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'सबक सिखाने' के लिए गोलियों से भून दिए गए थे 100 मुसलमान; मलियाना हिंसा में पी चिदंबरम का क्यों आता है नाम?

लखविंदर सिंह सूद की अदालत ने मलियाना नरसंहार के 39 आरोपियों को सबूत के अभाव में रिहा कर दिया. मलियाना केस में तत्कालीन गृह राज्य मंत्री पी चिदंबरम की भूमिका पर सवाल उठा था.

44 दिन बाद मेरठ के हाशिमपुरा और मलियाना नरसंहार के 36 साल पूरे हो जाएंगे, लेकिन इस नरसंहार का जख्म अब भी सूखा नहीं है. निचली अदालत के हालिया फैसले ने घाव को और गहरा कर दिया है. कोर्ट ने मलियाना के 39 आरोपियों को बरी कर दिया है.

मेरठ के एडिशनल जूडिशल मजिस्ट्रेट-6 लखविंदर सिंह सूद की अदालत ने मलियाना नरसंहार के 39 आरोपियों को सबूत के अभाव में रिहा कर दिया है. इस नरसंहार में 79 लोगों के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल किए गए थे. इनमें 22 आरोपियों की मौत हो चुकी है, जबकि अन्य आरोपी फरार अब तक फरार हैं.

कोर्ट के फैसले पर पीड़ित पक्ष ने सवाल उठाया है और कहा है कि नरसंहार का ये धुंआ अदालत को नहीं दिखा है. फैसले के खिलाफ पीड़ित परिवार ऊपरी अदालत में अपील करने की तैयारी में है. 

यूपी के पूर्व डीजीपी और हिंसा के बाद जांच में अहम भूमिका निभाने वाले रिटायर पुलिस अधिकारी विभूति नारायण राय ने इसे सरकार का फेल्योर बताया है. राय ने कहा कि पुलिस और प्रशासन की ढीला-ढाला रवैया की वजह से यह सब हुआ है. 

कहानी मलियाना नरसंहार की...
साल था 1987 और महीना अप्रैल का. मेरठ में शब-ए-बारात को लेकर दंगा भड़क गया. शहर में दो समुदायों के बीच तनाव पहले से था. कई लोग इस तनाव को तत्कालीन बाबरी मस्जिद और राम मंदिर विवाद से भी जोड़ते हैं. 

मेरठ में हिंसा भड़कने के बाद केंद्र सरकार ने आनन-फानन में वहां पुलिस, सेना और पीएसी को तैनात किया. अर्द्धसैनिक बलों ने कुछ दिन तक सिचुएशन कंट्रोल किया, लेकिन इलाके में बार-बार हिंसा भड़क जा रही थी.

22 मई 1987 को पुलिस और पीएसी की 2 टुकड़ी ने करीब 150 मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार कर लिया. आरोप के मुताबिक हाशिमपुरा से गिरफ्तार मुस्लिम युवकों को गाजियाबाद के पास हत्या कर हिंडन नहर में फेंक दिया गया. एफआईआर के मुताबिक इस कस्टोडियल डेथ में 42 लोगों की मौत हो गई.

अगले दिन मलियाना में हिंसा भड़का और वहां पर मुसलमानों के 106 घर फूंक दिए गए. घटना के बाद आरोप लगा कि पीएसी के जवानों ने उपद्रवियों के साथ मिलकर 68 लोगों को गोलियों से भून दिया. मालियाना नरसंहार के बाद दिल्ली से लखनऊ तक हड़कंप मच गया.

गाजियाबाद के तत्कालीन पुलिस कप्तान विभूति नारायण राय अपने संस्मरण में लिखते हैं- मैं और गाजियाबाद के तत्कालीन कलेक्टर नसीम जैदी हापुड़ से लौट रहे थे. जैदी को कलेक्टर हाउस उतारकर जैसे ही मैं आगे बढ़ा तो मुझे लिंक रोड के थाना प्रभारी वीवी सिंह दिखे. उनके चेहरे की रंगत उस वक्त उड़ी हुई थी. मैंने गाड़ी रोका और कारण जाना तो खुद सकते में आ गया.

