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देश का बजट: देश की सुरक्षा पर कितना खर्च कर सकती है मोदी सरकार, जानिए रक्षा बजट की ABCD

देश का बजट: रक्षा जानकार मानते हैं कि चीन का रक्षा बजट उसके जीडीपी का करीब 3 प्रतिशत है, जबकि भारत में रक्षा बजट अपने जीडीपी का मात्र 1.58 प्रतिशत है, जो 1962 के बाद सबसे कम था.

नई दिल्ली: भले ही ये नई सरकार का पहला आम बजट हो, लेकिन इसकी रूपरेखा अंतिरम-बजट में देखने को मिल चुकी है. सूत्रों की मानें तो रक्षा बजट भी लगभग उतना ही हो सकता है, जितना कि अंतरिम बजट में था. वैसे भी पिछले कुछ सालों पर गौर करें तो रक्षा बजट में लगभग 6-7 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखने को मिल रही है. इसीलिए इसबार भी पिछले बजट के मुकाबले इस रक्षा बजट में मामूली-बढ़ोतरी (यानि 6-7 प्रतिशत की बढ़ोतरी) हो सकती है.

जानकारों की मानें तो सेनाओं को रक्षा बजट से काफी अपेक्षाएं होती हैं और अपनी अपनी सैन्य जरूरतों के हिसाब से 'विशलिस्ट' (यानि इच्छा-सूची) सरकार को बजट से पहले ही सौंप दी जाती है, लेकिन वो बेहद ही गोपनीय होती हैं. सूत्रों के मुताबिक, इस 'इच्छा-सूची' को ध्यान में रखते हुए रक्षा मंत्रालय और वित्त मंत्रालय सेनाओं की 'मिनिमम रिक्वायरमेंट' यानि जरूरी-आवश्यकताओं को देखते हुए रक्षा बजट तैयार करता है.

अंतरिम बजट की बात करें तो उसमें रक्षा बजट करीब 4.11 लाख करोड़ रूपये था, जो वर्ष 2018-19 के मुकाबले करीब 7 प्रतिशत ज्यादा था. इनमें से अगर रक्षा-पेंशन को अलग करते हैं तो मोटे तौर पर रक्षा बजट हो जाता है करीब 3 लाख करोड़ रूपये का. इनमें से भी सेनाओं (थलसेना, वायुसेना और नौसेना) के आधुनिकिकरण (कैपिटल-एक्सपेंडिचर) के लिए था करीब एक लाख करोड़ रूपये और बाकी दो लाख (1.98) करोड़ रेवेन्यू एक्सपेंडिचर था (यानि सैनिकों की सैलरी इत्यादि).

2018-19 के मुकाबले कैपिटल-एक्सपेंडिचर में करीब 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी थी, जबकि रेवेन्यू एक्सपेंडिचर में 6-7 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई थी. इस आम बजट में भी माना जा रहा है कि आंकड़ें लगभग ऐसे ही रहने वाले हैं.

आपको बता दें कि भारतीय सेनाएं टू-फ्रंट वॉर यानि दो-दो मार्चों पर तैनात रहती हैं. भारत का सबसे पुराना सीमा विवाद दो-दो पड़ोसी देश-चीन और पाकिस्तान से चल रहा है. ऐसे में भारतीय सेनाओं को दोनों ही सीमाओं पर अपने आप को सैन्य तौर से तैयार रखने की जरूरत पड़ती है. हालांकि ये माना जाता हैकि सेनाएं युद्ध नहीं लड़ती हैं, बल्कि देश युद्ध लड़ते हैं, लेकिन ये भी सच है कि सेनाएं ही युद्ध की परिस्थितियों को टाल सकती हैं. वो उसी स्थिति में टाल सकती हैं, जब सेनाएं सैन्य तौर से मजबूत हों और उनका आधुनिकिकरण लगातार होता रहे. यानि कि सेनाओं को जरूरी हथियार, टैंक, तोप, लड़ाकू विमान, जंगी जहाज और गोला-बारूद मुहैया कराया जा सके. लेकिन पिछले कुछ समय में ही आईं सीएजी रिपोर्ट और संसद की स्थायी कमेटियों की रिपोर्ट से ये पता चलता है कि भारत के पास युद्ध लड़ने के लिए भी गोला-बारूद पर्याप्त नहीं है और भारत के 68 प्रतिशत हथियार और दूसरे सैन्य साजोंसामान तक विंटेज यानि पुराने पड़ चुके हैं.

