बाघ, एक रात: क्या यह तेज़ दस्तक मेरी कल्पना है...?
मेरे फ्लोर पर तीन फ्लैट हैं. बाकी दो में कौन रहता है, मुझे पता नहीं! शायद उन्हें भी मेरा पता न हो! फिर कौन...? आधी रात के अंधेरे में...जबकि बाघ बाहर घात लगाए है...मैं कैसे निकल सकता हूं?

बाघ, एक रात
रवि बुले

दुनिया के तमाम इंतजार उबाऊ, उदास और निराश करने वाले नकारात्मक लगते हैं लेकिन बिजली की प्रतीक्षा करना मुझे सकारात्मक लगता है. उसके आने के खयाल में जैसे सदियों की जानी-पहचानी राहत और अनजानी खुशी होती है. ऐसी ही उम्मीद से भरे पल को थामे मैं खिड़की से टिक कर बैठा था. दूर तक पसरे अंधेरे आसमान को देखता. कुछ तारे यहां-वहां छिटके थे. सन्नाटा हवा की सर-सर से टूट रहा था. दूसरे कमरे में चले गए बाघ की कोई आहट नहीं थी. वह ज़रूर घात लगाए हुए बैठा होगा!
इस डर में मैं कैसे सो सकता था?
...और तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई! तेज़ दस्तक!!
आपको शायद लगे कि इस बात से मैं और घबरा सकता हूं. परंतु नहीं, मैंने टीवी के लिए ऐसे कई काल्पनिक और सच्ची घटनाओं पर आधारित हॉरर शो लिखे हैं, जहां डर पैदा करने के लिए दरवाज़े पर तेज़ दस्तक वाले दृश्य ऐन मौके खोज कर खास तौर पर रचे जाते हैं. ये बातें मुझे नहीं डरातीं क्योंकि मुझे पता है कि जल्द ही अब डर का रहस्य खुल जाने वाला है. जाहिर है कि रहस्य खुलते ही डर हवा हो जाता है.
धम् धम् धम्...
क्या यह तेज़ दस्तक मेरी कल्पना है...? बाहर घात लगाए बैठे बाघ को भुलाने की?
हो सकता है. लेकिन बार-बार की तेज़ दस्तक से साफ है कि कोई दरवाज़े पर सचमुच हथेलियों से प्रहार कर रहा है. मैं बिस्तर से दस्तक तक पहुंचने का हिसाब जोड़ने लगा. बैडरूम से निकल कर दस कदम का गलियारा. उसके बाद ड्रॉइंग रूम. वह खत्म होने पर पांच कदम और. फिर दरवाज़ा. दस्तक जारी थी. मेरे फ्लोर पर तीन फ्लैट हैं. बाकी दो में कौन रहता है, मुझे पता नहीं! शायद उन्हें भी मेरा पता न हो! फिर कौन...? आधी रात के अंधेरे में...जबकि बाघ बाहर घात लगाए है...मैं कैसे निकल सकता हूं?
लेकिन दस्तक बंद होने का नाम नहीं ले रही थी. उसमें एक पुकार थी. आखिरकार मुझे साहस जुटना पड़ा. आप हंसेंगे कि एक से दूसरे दरवाज़े के बीच दीवार को धीरे-धीरे टटोल कर बढ़ते हुए मैंने आंखें मूंद रखी थीं कि बाघ दिख न जाए! सोफे के नीचे या कुर्सी पर बैठे. लेकिन मुझे पता था कि वह दरवाज़े पर नहीं हो सकता...क्योंकि दस्तक को बर्दाश्त कर पाना उसके लिए संभव नहीं. वह सन्नाटे में रहने का आदी है और उसे सिर्फ कच्चे मांस को चीरे और चबाए जाने से पैदा होने वाली ध्वनि ही पसंद है...सो, दस्तक से थरथराता दरवाज़ा उससे सुरक्षित था.
एक बार फिर जैसे ही दस्तक हुई मैंने दरवाज़ा खोल दिया...‘कौन?’
‘प्लीज...क्या आप मुझे अंदर आने देंगे?’ एक औरत की सहमी हुई आवाज़ थी. मैं चौंका ज़रूर लेकिन दरवाज़े से हट गया. वह साए-सी भीतर आकर सोफे पर बैठ गई. घुटने मोड़कर सीने से चिपका लिए. अपना सिर उसने घुटनों पर रख लिया. वह डरी हुई थी. उसका चेहरा नहीं दिख रहा था और खिड़की से आ रही हल्की रोशनी में विशेष अनुमान लगाना संभव नहीं था. उसके बाल खुले थे. वह शायद कंपकंपा रही थी. मैं देखता रहा. दरवाज़ा बंद करके मैं जहां का तहां खड़ा था. पता नहीं किस बात के इंतजार में. शायद इसके कि वह सिर उठाए और कुछ कहे. लेकिन वह तो बुत में बदल गई! मेरे पास चुपचाप सोफे पर बैठने के अलावा रास्ता नहीं था.
उसके अचानक इस तरह आने से मैं कुछ पल को भूल गया कि बिजली नहीं है! मेरा पूरा ध्यान उस पर केंद्रित हो गया. कहीं कोई हादसा तो नहीं गुजरा...?
‘आप ठीक तो हैं...’ मैंने धीमी आवाज़ में कहा.
‘हूं...’ उसकी आवाज़ आई. मैंने राहत महसूस की. सोचा पानी के लिए पूछूं...पर बाघ किचन में हुआ तो?
चुप रहना ही सही था. मैं बिजली का इंतजार छोड़ कर प्रतीक्षा करने लगा कि वह कुछ कहे. आवाज़ आई, ‘पानी मिलेगा...ठंडा?’
उसने मुझे डर की तरफ धकेल दिया. मैंने पूरी ताकत से डर पर काबू पाया और फ्रिज से पानी की बोतल लाकर उसके हाथों में थमा दी. ‘थैंक यू...’ पानी पीकर ढक्कन बंद करते हुए उसने बोतल अपने पास रख ली.
‘ऐसा पहली बार हुआ...’ वह जैसे अपने आप से बोली. ‘क्या...’ मैंने पूछा. ‘अक्सर देर रात को लौटती हूं मगर पहली बार लाइट गई...’
‘हूं...मुझे भी याद नहीं कि ऐसा कभी हुआ हो...वेस्टर्न सबअर्ब्स में तो ये समस्या नहीं है...’ मैंने कहा.
फिर लंबी खामोशी छा गई. ‘क्या काम करते हैं आप?’ उसकी आवाज़ आई.
‘राइटर हूं...’
‘क्या लिखते हैं?’
‘टीवी सीरियल...’
‘फिर तो आपसे बातें की जा सकती है...’
‘सीरियलों की...सास-बहू वाली...!’
‘नहीं...मेरा ये मतलब नहीं...’ उसकी आवाज़ में हल्की-सी खनक आई. बोली, ‘ऐसा वक्त तो बातें करने से ही कट सकता है और साथ में अगर कोई समझदार इंसान न हो तब बातें दिलचस्प कैसे हो सकती हैं?’ एक पल ठहर कर उसने फिर कहा, ‘क्या आप हर किसी से, बिना जान-पहचान के आसानी से बातें कर लेते हैं...?’
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(रवि बुले की कहानी का यह अंश प्रकाशक जगरनॉट बुक्स की अनुमति से प्रकाशित)
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