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महिला वोटर जीत गईं, महिला नेता हार गईं

चुनावी ऊंट अपनी पसंदीदा करवट बैठ चुका है. राजनैतिक दलों को नफा-नुकसान हो चुका है. पर असल जीत किसकी हुई, जानते हैं. हमारा तो एक ही राग है औरतें और असल जीत औरतों की ही हुई है. पांचों राज्य की विधानसभाओं के चुनाव परिणाम बता रहे हैं कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में महिलाएं कितना बड़ा रोल प्ले कर रही हैं. वे ज्यादा से ज्यादा संख्या में घर से बाहर निकलकर वोट कर रही हैं. भले ही उनका राजनैतिक प्रतिनिधित्व कम है, लेकिन फिर भी वे देश की चुनावी राजनीति को बदल देने पर उतारू हैं. तभी छत्तीसगढ़ से लेकर मध्य प्रदेश और मिजोरम में ऐसे चुनाव क्षेत्र मौजूद थे जहां महिला वोटरों की संख्या पुरुष वोटर्स से कहीं अधिक थी.

इलेक्शन कमीशन के आंकड़े आंखें खोल देते हैं. मध्य प्रदेश की कुल 230 सीटों में से 51 सीटों पर महिला वोटर्स की संख्या अधिक थीं. 24 सीटों पर तो 80% से भी ज्यादा महिलाओं ने वोट दिया था. छत्तीसगढ़ की 90 में से 24 सीटों पर महिलाओं ने पुरुषों से ज्यादा वोट दिए थे. मिजोरम में तो महिला वोटरों की कुल संख्या ही पुरुष वोटरों से अधिक है. यह बात और है कि नतीजों के बाद एक भी महिला उम्मीदवार विजयी नहीं हुई. लेकिन, यह भी कम नहीं है कि औरतें चाह रही हैं कि अपना वोट दें और अपना प्रतिनिधि चुनें. कई बार परिवार वालों से पूछ-पूछकर, कई बार घर वालों के फरमानों को नजरअंदाज करके चुपके अपने फेवरेट उम्मीदवार को चुनकर.

महिला वोटरों की भागीदारी बढ़ी लोकतंत्र के तमाशे में अपना खेल दिखाना वोटरों के लिए भी जरूरी है. आम चुनावों को सिर्फ चार महीने बचे हैं. इससे पहले 2014 में भी वोटरों ने सारा पासा पलट दिया था. ऐसी कायापलट की थी कि दिग्गज तक धूल चाटते रहे गए थे और नए दिग्गज गढ़े गए थे. औरतों ने तब भी अपने वोट का बखूबी इस्तेमाल किया था. 66.4% ने वोट करके बीजेपी को चुना था. इससे पहले के आम चुनावों में उनकी भागीदारी कम ही रहती थी. भारत के तीसरे आम चुनावों में 1962 में सिर्फ 46.6% औरतों ने वोट दिया था, हां, तब मर्दों ने 63.3% वोट दिया था. 2009 तक आते-आते औरतें जागने लगीं- उस साल आम चुनावों में 58% के करीब औरतों ने वोट दिया था. तो, पिछले 56 सालों में वोट देने वाले मर्दों का प्रतिशत 3.8 के करीब बढ़ा, पर महिला वोटर 19% तक बढ़ गईं. अब आने वाले महीनों का इंतजार है. अगर औरतें वोट के मामले में मर्दों को ऐसे ही पछाड़ती नहीं तो कुछ भी बदल सकता है.

अब हम इसे कई तरीकों से देख सकते हैं. पॉलिटिकल एनालिस्ट्स का कहना है कि औरतों की भागीदारी हर क्षेत्र में बढ़ रही है. मनरेगा के तहत औरतों को काम ज्यादा मिल रहा है. पंचायतों में उन्हें प्रतिनिधित्व मिल रहा है. राजनैतिक दल उन्हें लुभाने के लिए चुनावी वादे कर रहे हैं- उनके लिए योजनाएं लेकर आ रहे हैं. ये सारे कारण भी हैं. यूं घर से बाहर निकलकर काम करने और पढ़ लिख जाने से भी वे अपना हक समझने लगी हैं. उन्हें अपनी ताकत के साथ वोट की ताकत का भान हुआ है. उनके लिए यह तय करना आसान हुआ है कि उन्हें क्या फैसला लेना है.

