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विरासत: क्या बेटे दुष्यंत सिंह की जीत से वसुंधरा राजे की राजनीति फिर से चमक उठेगी?

दुष्यंत सिंह को मैदान में उतारना बीजेपी के लिए सामान्य फैसला है, लेकिन कांग्रेस के उम्मीदवार चयन ने झालावाड़-बारां को हॉट-सीट बना दिया है. अब अपनी ही पार्टी के बागी नेता को हराना और बेटे को जिताना वसुंधरा राजे के लिए बड़ा चैलेंज बन गया है.

राजस्थान में बीजेपी साल 2014 के लोकसभा चुनाव में 100 फीसदी सीटें जीतने में कामयाब रही थी. प्रदेश में इतनी बड़ी कामयाबी का श्रेय कुछ लोगों ने नरेंद्र मोदी को तो कुछ ने तत्कालीन सीएम वसुंधरा राजे को दिया था. लेकिन राजस्थान में सत्ता गंवा चुकी बीजेपी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष वसुंधरा राजे इस बार लोकसभा चुनाव में बेटे और सांसद दुष्यंत सिंह को एक बार फिर से सांसद बनाने के लिए मैदान में उतरी हैं. फैसला तो 23 मई को ही होगा....उससे पहले राजस्थान में वसुंधरा और उनकी सियासत को समझते हैं. इससे काफी हद तक यह भी पता चल जाएगा कि दुष्यंत सिंह के सामने विरासत बचाने की कितनी बड़ी चुनौती है. दुष्यंत सिंह झालावाड़-बारां लोकसभा सीट से अपनी किस्मत आजमा रहे हैं.

वसुंधरा राजे, सिंधिया घराने की रियासत और सियासत दोनों माने जाने वाले मध्य प्रदेश के ग्वालियर से नाता रखती हैं. ऐसे में राजस्थान की राजनीति में वसुंधरा की दस्तक दरअसल उनके परिवार से जुड़ी है. वसुंधरा से पहले सिंधिया घराने की राजमाता विजयाराजे सिंधिया बीजेपी की संस्थापक सदस्य रह चुकी थीं. उनके भाई माधवराव सिंधिया ने कांग्रेस का दामन थाम लिया और मध्य प्रदेश में बीजेपी की राजनीतिक विरासत बहन यशोधरा राजे ने संभाल ली. वसुंधरा की शादी धौलपुर राजघराने के राजा हेमंत सिंह से हुई और राजस्थान उनका घर बन गया. राजघराने से जुड़े होने और मां के राष्ट्रीय राजनीति में होने का उन्हें सीधा फायदा राजस्थान की राजनीति में भी मिला.

ऐसे हुई वसुंधरा की राजनीति की शुरुआत 1984 में 32 साल की युवा उम्र में उन्हें बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य बना दिया गया. अगले साल ही यानी साल 1985 में उन्हें राजस्थान बीजेपी युवा मोर्चे का उपाध्यक्ष बना दिया गया और दो साल से भी कम वक्त में यानी साल 1987 में वसुंधरा को राजस्थान बीजेपी का उपाध्यक्ष बना दिया गया था. साल 1985 में वो झालरापाटन से विधानसभा भी जा पहुंचीं.

राजस्थान की राजनीति में जसवंत सिंह और भैरों सिंह शेखावत के होते हुए वसुंधरा की जगह बन नहीं पा रही थी इसलिए उऩ्हें केंद्र में भेजा गया. वो वाजपेयी सरकार में मंत्री बनाई गईं. साल 2003 में राजस्थान विधानसभा के चुनाव थे. तब तक जसवंत सिंह वाजपेयी कैबिनेट के मंत्री बनकर केंद्र में आ चुके थे और भैरों सिंह शेखावत को उपराष्ट्रपति बना दिया गया था. शेखावत की जगह लेने के लिए पार्टी में प्रतिद्वंदी ताल ठोंक रहे थे कि तभी शेखावत ने वसुंधरा को अपनी विरासत सौंपने का फैसला किया.

वसुंधरा ने रखी ये शर्त यहीं से राजस्थान की राजनीति में वसुंधरा राजे की धमक शुरू हुई. उन्होंने खुद को पार्टी अध्यक्ष बनाए जाने की शर्त रखी. यही नहीं टिकटों के बंटवारे की जिम्मेदारी दिए जाने की शर्त भी रखी. पार्टी नेतृत्व को उनकी हर मांग माननी पड़ी. इसके बाद ही वसुंधरा ने परिवर्तन यात्रा निकाली जो बीजेपी और वसुंधरा दोनों के लिए परिवर्तन यात्रा साबित हुई.