सिंह ने मुझे बताया कि उसके थाना क्षेत्र के मकनपुर में पीएसी के जवानों ने कुछ मुसलमानों को गोली मार दिया है और नहर में छोड़ दिया है. तहकीकात करने गए सिंह पर भी अज्ञात लोगों ने ट्रक चढ़ाने की कोशिश की. राय आगे लिखते हैं- घटना की जानकारी मिलने के बाद डीएम और अन्य पुलिस अधिकारियों के साथ मैं मौके पर पहुंचा.

तलाशी अभियान के दौरान वहां एकमात्र जिंदा व्यक्ति बाबूदीन मुझे मिले. शुरुआती हेल्थ चेकअप के बाद हमने उनसे पूछताछ शुरू की तो पीएसी जवानों का करतूत सामने आया. बाबूदीन ने बताया कि सभी गिरफ्तार लोगों की हत्या पीएसी के जवानों ने की और नहर में फेंक दिया.

राय ने लिंक रोड थाने में इस घटना का मुकदमा दर्ज कर दिया. बाद में उनकी टीम की ओर से की गई जांच कोर्ट में सच साबित हुआ और 2018 में दिल्ली हाईकोर्ट ने 16 जवानों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई.

छिटपुट हिंसा नरसंहार में कैसे बदला, 2 प्वॉइंट्स...

  • 18 अप्रैल, 1987 को नौचंदी मेले के दौरान एक स्थानीय सब-इंस्पेक्टर पटाखे की चपेट में आ गया. इसके बाद वहां हिंसा भड़क गई जिस पर उसने गोली चला दी. इसमें दो मुसलमान मारे गए. अफवाह फैलने के बाद इलाके में कर्फ्यू लगाया गया. 
  • सरकार ने लगातार तनाव को देखते हुए पुलिस की तैनाती की. लोगों ने कई इलाकों में इसका विरोध किया, जिसके बाद पीएसी की तैनाती हुई. पीएसी ने शांति बनाए रखने के लिए लोगों को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया. इसी दौरान हाशिमपुरा और मलियाना का नरसंहार हुआ.

करीब 1000 तारीख, नहीं मिला सबूत
मलियाना नरसंहार का केस करीब 36 साल तक चला. 1988 में इस मामले में न्यायिक आयोग की रिपोर्ट सौंपी गई थी. इसके बाद चार्जशीट दाखिल करते हुए कोर्ट में केस फाइल किया गया था. 

टाइम्स ऑफ इंडिया ने साल 2018 में हाशिमपुरा पर फैसला आने के बाद मलियाना को लेकर एक रिपोर्ट की थी. रिपोर्ट के मुताबिक साल 2018 तक इस मामले में कोर्ट में 900 तारीख हो चुका था.

पीड़ित परिवार ने आरोप लगाया था कि केस लंबा खिंचने की वजह से कई पक्के सबूत नष्ट हो गए. शुरू में ही इस मामले में दस्तावेजीकरण पर ध्यान नहीं दिया गया. कोर्ट में अपने फैसले में भी सबूत का अभाव ही माना है.

मलियाना में न्याय क्यों अटका?

मलियाना केस में निचली अदालत का फैसला आने के बाद सभी ओर एक ही सवाल उठ रहा है कि इतने बड़े नरसंहार के बावजूद पुलिस दोषियों को सजा क्यों नहीं दिलवा पाई. आखिर चूक कहां हुई? 

1. एफआईआर लिखने में गलती- आरोपियों के वकील छोटेलाल ने एक स्थानीय अखबार को बताया कि सबसे बड़ा झोल पुलिस की एफआईआर में था. घटना के बाद राजनीतिक दबाव की वजह से पुलिस ने कई ऐसे लोगों को आरोपी बना दिया, जो 10 साल पहले मर चुके थे. 

