राष्ट्रपति और राज्यपाल को विधेयकों पर फैसला लेने के लिए समय सीमा में बांधने पर सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई पूरी, राष्ट्रपति की तरफ से भेजे सवालों पर 10 दिन हुई चर्चा
संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत भेजे गए इस रेफरेंस में राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल किए. उन पर सुनवाई के लिए चीफ जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई ने अपनी अध्यक्षता में 5 जजों की बेंच गठित की.

राष्ट्रपति और राज्यपाल को विधेयकों पर फैसला लेने के लिए समय सीमा में बांधने के मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई पूरी कर ली है. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की तरफ से भेजे गए प्रेसिडेंशियल रेफरेंस के चलते शुरू की गई यह सुनवाई 10 दिन चली. 5 जजों की बेंच को यह तय करना है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल अगर विधेयकों पर जल्द फैसला न लें, तो क्या उसमें कोर्ट दखल दे सकता है?
क्या है मामला?
इस साल अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट के 2 जजों की बेंच ने राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास लंबित तमिलनाडु सरकार के 10 विधेयकों को अपनी तरफ से मंजूरी दे दी थी. कोर्ट ने राज्यपाल या राष्ट्रपति के फैसला लेने की समय सीमा भी तय कर दी थी. कोर्ट ने कहा था कि अगर तय समय में वह फैसला न लें तो राज्य सरकार कोर्ट आ सकती है.
5 जजों की बेंच
सुप्रीम कोर्ट के इसी फैसले को लेकर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने प्रेसिडेंशियल रेफरेंस भेजा. संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत भेजे गए इस रेफरेंस में राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल किए. उन पर सुनवाई के लिए चीफ जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई ने अपनी अध्यक्षता में 5 जजों की बेंच गठित की. बेंच के बाकी सदस्य हैं- जस्टिस सूर्य कांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी एस नरसिम्हा और जस्टिस ए एस चंदुरकर.
रेफरेंस के समर्थन में दलील
सुनवाई के दौरान दोनों तरफ से बड़े-बड़े वकीलों ने मोर्चा संभाला. केंद्र सरकार का पक्ष अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमनी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने रखा. महाराष्ट्र सरकार की तरफ से वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे और छत्तीसगढ़ सरकार की तरफ से महेश जेठमलानी ने उनका समर्थन किया. इन वकीलों ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 में राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए समय सीमा तय नहीं की है. कोर्ट अपनी तरफ से नई बात नहीं जोड़ सकता. ऐसा करना संविधान संशोधन माना जाएगा जो कि संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है.
केंद्र सरकार ने यह भी कहा कि राज्यपाल संविधान के पालन की शपथ से बंधे होते हैं. उनकी भूमिका को राज्य सरकार के हर फैसले पर हस्ताक्षर करने तक सीमित नहीं किया जा सकता. संविधान निर्माताओं ने राज्यपाल को विधेयकों को रोकने की शक्ति सोच-विचार कर दी थी. इसके अलावा केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 361 का भी हवाला दिया. इस अनुच्छेद के तहत राज्यपाल को किसी भी अदालती कार्यवाही में पक्षकार नहीं बनाया जा सकता.
केंद्र ने यह दलील भी दी कि केंद्र और राज्यों के बीच का विवाद संविधान के अनुच्छेद 131 के तहत सुप्रीम कोर्ट में मूल विवाद की तरह दाखिल होना चाहिए. अनुच्छेद 32 आम नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए है. अनुच्छेद 32 की याचिका राज्य सरकार दाखिल नहीं कर सकती.
विरोध में भी बड़े वकील
कई राज्यों ने केंद्र सरकार के रुख का विरोध किया. उनकी तरफ से भी दिग्गज वकील पेश हुए. पश्चिम बंगाल के लिए कपिल सिब्बल, तमिलनाडु के लिए अभिषेक मनु सिंघवी, केरल के लिए के के वेणुगोपाल, कर्नाटक के लिए गोपाल सुब्रमण्यम और पंजाब के लिए अरविंद दातार पेश हुए. इन वकीलों ने कहा कि राज्यपाल को अनिश्चित काल तक विधेयकों को रोके रखने का अधिकार नहीं मिल सकता. अगर इसकी अनुमति दी गई तो यह चुनी हुई सरकार को राज्यपाल की मर्जी पर निर्भर कर देगा.
इन राज्यों ने दलील दी कि राज्यपाल मंत्रिमंडल की सहायता और परामर्श से ही काम कर सकते हैं. वह विधानसभा से पारित विधेयकों को अनिश्चित समय तक रोके नहीं रह सकते. किसी विधेयक को वह सरकार को दोबारा विचार के लिए भेज सकते हैं. लेकिन अगर विधानसभा विधेयक को पुराने स्वरूप में वापस पास करती है, तो राज्यपाल के पास उसे मंजूरी देने के अलावा कोई विकल्प नहीं.
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Source: IOCL























