा. और वैसे भी मजदूर को वोट देकर करना क्या है. वोट तो मिडिल क्लास देता है जो रामायण देखकर बता रहा है कि मजदूर गलत कर रहे हैं.

ऐसे में भारत में राजनीति ठीक ही हो रही है. मजदूरों के लिए आधे मन से किए गए उपाय इसी का उदाहरण हैं और साथ में ये लचर तर्क कि भारत में बहुत लोग हैं. लेकिन कोई ये नहीं पूछता ऐसे तर्क देने वालों से कि अगर मजदूर बहुत सारे लोग हैं तो क्या बहुत सारे लोग मर जाएं.

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.
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