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किरदारों के जरिए दुनिया की हकीकत दिखाने वाले ओम पुरी साहब को श्रद्धांजलि

नई दिल्ली: खुरदरा चेहरा, भौंडी सी नाक, उबड़ खाबड़ शख्सियत.....क्या ऐसा शख्स हिंदी फिल्मों में अपनी कोई हैसियत बना सकता है. ओम पुरी ने साबित किया कि अगर आप में प्रतिभा है, आप में चरित्र को जीने की क्षमता है, अगर आप के पास सधी हुई गहरी आवाज है, अगर आप को अभिनय करना आता है तो आपको कोई रोक नहीं सकता. कुछ फिल्मों को याद किया जाए. एक, अर्धसत्य....ओम पुरी की शुरुआती फिल्मों में यह शामिल थी. इसमें हिंदी साहित्य पढ़ने वाला वेली अपने कठोर पुलिसिया पिता के आगे मजबूर होकर पुलिस में शामिल हो जाता है. वहां उसका टकराव रामा शेट्टी नाम के गुंड़े से होता है जिसे राजनीतिक संरक्षण हासिल है. इंस्पेक्टर वेली शेट्टी से भी लड़ता है और पुलिस व्यवस्था से भी उलझता है. इस बीच वो स्मिता पाटिल से बस में मिलता है, उसे कॉलेज के दिन याद आते हैं. वो हिंदी साहित्य की दुनिया में लौटना चाहता है, वो प्यार करना चाहता है लेकिन उसके हाथों थाने में एक लड़के की हत्या हो जाती है. अब इंस्पेक्टर वेली को उसी रामा शेटटी के पास नौकरी बचाने के लिए जाना पड़ता है. ओम पुरी ने इस जटिल भूमिका को बड़ी ही सहजता से निभाया था. पिता से डरता वेली, स्मिता पाटिल से इकतरफा प्यार करता वेली, खुफिया विभाग के कुचक्रों से उलझता वेली, पुलिस की नौकरी से निकाले गये इंस्पेक्टर लोबो ( नसीरुददीन शाह ) की दुगर्ति में अपने भविष्य को तलाश कर दुखी होता वेली और अंत में रामा शेटटी को मार कर इन सबसे मुक्त होता वेली. ओम पुरी ही थे जो इंस्पेक्टर वेली के किरदार के साथ न्याय कर सकते थे जो उन्होंने किया. एक सीन याद आता है जहां स्मिता पाटिल पुलिस की भाषा और तौर तरीकों को कोसती है तो ओम पुरी लगभग गिड़गिड़ाने लगते हैं. वो जानते हैं कि स्मिता को मना नहीं पाए तो हमेशा के लिए खो देंगे. यह होता भी है. तब ओम पुरी के चेहरे पर जिस तरह की बेबसी थी वह देखने लायक थी. पुलिस की खाकी वर्दी में कसा हुआ शरीर लेकिन चेहरे पर मातम. इसी तरह जब इंस्पेक्टर वेली को मिलने वाला राष्ट्रीय पुलिस पदक अन्य क्राइम शाखा का अधिकारी ले जाता है तो वह शराब पीकर थाने पहुंचता है. वहां एक छोटे मोटे चोर को पीटता है. उस समय चोर की चगह वेली को उस अधिकारी का चेहरा दिखता है. साले, दूसरों का हक मारते हो साले.....इस संवाद अदायगी के समय ओम पुरी का व्यवस्था के प्रति आक्रोश साफ दिखता है. दो, आक्रोश............आदिवासियों के शोषण और उनकी मजबूरी पर बनी फिल्म में ओम पुरी के चेहरे पर पूरी फिल्म के दौरान आक्रोश दिखता है. ऐसा किरदार जो कुछ बोलता नहीं है लेकिन वह पुलिस, स्थानीय नेता और कचहरी के त्रिकोण को करीब से देखता है और आक्रोश बढ़ता ही जाता है. इस जंजाल से वह निकलना चाहता है लेकिन निकल नहीं पाता. उसके साथ खड़े है वकील नसीरुदीन शाह. लेकिन जब ओम पुरी खुद वकील की ही बेबसी और घुटन को देखता है तो छटपटा कर रह जाता है. रेप के केस में उसे राहत मिलती नहीं दिखती. पिता की देह को आग देते समय ओम पुरी का अर्थी के चारों तरफ घड़े को लेकर चक्कर लगाना, हर चक्कर के समय कभी वकील कभी पुलिस कभी स्थानीय नेता को देखना, हर चक्कर के समय कुल्हाड़ी पर नजर डालना और अंत में बहिन की हत्या कर देना..........