छोटेलाल के मुताबिक तत्कालीन थाना प्रभारी ने वोटर लिस्ट देखकर एफआईआर लिख दिया था. इस मामले में निष्पक्ष जांच किए बिना चार्जशीट भी फाइल कर दिया. जो बाद में कोरा साबित हुआ. 

2. जांच में देरी से सबूत मिटा- मलियाना की घटना साल 1987 में हुई और सरकार ने 1988 में न्यायिक आयोग का गठन किया. इतना ही नहीं, उस वक्त इलाके की सुरक्षा पीएसी को ही दी गई थी, जिससे गवाह भी प्रभावित हुए.

कर्फ्यू की वजह से लोग घरों से बाहर नहीं निकल पाए, जिससे पक्का दस्तावेजीकरण नहीं हो पाया. कोर्ट में इसी वजह से इस नरसंहार के सभी आरोपी बरी हो गए. जो सबूत पुलिस की ओर से पेश किए गए, वो अप्रायप्त थे.

3. न्यायिक आयोग की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं- सरकार ने मामले की जांच के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त जस्टिस जीएल श्रीवास्तव की अध्यक्षता में न्यायिक आयोग का गठन किया था. यह आयोग एक साल के भीतर अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी, लेकिन सरकार ने इस रिपोर्ट पर कोई एक्शन नहीं लिया. 

रिपोर्ट सार्वजनिक तो नहीं किया गया, लेकिन मीडिया में इसका कुछ अंश जरूर छपा, जिसमें पीएसी जवानों की भूमिका पर सवाल उठाए गए थे. 

सरकार ने न्यायिक आयोग की रिपोर्ट पर कोई एक्शन नहीं लिया और न ही उसे आधार बनाकर दोषियों को सजा दिलवाई. पिछले 36 सालों में केंद्र से लेकर लखनऊ तक कई सरकारें बदल गईं.

4. कोर्ट में गवाह मुकरे, केस गिरा- आरोपियों के वकील छोटेलाल बंसल ने मीडिया को बताया कि जो गवाह पीड़ितों की ओर से पेश किया गया, उसमें अधिकांश कोर्ट में मुकर गए. पीड़ितों के वकील ने कोर्ट में कहा कि पुलिसिया दबाव में उनसे बयान लिया गया था.

वहीं कई गवाह कोर्ट में पेश हुए, लेकिन उनके बयानों में विरोधाभास था. कोर्ट ने गवाहों पर विश्वास न करते हुए सभी को बरी कर दिया.

जिस पर आरोप लगा, कांग्रेस ने उसे प्रमोट कर दिया
मलियाना नरसंहार के समय भारत के गृह राज्य मंत्री थे पी चिदंबरम. नरसंहार मामले में वरिष्ठ वकील सुब्रमण्यम स्वामी ने चिदंबरम को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया था. मलियाना में हिंसा से पहले मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के साथ चिदंबरम वहां पर सुरक्षा का मुआयना करने पहुंचे थे. 

स्वामी ने आरोप लगाते हुए कहा था कि मुसलमानों को सबक सिखाने के लिए चिदंबरम ने यह आदेश दिया था. हालांकि, कांग्रेस ने उस वक्त चिदंबरम पर कोई एक्शन नहीं लिया.  2006 में भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को स्वामी ने एक पत्र भी लिखा था. 

उन्होंने चिदंबरम पर कार्रवाई न करने पर इंटरनेशनल कोर्ट में मामले को ले जाने की चेतावनी दी थी. स्वामी ने हाशिमपुरा मामले में दिल्ली हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में पैरवी की थी. 2008 में कांग्रेस की सरकार ने पी चिदंबरम को भारत का गृहमंत्री बना दिया. 

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