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कृष्णा सोबती: वह लेखिका जिनके लेखन में विभाजन का दर्द, संघर्ष और स्त्री मन की इच्छा सबकुछ रहा

कृष्णा सोबती के बारे में यह कहना भी उचित होगा कि यशपाल के 'झूठा-सच', राही मासूम रज़ा का 'आधा गांव' और भीष्म साहिनी के 'तमस' के साथ-साथ कृष्णा सोबती का 'ज़िंदगीनामा' इस प्रसंग में एक विशिष्ट उपलब्धि रही है.

नई दिल्ली: साहित्य में एक और अध्याय का समापन हो गया. एक पन्ना हमेशा के लिए बंद हो गया है. मशहूर लेखिका कृष्णा सोबती हमारे बीच नहीं रहीं. या यूं कहें कि संघर्ष की दास्तान, विभाजन की यातना, अदम्य जिजीविषा, बिना संकोच या अपराधबोध के स्त्री मन की गांठ खोलने की हिम्मत और तत्कालीन राजनीतिक हालात को बंया करने वाली लेखिका हमारे बीच नहीं रहीं तो गलत नहीं होगा. आज 93 साल की उम्र में कृष्णा सोबती का निधन हो गया. अपने वक्त की नब्ज़ टटोलकर भविष्य को लिखने का हुनर उनके साहित्य में देखने को मिलता है.

विभाजन पर लिखा

आजाद हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक विभाजन है. वही विभाजन जिसने एक मुल्क के दो टुकड़े कर दिए. विभाजन के दर्द और त्रासदी से कोई लेखक कैसे अछूता रह सकता था. भारत पाकिस्तान पर जिन लेखकों ने हिंदी में कालजयी रचनाएं लिखी थी, उनमें कृष्णा सोबती का नाम पहली कतार में रखा जाएगा. बल्कि शायद यह कहना भी उचित होगा कि यशपाल के 'झूठा-सच', राही मासूम रज़ा के 'आधा गांव' और भीष्म साहिनी के 'तमस' के साथ-साथ कृष्णा सोबती का 'ज़िंदगीनामा' इस प्रसंग में एक विशिष्ट उपलब्धि रही है. ज़िदगीनामा के लिए ही उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.

वैसे तो कृष्णा सोबती ने जो भी लिखा सबकुछ साहित्य के लिए बड़ी देन है लेकिन ‘सूरजमुखी अंधेरे के’और ज़िंदगीनामा हिन्दी साहित्य में मील का पत्थर जैसा है. ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ में अलगाव से जूझती एक ऐसी महिला की कहानी है जिसने अपने जीवन के उत्तरार्ध में वह चुना जिसे उसे बहुत पहले चुन लेना चाहिए. 'ज़िंदगीनामा' में पंजाब के समाज का रोजमर्रापन और उसके बीच अपने लिए गुंजाइशें निकालते इंसानों की टूटी-बिखरी गाथाएं हैं.

1950 में कहानी ‘लामा’ से अपने साहित्यिक सफर शुरू करने वाली सोबती साहसपूर्ण सर्जनात्मकता और सम्पूर्ण प्रखरता के साथ लगातार लिखती रहीं और पाठकों के जीवन की सहज लय में रच-बस गईं.

संकोच या अपराधबोध के बिना स्त्री मन की गांठ खोलने वाली लेखिका हिन्दी साहित्य हो या उर्दू साहित्य यौन जीवन के अनुभवों पर लेखन को आसानी से स्वीकृति नहीं मिलती. खासकर तब तो बिलकुल भी नहीं जब यौन जीवन के अनुभव किसी महिला पात्र के हो. लेकिन कृष्णा सोबती की सृजन यात्रा किसी भी तरह के संकोच या अपराधबोध के बिना स्त्री मन की गांठ खोलने में सफल रही. साठ के दशक में आए उनके उपन्यास ‘मित्रो मरजानी’ ने यौनिकता के खुलेआम इजहार से हिंदी जगत में उस समय तहलका ही मचा दिया था.

ऐसा नहीं कि उन्होंने केवल महिलाओं के यौन जीवन के अनुभव को लिखा. गुलाम भारत में जन्मीं और देश विभाजन के बाद पाकिस्तान के गुजरात की अपनी स्मृतियों की पोटली बांधकर पहली नौकरी के लिए सिरोही पहुंचने वाली कृष्णा सोबती के पास उन्हीं की तरह शरणार्थी बनी और पंजाब से लेकर दिल्ली तक की हजारों महिलाओं के साझा और व्यक्तिगत अनुभव हैं. उन्होंने इन अनुभवों को भी लिखा.

