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विपक्षी एकता के लिए केजरीवाल क्यों हैं जरूरी, डेढ़ महीने में नीतीश की दूसरी बार मुलाकात के पीछे 2024 का समझें गणित

लोकसभा चुनाव होने में अभी 10 महीने का वक्त बचा है, लेकिन इसको लेकर सभी राजनीतिक दल रणनीति बनाने के लिए अपने-अपने हिसाब से जुटे हैं. बीजेपी की ताकत को देखते हुए एक राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत विपक्षी गठबंधन बने, इसके लिए जेडीयू नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दिन-रात एक किए हुए हैं. इस मकसद से वे अलग-अलग राज्यों में जाकर विपक्षी दलों के नेताओं से मिलकर समीकरण को साधने की कोशिश कर रहे हैं.

इसी सिलसिले में नीतीश कुमार ने 21 मई को दिल्ली में आम आदमी पार्टी के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से उनके आवास पर मुलाकात की. इस दौरान आरजेडी नेता और बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव भी नीतीश के साथ थे. नीतीश कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में हिस्सा लेने के बाद केजरीवाल से  मिलने के लिए दिल्ली पहुंचे थे. 

केजरीवाल क्यों है विपक्षी एकता के लिए जरूरी?

यहां एक बात गौर करने वाली है कि 20 मई को बेंगलुरु में एक भव्य समारोह में सिद्धारमैया ने कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली थी. इसमें विपक्षी दलों के तमाम बड़े नेता शामिल हुए थे. हालांकि कांग्रेस ने इस समारोह के लिए अरविंद केजरीवाल को आमंत्रित नहीं किया था. शपथ ग्रहण समारोह के अगले ही दिन नीतीश का केजरीवाल से मिलने के लिए आना इस नजरिए से भी महत्वपूर्ण है.

मुलाकात के बाद नीतीश और केजरीवाल दोनों ने ही मीडिया के सामने अपनी बातें रखी. यहां पर गौर करने वाली बात है कि अरविंद केजरीवाल ने 2024 लोकसभा चुनाव में बीजेपी के खिलाफ विपक्षी दलों के संगठित होने को लेकर कुछ नहीं कहा.

विपक्षी एकता पर केजरीवाल की क्या है मंशा?

अरविंद केजरीवाल ने ये जरूर कहा कि विपक्ष को एकजुट होकर केंद्र की बीजेपी सरकार के उस अध्यादेश का संसद से लेकर सड़क तक विरोध करना चाहिए, जिसके जरिए केंद्र सरकार ने दिल्ली में प्रशासनिक सेवाओं पर अधिकार से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने का काम किया है. केजरीवाल का कहना है कि अगर राज्यसभा में सभी गैर बीजेपी दल इस मुद्दे पर एकजुट हो जाएं तो केंद्र सरकार के लिए इस अध्यादेश से जुड़े बिल को पारित करना मुमकिन नहीं होगा.

केजरीवाल का कहना है कि अगर राज्यसभा में ऐसा हो गया तो ये एक तरह से 2024 का सेमीफाइनल होगा. केजरीवाल चाहते हैं कि  ऐसा करके देश की जनता को सभी विपक्षी दल ये संदेश दें कि 2024 में बीजेपी की हार हो रही है.

इस मसले पर नीतीश ने केजरीवाल का समर्थन करने की बात कहने के साथ एक और बात कही, जो विपक्षी पार्टियों को एकजुट करने के उनके प्रयासों के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है. सभी विपक्षी दलों को बीजेपी के खिलाफ एकजुट होने की अपील को दोहराते हुए नीतीश ने कहा कि हम लोग कोशिश कर रहे हैं कि ज्यादा से ज्यादा विपक्षी दल एकजुट हो जाएं. नीतीश ने केजरीवाल की ओर इशारा करते हुए कहा कि बाकी मुद्दों पर तो हम लोग सहमत हैं ही. किसी और तरह की कोई बात होगी तो हमलोग उसके लिए भी पूरे तौर पर इनके साथ हैं. ये जो भी कह रहे हैं, बिल्कुल ठीक कह रहे हैं, पूरे तौर पर इनके साथ हम लोग हैं.