इसके बाद दिसम्बर 2003 में चुनाव हुए, बीजेपी पहली बार अपने दम पर सत्ता में आई. जो काम भैरों सिंह नहीं कर सके वो वसुंधरा ने कर दिखाया. राज्य में पहली बार कोई महिला मुख्यमंत्री बनी थी वो भी राजघराने से जुड़ी हुई. वसुंधरा राजे साल 2003 में राजस्थान की मुख्यमंत्री बन गई, लेकिन 2008 में ये जादू नहीं चल पाया. गहलोत सरकार आने पर वसुंधरा निशाने पर भी आईं. लेकिन बीजेपी हाईकमान तब भी वसुंधरा को पीछे छोड़ आगे बढ़ने का खतरा नहीं उठा पाया.

हाईकमान से तनातनी खूब चर्चित हुई वसुंधरा ने विपक्ष में रहते हुए तो हाईकमान को खूब नचाया था. उस वक्त तत्कालीन राजस्थान बीजेपी अध्यक्ष ओम प्रकाश माथुर से उनकी तनातनी खूब चर्चित हुई थी. इसके बाद भी 2013 में बीजेपी के पास वसुंधरा को छोड़कर कोई चेहरा नहीं था.

2013 में जीत ने वसुंधरा का कद और बढ़ा दिया. बीजेपी को 163 सीटें मिलीं जबकि 2014 लोकसभा चुनावों में राजस्थान से बीजेपी को 25 की 25 सीट मिलीं. दूसरी बार मुख्यमंत्री बनी वसुंधरा की ही जिद थी कि बीजेपी के कद्दावर नेता जसवंत सिंह को साल 2014 में बाड़मेर की सीट से टिकट ना दिया जाए. जसवंत सिंह को तब निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरना पड़ा था.

2018 में हाथ से फिर निकली सीएम की कुर्सी साल 2018 के विधानसभा चुनाव में भी टिकट बंटवारे से लेकर प्रचार की कमान वसुंधरा राजे ने ही संभाली. लेकिन केन्द्रीय नेतृत्व के साथ खराब समीकरण और प्रदेश में पार्टी के भीतर उनके विरोधियों की बड़ी तादाद की वजह से वो फिर से सरकार बनाने में कामयाब नहीं हो पाईं.

झालावाड़-बारां लोकसभा सीट से मैदान में हैं दुष्यंत राजस्थान के झालावाड़-बारां लोकसभा सीट से वसुंधरा राजे के बेटे और वर्तमान सांसद दुष्यंत सिंह मैदान में हैं. उनका मुकाबला बीजेपी के बागी नेता और कांग्रेस के प्रत्याशी प्रमोद शर्मा से है. इस सीट की गिनती बीजेपी के गढ़ के रुप में होती है. इसी वजह से कांग्रेस ने यहां सेंध लगाने के इरादे से बीजेपी के खिलाफ उनके ही बागी नेता को खड़ा कर के अपनी चाल चल दी है. 1989 से 1999 तक वसुंधरा राजे लगातार 5 बार यहां से सांसद रहीं. उनके बाद 2004 से अब तक दुष्यंत सिंह लगातार तीन बार यहां से सांसद हैं. दुष्यंत सिंह को मैदान में उतारना बीजेपी के लिए सामान्य फैसला है, लेकिन कांग्रेस के उम्मीदवार चयन ने झालावाड़-बारां को हॉट-सीट बना दिया है. अब अपनी ही पार्टी के बागी नेता को हराना और बेटे को जिताना वसुंधरा राजे के लिए बड़ा चैलेंज बन गया है. अब देखना दिलचस्प होगा कि पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के गृह जिले में उनका जादू एक बार फिर से चलता है या नहीं.

2014 में ये थे नतीजे झालावाड़-बारां लोकसभा सीट मेवाड़ इलाके में आती है. 2014 के लोकसभा चुनाव में इस सीट से दुष्यंत सिंह ने 6 लाख 76 हजार 102 वोट हासिल किये थे और 2 लाख 81 हजार 546 वोटों के भारी अंतर से जीत दर्ज की थी. झालावाड़-बारां लोकसभा सीट पर दूसरे स्थान पर कांग्रेस पार्टी के प्रमोद भाया रहे थे जिन्होंने 3 लाख 94 हजार 556 वोट हासिल किये थे.

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