सिर्फ 13 महिला विधायक: छत्तीसगढ़ मुश्किल यह है कि इसके बावजूद पॉलिटिकल पार्टियां उन्हें रिप्रेजेंटेशन नहीं दे रहीं. छत्तीसगढ़ की नई विधानसभा में सिर्फ 13 महिला विधायक हैं, जबकि मध्य प्रदेश में सिर्फ 20. राजस्थान विधानसभा में 23 महिलाएं चुनकर आई हैं और तेलंगाना में बस पांच ही. मिजोरम विधानसभा से तो औरतें गायब ही हो गई हैं. सिर धुनने वाली बात यह है कि जीतने वाली महिला उम्मीदवारों का प्रतिशत गिर रहा है. सीपीआर-टीसीपीडी नामक थिंक टैंक के डेटा का कहना है कि राजस्थान में चुनाव जीतने वाली महिलाओं का प्रतिशत जहां 2013 में 14 था, वहां 2018 में यह गिरकर 11.6% हो गया है. हां, उम्मीदवारों का प्रतिशत दोनों बार 7.9% था. इसी तरह मध्य प्रदेश में 2013 में 13% औरतें जीतकर विधानसभा में आई थीं, जबकि इस बार यह प्रतिशत सिर्फ 8.7 है. हां, छत्तीसगढ़ में कुछ भला महसूस होता है. यहां औरतें चुनी भी गई हैं और उनका वोटर शेयर भी जीतने वाले मर्दों के मुकाबले अधिक है. यह बात और है कि कुल मिलाकर राज्य विधानसभाओं का हाल बुरा है. यहां औरतें सिर्फ 7 से 8 प्रतिशत के करीब हैं. जबकि संसद में उससे थोड़ी ही ज्यादा हैं, करीब 11 प्रतिशत. क्या औरतें औरतों को वोट नहीं देतीं... ऐसा नही है. वो वोट तब देंगी, जब कोई महिला उम्मीदवार मैदान में होगी. जब टिकट ही नहीं मिलेगा, तो जीतने का मामला तो खल्लास ही समझिए.

यह क्या कम बड़ा विरोधाभास है कि वोटर तो बढ़ रहे हैं पर प्रतिनिधि नहीं. सिर्फ संसद नहीं, विधानसभाओं में भी औरतों का पहुंचना उतना ही जरूरी है. राज्यों के हालात को सुधारने में औरतों का दृष्टिकोण भी देखा जाए- क्या पता, कुछ अलग ही निकलकर आए. पर इसके लिए राजनीतिक दलों को कुछ जबरदस्त पहल करनी होगी. महिला रिजर्वेशन बिल कब से संसद में लंबित पड़ा है. उस पर भी नजर दौड़ाई जाए. वरना, जो रफ्तार है, उससे औरतों को संसद और विधानसभाओं में एक तिहाई प्रतिनिधित्व हासिल करने में 50 साल और लगेंगे. यह कहना है, स्कॉरर्स शिरीन राय और कैरोल स्पैरी की नई किताब 'परफॉर्मिंग रिप्रेजेंटेशन', 'विमेन मेंबर्स इन द इंडिया पार्लियामेंट' का. इस बिल पर नेतागण पसरे पड़े हैं. हां, देश में पंचायतों का चेहरा बदल रहा है. वहां औरतों को आरक्षण मिला हुआ है, और इस समय हमारे यहां 6 लाख महिला पंचायत सदस्य हैं.

बेशक, इसके लिए आपको अपना नजरिया बदलना होगा. एक सीनियर विपक्षी लीडर ने राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री को आराम करने की सलाह दी थी- क्योंकि उनका वजन बढ़ गया है. इसी नेता ने कभी कहा था कि महिलाओं को आरक्षण देने से परकटी औरतों को ही फायदा होगा. किसी नेता को संसद में फिल्मी ऐक्ट्रेस नाचने वालियां लगती हैं तो किसी को टीवी पर ठुमके लगाने वाली. तो, औरतें सिर्फ वोट न करें, वोट हासिल भी करें, इसके लिए आपको अपनी सोच पर पड़ा मोटा परदा हटाना होगा. असल जीत तो तभी होगी.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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