स्तब्ध कर देता है वह सीन. मुझे याद है कि यह दृश्य देखते समय रोंगटे खड़े हो गये थे. आप ओम पुरी के साथ हो लेते हैं. आपको लगता है कि ओम पुरी ने जो किया ठीक किया.....उस कुल्हाड़ी से ओम पुरी बहिन को ही मार सकता था ( पुलिस, नेता या वकीलों को नहीं )...पूरी फिल्म में ओम पुरी खामोश रहते हैं. लेकिन आंखे पूरी फिल्म में मानो चीखती रहती हैं. आपको फिल्म देखते समय गुस्सा आने लगता है कि आखिर यह पात्र कुछ बोलता क्यों नहीं है.....इतना चुप क्यों है......कैसे गुस्से को पी रहा है.......कैसे अंदर ही अंदर घुट रहा है. ओम पुरी ने आदिवासी की भूमिका में जान डाल दी थी. तीन, जाने भी दो यारो........इस ब्लैक कॉमेडी में ओम पुरी अलग ही रंग में थे. उन्होंने एक भ्रष्ट ठेकेदार की भूमिका निभाई थी. वह सीन कभी नहीं भूलता जहां ताबूत में बैठे सतीश शाह को ओम पुरी देखते हैं. ओम पुरी ने शराब पी रखी है. ताबूत में सतीश शाह का शव है जो झटका लगने से बैठ गया है. मृत देह पर चढ़ाया गया टायर नुमा फूलों का हार स्टीयरिंग जैसा दिखता है. ओम पुरी को लगता है कि सतीश शाह स्पोटर्स कार में बैठे हैं और उसकी तरह ही टल्ली हैं. वह अपनी गाड़ी के पीछे ताबूत को बांध कर ले आते हैं और अपने गैराज में बंद कर देते हैं. पूरी फिल्म में नामी कलाकार भरे थे और ओम पुरी इसमें अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे थे. आखिरी सीन में जहां महाभारत खेली जा रही थी वहां ओम पुरी का आना, अर्जुन  से उलझना, उसका तीरकमान तोड़ देना और अर्जुन के हाथ में देते हुए कहना कि लै....फड़ ( पंजाबी में ले, पकड़ ). यह कहना कि हम सब द्रोपदी के शेयर होल्डर हैं.......एक एक सीन में जान डाली गयी थी. चार, मंडी. श्याम बेनेगल की इस फिल्म में वेश्याओं की समस्याओं और बड़े लोगों के दोगलेपन को दिखाया गया था. शबाना, स्मिता, नसीर, कुलभूषण खरबंदा जैसे कलाकारों के बीच ओम पुरी भी थे. उन्होंने एक ऐसे फोटोग्राफर की भूमिका निभाई थी जो वेश्याओं के घर के ठीक सामने दुकान करता है, जो वेश्याओं की तस्वीरों के सहारे पेट पालता है. गले में रुमाल, काला चश्मा, पीली कमीज पर रंगीन टाई, लाल पेंट....कपड़ों से लेकर भाषा में अजब का खिलंदड़पन था उस किरदार में. कॉमेडी में टाइमिंग का बड़ा महत्व होता है. ओम पुरी इसका बहुत ख्याल रखते थे. मंडी में हमने देखा, मालामाल वीकली में बल्लू के किरदार में भी ओम पुरी ने ऐसा ही कमाल किया था. यहां राजपाल यादव और परेश रावल के साथ शानदार टाइमिंग का परिचय दिया था ओम पुरी ने. फिल्में बहुत सी अन्य भी हैं. साई परांजपे की फिल्म स्पर्श में ओम पुरी और नसीर दोनों ने नेत्रहीनों की भूमिका निभाई थी. ओम पुरी की आंखों की पुतलियां एक बार भी नहीं घूमी. श्याम बेनेगल ने टेलीविजन के लिए भारत एक खोज बनाया तो यहां भी अलग अलग भूमिकाओं में ओम पुरी नजर आए थे. ओम पुरी जैसे कलाकार विरले ही पैदा होते हैं. नमन.

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