नीतीश किसी भी तरह से केजरीवाल का चाहते हैं साथ

नीतीश ने जो आखिरी लाइन कही, वो ये तो बताता ही है कि अध्यादेश के मसले पर राज्यसभा में विपक्षी दल उनका साथ देंगे ही, इसके अलावा नीतीश की बातों का एक और भी बड़ा मतलब निकलता है. नीतीश ने इशारों-इशारों में ये भी स्पष्ट कर दिया कि जिस विपक्षी गठबंधन को बनाने के लिए वे लगातार प्रयासरत हैं, उसमें केजरीवाल का रहना जरूरी है और उसके लिए जो भी केजरीवाल की चिंताएं हैं, उसका भरपूर ख्याल रखा जाएगा.

अब सवाल उठता है कि अरविंद केजरीवाल खुलकर 2024 के लिए विपक्षी मोर्चा बनाने और उसका हिस्सा बनने की बात नहीं कर रहे हैं, उसके बावजूद आखिर क्यों केजरीवाल विपक्षी एकता के लिए जरूरी हो गए हैं. इतना जरूरी कि नीतीश कुमार को डेढ़ महीने के भीतर दूसरी बार उनसे मुलाकात करनी पड़ी. इससे पहले 12 अप्रैल को नीतीश ने दिल्ली में केजरीवाल से मुलाकात की थी.

नीतीश किसी भी तरह से विपक्षी एकजुटता चाहते हैं. इसके लिए वे उन विपक्षी नेताओं से भी मिल रहे हैं, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर नरम रुख अपनाते रहे हैं..जैसे बीजेडी प्रमुख और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक. ऐसे में नीतीश नहीं चाहते हैं कि अरविंद केजरीवाल विपक्षी एकजुटता के लिए बनने वाले गठबंधन से बाहर रहें.

लोकसभा चुनाव 2024 के समीकरणों पर है नज़र

मजबूत और सार्थक विपक्षी गठबंधन के लिए हर राज्य के राजनीतिक समीकरणों को साधने की जरूरत है और अरविंद केजरीवाल को साथ लाने के पीछे यही मकसद है. आम आदमी पार्टी दिल्ली और पंजाब में इस वक्त बेहद मजबूत स्थिति में हैं. इसके साथ ही आम आदमी पार्टी अपने संगठन को गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में मजबूत करने में जुटी है. इन राज्यों में केजरीवाल की पार्टी धीरे-धीरे अपना समर्थन बढ़ा भी रही है.

दिल्ली और पंजाब के नजरिए से महत्वपूर्ण

दिल्ली और पंजाब को मिलाकर कुल 20 लोकसभा सीटें हैं. अब अगर विपक्षी एकता के तहत इन सीटों पर बीजेपी की घेराबंदी की जाए, तो आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के साझा वोट की बदौलत ज्यादातर सीटों पर विपक्ष जीत सकता है.

दिल्ली में ऐसे तो 2014 और 2019 दोनों ही लोकसभा चुनाव में सभी 7 सीटों पर बीजेपी को जीत मिली थी. लेकिन आम आदमी पार्टी अब यहां बेहद मजबूत स्थिति में है. लगातार दो बार 2015 और 2020 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की है. 2015 में उसे 70 में से 67, जबकि 2020 में आम आदमी पार्टी को 70 में 62 सीटों पर जीत मिली थी.