पिछले साल यानि 2018 के रक्षा बजट की बात करें तो वो करीब 2.95 लाख करोड़ था. लेकिन इसमें से सिर्फ करीब एक लाख करोड़ (99.56 हजार करोड़) ही कैपिटल-एक्सपेंडिचर का हिस्सा था यानि सेनाओं के आधुनिकिकरण के लिए था. बाकी का 1.95 लाख करोड़ रेवेन्यू-एक्सपेंडिचर यानि सैनिकों की सैलरी इत्यादि का हिस्सा था. ये रक्षा बजट 2017 के मुकाबले करीब 7.8% ज्यादा था. ये रक्षा बजट केन्द्र सरकार के कुल खर्च का करीब 12 प्रतिशत था. हालांकि ये रक्षा बजट दुनिया का पांचवा सबसे बड़ा रक्षा बजट था (अमेरिका, चीन, सऊदी अरब और रूस के बाद) लेकिन रक्षा मामलों से जुड़े जानकार चीन के मुकाबले इसे काफी कम मानते हैं.

रक्षा जानकार मानते हैं कि चीन का रक्षा बजट उसके जीडीपी का करीब 3 प्रतिशत है, जबकि भारत में रक्षा बजट अपने जीडीपी का मात्र 1.58 प्रतिशत है, जो 1962 के बाद सबसे कम था.

यहां पर ये भी ध्यान रखना होगा कि 1962 में भारत की जो अर्थव्यवस्था थी वो 2018 में कई गुना बड़ी हो गई है. लेकिन फिर भी भारत के सामरिक जानकार मानते हैं कि भारत में रक्षा बजट जीडीपी का कम से कम 2 प्रतिशत होना चाहिए तब कहीं जाकर भारत अपने चिर-परिचित प्रतिद्वंदियों-चीन और पाकिस्तान से मुकाबला कर पायेगा. साथ ही कश्मीर और उत्तर-पूर्व के राज्यों में भी आतंकवाद के रूप में भारत को प्रोक्सी-वॉर झेलना पड़ता है. ऐसे में भारतीय सेनाओं को ना केवल अपने आप को सैन्य तौर से मजूबत करना होगा बल्कि अपनी क्षमताओं को और अधिक बढ़ाए जाने की भी उम्मीद है.

प्रधानमंत्री मोदी और सरकार भी सेनाओं को साफ कर चुकी है कि रक्षा बजट का बेहतर उपयोग किया जाना चाहिए. बजट का एक बड़ा हिस्सा अभी भी सरकार को सैनिकों के वेतन और पेंशन पर खर्च करना पड़ता है. ओआरओपी के बाद से ये और ज्यादा बढ़ गया है. यही वजह है कि सरकार की कोशिश है कि शेकतकर कमेटी के अनुरूप सेनाओं को थोड़ा लीन एंड थीन (LEAN & THIN) करने की जरूरत है, लेकिन इसमें सेनाओं की 'पूंछ' को ही काटने पर जोर दिया जा रहा है बजाए 'दांत' के. यही वजह है कि थलसेना प्रमुख, जनरल बिपिन रावत ने हाल ही में थलसेना के रीस्ट्रक्चरिंग पर जोर दिया है. जिसके जरिए थलसेना में इंटीग्रेशन पर जोर दिया जा रहा है, ताकि युद्ध की स्थिति में थलसेना के सभी अंग एक साथ मिलकर लड़ाई लड़ें. साथ ही थलसेना में कम से कम डेढ़ लाख सैनिकों की कटौती की जाए.

वहीं, भारत जल्द ही स्पेस, साइबर और स्पेशल ऑपरेशन डिव (डिवीजन) बनाने की तैयारी भी कर रहा है. जहां तक जरूरी गोला-बारूद का सवाल है, सरकार की कोशिश है कि शांति के समय उतना ही गोला-बारूद देशी-उपक्रम, ओएफबी तैयार करे जितनी आवश्यकता हो. ज्यादा गोला-बारूद बनाने से ना केवल बजट पर असर पड़ेगा लंबे समय तक इस्तेमाल ना करने से ये गोला-बारूद खराब हो जाता है.

बीते सालों में वायुसेना को रफाल लड़ाकू विमान और रूस से एस-400 मिसाइल सिस्टम मिलने को लेकर करार हो चुका है. साथ ही थलसेना को जरूरी राइफल और कार्बाइन के लिए भी आरएफआई यानि टेंडर प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. नौसेना के लिए भी जरूरी युद्धपोत, पनडुब्बी और मिसाइल मुहैया कराई जा रही हैं. ऐसे में इस साल रक्षा बजट में पुराने रक्षा-करारों की ही भार उतारने की जिम्मेदारी ज्यादा होगी (CONTRACT OBLIGATION). वायुसेना के लिए जरूरी 114 लड़ाकू विमान करार रक्षा मंत्रालय के प्रमुख मुद्दों में शामिल है.

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