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Karnataka CM: कर्नाटक में क्या थी अहिंदा की राजनीति, जिसने कांग्रेस में बढ़ाया सिद्धारमैया का कद और दिया बड़ा जनाधार

Karnataka CM: कर्नाटक में बड़ी जीत के बाद सिद्धारमैया एक बार फिर मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं, उन्होंने अपने बड़े राजनीतिक जनाधार और ताकत के चलते डीके शिवकुमार को मात दे दी.

Karnataka CM: कर्नाटक में लंबी खींचतान के बाद आखिरकार कांग्रेस आलकमान ने सिद्धारमैया को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला लिया है. सूत्रों के मुताबिक अब 18 मई को उनका शपथ ग्रहण समारोह भी हो सकता है. डीके शिवकुमार की मजबूत दावेदारी के बावजूद सिद्धारमैया ने एक बार फिर बाजी पटलकर रख दी और दूसरी बार वो राज्य में मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं. कांग्रेस के इस फैसले ने साबित कर दिया कि कर्नाटक की राजनीति में सिद्धारमैया का कद कितना बड़ा है. इस मौके पर हम आपको बताएंगे कि वो कौन सी राजनीति रही, जिसने सिद्धारमैया को कर्नाटक में एक बड़े जनाधार वाला नेता बना दिया. 

राजनीति में ऐसे हुई शुरुआत
सिद्धारमैया की राजनीतिक ताकत की बात करें, उससे पहले ये जानना जरूरी है कि उनके राजनीतिक करियर की शुरुआत कैसे हुई थी. कानून की पढ़ाई करने वाले सिद्धारमैया की दिलचस्पी राजनीति में 1980 के दौर में शुरू हुई. वो डॉ राम मनोहर लोहिया के विचारों से काफी प्रभावित थे. इसके बाद उन्होंने पहली बार मैसूर जिले की चामुंडेश्वरी विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा और अपना पहला ही चुनाव जीत गए. भारतीय लोकदल ने उन्हें चुनाव में समर्थन दिया था. 

भारतीय लोकदल के साथ मिलकर पहला चुनाव लड़ने के बाद सिद्धारमैया को एचडी देवेगौड़ा ने अपनी पार्टी में शामिल करने का ऑफर दिया, जिसे उन्होंने स्वीकार भी कर लिया. मध्यावधि चुनाव होने पर भी सिद्धारमैया ने जीत हासिल की और पहली बार राम कृष्ण हेगड़े की कैबिनेट में उन्हें मंत्रिपद मिला. इसके बाद सिद्धारमैया जेडीएस में कई अहम पदों पर रहे. यहां रहते हुए उनकी महत्वकांक्षा सीएम बनने की थी, क्योंकि एक दौर में वो देवेगौड़ा के बाद जेडीएस के सबसे बड़े नेता थे. हालांकि देवेगौड़ा ने बेटे कुमारस्वामी को राजनीति में आगे बढ़ाने के लिए सिद्धारमैया को पूरी तरह दरकिनार कर दिया.

सिद्धारमैया की अहिंदा पॉलिटिक्स
अब सिद्धारमैया ने कई सालों तक जिस पार्टी में अपना खून-पसीना बहाया था, उसी से धोखा मिलने के बाद वो अपने लिए एक अलग राजनीतिक पिच तैयार करने में जुट गए. इसके लिए उन्होंने एक ऐसी राजनीति को चुना, जिस पर किसी भी बड़े नेता की नजर नहीं थी. कर्नाटक के दिग्गज कांग्रेसी नेता आरएल जलप्पा ने दलितों, मुस्लिमों और पिछड़ों के हितों के लिए एक मुहिम चलाई. जिसे कन्नड़ में अहिंदा कहा गया. जेडीएस से कांग्रेस में आए सिद्धारमैया इससे काफी प्रभावित हुए और उन्होंने इस मुहिम को आगे बढ़ाने का काम किया. 

अहिंदा को लेकर सिद्धारमैया ने जमीनी तौर पर काम करना शुरू कर दिया. उन्होंने कई अहिंदा सम्मेलन भी बुलाए. जिससे इन निचले तबकों में सिद्धारमैया एक हीरो की तरह सामने आए. इसी अहिंदा राजनीति ने सिद्धारमैया की राजनीति को चमकाने का काम कर दिया और कांग्रेस में उनका कद सबसे ऊंचा हो गया. क्योंकि इस अहिंदा मुहिम से कर्नाटक में सिद्धारमैया का जनाधार काफी बढ़ गया था और वो जनता के बीच लोकप्रिय हो गए. नतीजा ये हुआ कि जब 2013 में कांग्रेस ने कर्नाटक में जीत दर्ज की तो उन्होंने मल्लिकार्जुन खरगे और डीके शिवकुमार जैसे नेताओं को पीछे छोड़ दिया और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ गए. 

मुख्यमंत्री बनने के बाद भी किया काम
जैसा कि हमने आपको बताया कि सिद्धारमैया की राजनीति को उनकी अहिंदा पॉलिटिक्स ने ही चमक दी, ऐसे में जब 2013 में वो मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने इस तबके के लिए काम करना शुरू कर दिया. सिद्धारमैया ने अहिंदा को नहीं छोड़ा. उन्होंने अन्न भाग्य योजना लॉन्च की, जिसके तहत हर व्यक्ति को हर महीने पांच किलो चावल दिए गए. बाद में इसे बढ़ाकर सात किलो कर दिया गया. इसके अलावा उन्होंने इंदिरा कैंटीन, गरीबों के बिजली बिल माफ करना, दलितों-पिछड़ों की कर्जमाफी और सब्सिडी जैसी सुविधाएं देकर लोगों के दिलों में खास जगह बनाई. बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक सिद्धारमैया ने ऐसी कल्याणकारी योजनाओं पर 4410 करोड़ रुपये खर्च किए. 

मजबूत जनाधार वाले नेता
अहिंदा और कल्याणकारी योजनाओं के कॉम्बिनेशन से ही सिद्धारमैया एक बार फिर डीके शिवकुमार जैसे नेता पर भारी पड़े हैं. क्योंकि उनके मुकाबले कर्नाटक में कांग्रेस का कोई दूसरा नेता नहीं है, जिसका इतना बड़ा जनाधार हो. सिद्धारमैया ने इस बार भी इमोशनल कार्ड खेलते हुए चुनाव लड़ा और कहा कि ये उनका आखिरी चुनाव होगा, जिसके बाद वो रिटायर हो जाएंगे. हालांकि ऐसा ऐलान सिद्धारमैया पहले भी कर चुके हैं, लेकिन इसके बावजूद वो सक्रिय राजनीति से खुद को अलग नहीं कर पाए. जिसका नतीजा ये रहा कि वो फिर से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने जा रहे हैं. 

ये भी पढ़ें - कर्नाटक में कैसे बिगड़ गया डीके शिवकुमार का खेल, जानें क्यों दावेदारी हुई कमजोर 

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