Islamic Banking: इस्लाम में ब्याज हराम तो मुस्लिम देशों में कैसे मिलता है लोन, जानें बैंकिंग सिस्टम कैसे करता है काम?
Islamic Banking: इस्लाम में ब्याज लेना या फिर देना सख्त मना है लेकिन इसके बावजूद भी मुस्लिम देशों में लोन लिया जाता है. आइए जानते हैं कैसे काम करती है इस्लामिक बैंकिंग.

Islamic Banking: इस्लाम में ब्याज लेना या फिर देना सख्त मना है. लेकिन इससे एक सवाल यह उठता है कि अगर ब्याज पर लोन देना मना है तो मुस्लिम देशों में लोग लोन कैसे लेते हैं. इसका जवाब इस्लामिक बैंकिंग में है. इस्लामिक बैंकिंग शरिया का पालन करने के लिए बनाया गया एक पैरेलल फाइनेंशियल सिस्टम है. आइए जानते हैं कि यह कैसे काम करता है.
इस्लामिक बैंकिंग का सिद्धांत
दरअसल इस्लामिक बैंकिंग में पैसा खुद पैसा पैदा नहीं करता. दौलत सिर्फ असली आर्थिक गतिविधि जैसे कि व्यापार, सेवा या निवेश से ही बननी चाहिए. इसी वजह से बैंकों को कैश लोन देने और उस पर ब्याज लेने की इजाजत नहीं है. इसके बजाय वे सीधे ट्रांजैक्शन में शामिल हो जाते हैं और ग्राहक के साथ प्रॉफिट और रिस्क दोनों शेयर करते हैं.
इस्लामिक बैंक में कैसे होते हैं घर, कार और बिजनेस फाइनेंस?
जब भी किसी मुस्लिम देश में किसी को फाइनेंसिंग की जरूरत होती है तो बैंक सिर्फ कैश नहीं देता. एक आम तरीका मुराबाहा है. इसमें बैंक ग्राहक की तरफ से ऐसेट खरीदता है और फिर उसे पहले से तय ज्यादा कीमत पर किस्तों में बेच देता है. यह एक्स्ट्रा रकम ब्याज नहीं है बल्कि व्यापार से होने वाला प्रॉफिट माना जाता है.
एक और बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने वाला सिस्टम इजारा है. यह लीजिंग की तरह होता है. इस मॉडल में बैंक एक एसेट खरीदता है और उसे ग्राहक को किराए पर देता है. ग्राहक ब्याज के बजाय किराया देता है और लीज की अवधि खत्म होने पर ओनरशिप उसे ट्रांसफर की जा सकती है. इसका इस्तेमाल आमतौर पर घरों और इंडस्ट्रियल इक्विपमेंट के लिए किया जाता है.
फिक्स्ड रिटर्न के बजाय प्रॉफिट और लॉस शेयरिंग
बिजनेस फाइनेंसिंग के लिए इस्लामिक बैंक अक्सर मुशारका का इस्तेमाल करते हैं. यह एक तरह से पार्टनरशिप पर आधारित मॉडल है. इसमें बैंक और ग्राहक दोनों एक बिजनेस या फिर प्रोजेक्ट में कैपिटल लगते हैं. प्रॉफिट एक तय अनुपात में शेयर किया जाता है जबकि नुकसान हर पार्टी द्वारा निवेश की गई रकम के आधार पर ही बांटा जाता है.
इस्लामिक बैंक बिना ब्याज के पैसे कैसे कमाता है?
अब क्योंकि ब्याज की इजाजत नहीं है इस वजह से इस्लामिक बैंक ऐसेट की बिक्री से होने वाले प्रॉफिट, किराए से होने वाली इनकम और शेयर किए गए बिजनेस प्रॉफिट से इनकम कमाते हैं. वे अकाउंट मेंटेनेंस, फंड ट्रांसफर और एडवाइजरी सेवाओं के लिए सर्विस फीस भी लेते हैं.
इसी के साथ इस्लामिक बैंक में कर्ज-ए-हसना यानी परोपकारी लोन का कॉन्सेप्ट भी शामिल है. इस कॉन्सेप्ट में कर्ज लेने वाले को बिना किसी मुनाफे या एक्स्ट्रा चार्ज के सिर्फ मूल राशि ही चुकानी होती है. ये लोन आमतौर पर शिक्षा, मेडिकल जरूरत या फिर आर्थिक परेशानी में लोगों की मदद करने के लिए दिए जाते हैं.
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