विभाजन की त्रासदी पर उनका आत्मकथात्मक उपन्यास ‘गुजरात पकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ एक बेहतरीन उपन्यास है. इसमें धर्म विशेष की महिलाओं के साथ अत्याचार और स्त्री देह और मन पर गुज़रने वाली यातना का मनोवैज्ञानिक चित्रण है. उपन्यास में हर पन्ने के बाद एक सवाल जो जहन में उठता है कि क्यों विभाजन के बाद न कोई यहां था आंसू पोंछने के लिए और न ही कोई वहां था कंधा देने के लिए.

कृष्णा सोबती का साहित्य मूलतः धर्म, संस्कृति और मर्यादा की आड़ में शोषित लोगों का प्रतिनिधित्व करता है. साहित्य में समाज का प्रतिबिंब होता है. हम जिस वातावरण में, परिवेश में जीते हैं, साहित्य में उसी का चित्रण होता है. कृष्णा सोबती ने भी वैसा ही किया. जिस परिवेश में रहीं, जिसे भोगा उसे ही लिखा. उन्होंने अपने लेखन के बारे में एक बार कहा था..

''मैं उस सदी की पैदावार हूं जिसने बहुत कुछ दिया और बहुत कुछ छीन लिया यानि एक थी आजादी और एक था विभाजन. मेरा मानना है कि लेखक सिर्फ अपनी लड़ाई नही लड़ता और न ही सिर्फ अपने दु:ख दर्द और खुशी का लेखा जोखा पेश करता है. लेखक को उगना होता है, भिड़ना होता है. हर मौसम और हर दौर से नज़दीक और दूर होते रिश्तों के साथ, रिश्तों के गुणा और भाग के साथ. इतिहास के फ़ैसलों और फ़ासलों के साथ. मेरे आसपास की आबोहवा ने मेरे रचना संसार और उसकी भाषा को तय किया. जो मैने देखा, जो मैने जिया वही मैंने लिखा''

लेखिका कृष्णा सोबती को मिला देश का सर्वोच्च ‘साहित्य सम्मान’ ज्ञानपीठ पुरस्कार

अमृता प्रीतम और कृष्णा सोबती के बीच 25 साल तक चला केस

हिन्दी साहित्य पढ़ने वाला या इसमें रूची रखने वाला शायद ही कोई शख्स हो जो अमृता कृष्णा और कृष्णा सोबती के बीच चली लंबी अदालती लड़ाई के बारे में न जानता हो. दरअसल कृष्णा सोबती ने अमृता प्रीतम पर उनकी कृति हरदत्त का जिंदगीनामा को लेकर केस कर दिया था. वो केस करीब पच्चीस साल तक चला था और फैसला अमृता प्रीतम के पक्ष में आया था. दरअसल अमृता प्रीतम की किताब हरदत्त का जिंदगीनामा, जब छपा तो कृष्णा सोबती को लगा कि ये शीर्षक उनके चर्चित उपन्यास जिंदगीनामा से उड़ाया गया है और वो कोर्ट चली गईं. दोनों के बीच इस साहित्यक विवाद की उस वक्त पूरे देश में खूब चर्चा हुई थी. जब केस का फैसला आया तो अमृता प्रीतम की मौत हो गई थी. केस के फैसले के बाद कृष्णा सोबती ने बौद्धिक संपदा का तर्क देते हुए कहा था कि हार जीत से ज्यादा जरूरी उनके लिए अपनी बौद्धिक संपदा की रक्षा के लिए संघर्ष करना था.

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका कृष्णा सोबती का 94 साल की उम्र में निधन

इस मुकदमे में उनके वकील और नारीवादी मुद्दों के चर्चित लेखक अरविन्‍द जैन थे. अरविन्‍द जैन ने कहा कि अमृता प्रीतम के साथ उनका जो मुकदमा चला उसमें सोबती ने काफी नुकसान भी उठाया और अंत में वह मुकदमा हारी क्‍योंकि अदालत ने कहा कि किसी किताब के शीर्षक पर किसी का अधिकार नहीं हो सकता. किंतु उन्‍होंने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया. मुकदमें के दौरान उनका एक मकान भी बिका क्‍योंकि इस मुकदमे में उन्‍होंने बड़े बड़े वकील किये और मुकदमा काफी लंबा खिंचा.

ज़िंदगीनामा, दिलोदानिश, ऐ लड़की, बादलों के घेरे, समय सरगम ,डखर से बिछुड़ी, मित्रो मरजानी, सूरजमुखी अंधेरे के, हम हशमत, शब्दों के आलोक मे, इन किताबों से कृष्णा सोबती के कद का अंदाजा लगाया जा सकता है. आज उनके न रहने से साहित्यिक जगत में जो खालीपन आया है उसे कभी नहीं भरा जा सकता है.
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