ये तथ्य है कि अब तक दिल्ली में आम आदमी पार्टी कभी कोई लोकसभा सीट नहीं जीत पाई है, लेकिन पिछली बार के लोकसभा चुनाव के बाद 2020 विधानसभा चुनाव में आप का जिस तरह का प्रदर्शन रहा है और उसके बाद 2022 के आखिर में दिल्ली नगर निगम चुनाव में केजरीवाल की पार्टी ने बड़ी जीत हासिल की है, उसको देखते हुए यहां 2024 के लोकसभा में वो बेहद मजबूत स्थिति में  नज़र आ रही है. अगर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस का वोट एक साथ आ जाए तो दिल्ली की सभी 7 लोकसभा सीटों पर बीजेपी के लिए तगड़ी चुनौती पेश हो सकती है.

2019 के लोकसभा चुनाव में दिल्ली की 7 सीटों पर मिलाकर कांग्रेस का वोट शेयर 22.51% और आम आदमी पार्टी का वोट शेयर 18.11% रहा था. दोनों को मिलाने ये वोट शेयर 40 फीसदी से ज्यादा हो जाता है. वहीं 2014 के लोकसभा चुनाव में इन सीटों पर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का वोट मिला दें तो साझा वोट शेयर 48 फीसदी रहा था. ये तो समीकरण तब था, जब कांग्रेस और आम आदमी पार्टी अलग-अलग चुनाव लड़े थे, अगर दोनों ही एक साथ मिलकर चुनाव लड़े तो इस वोट शेयर का महत्व उससे भी ज्यादा हो जाता है. 

दिल्ली की सभी सीटों पर बीजेपी को घेरने की मंशा

2015 से लगातार दिल्ली की सत्ता में रहने के बावजूद दिसंबर 2022 में जिस तरह से आम आदमी पार्टी ने दिल्ली नगर निगम चुनाव में भारी जीत हासिल की थी, उससे स्पष्ट है कि केजरीवाल को अभी भी दिल्ली की जनता का बेशुमार समर्थन हासिल है. आम आदमी पार्टी को 42 फीसदी और कांग्रेस को करीब 12 फीसदी वोट मिले थे. इन आंकड़ों और आम आदमी पार्टी की मजबूती से कहा जा सकता है कि 2024 में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस का वोट एक साथ आने पर बीजेपी के लिए यहां की सभी सीटों पर दावेदारी कमजोर होगी. एक बात और है..भले ही दिल्ली में कांग्रेस पिछले दो बार से लोकसभा और विधानसभा सीट नहीं जीत पाई है, लेकिन 2019 लोकसभा चुनाव में वो आम आदमी पार्टी से ज्यादा वोट हासिल करने में सफल रही है. 

पंजाब की 13 सीटों पर विपक्ष की नज़र

दिल्ली की तर्ज पर ही या फिर कहें दिल्ली से भी ज्यादा मजबूत स्थिति में आम आदमी पार्टी फिलहाल पंजाब में है. लोकसभा चुनाव के नजरिए से तो पंजाब में 2024 में आम आदमी पार्टी की संभावना काफी अच्छी है. पंजाब की राजनीति में आम आदमी पार्टी का पहला बड़ा दखल 2014 के लोकसभा चुनाव में था. उस वक्त आम आदमी पार्टी पंजाब में 4 लोकसभा सीट जीतने में सफल रही थी. हालांकि 2019 में आम आदमी पार्टी यहां 13 में से सिर्फ़ एक ही सीट जीत सकी. लेकिन फरवरी 2022 के विधानसभा चुनाव में तो आम आदमी पार्टी ने कमाल ही कर दिखाया. पंजाब की 117 सीटों में से 92 पर आम आदमी पार्टी जीतने में कामयाब रही है और वहां कई दशकों से जारी कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल के वर्चस्व को झटके से खत्म कर दिया. हालांकि 2017 के विधानसभा चुनाव में 20 सीट लाकर आम आदमी पार्टी ने पंजाब में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करा दी थी.

पंजाब में बेहद मजबूत स्थिति में है AAP

अभी हाल ही में जालंधर लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुआ था, जिसमें आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस से ये सीट बड़े अंतर से जीत हासिल कर छीन ली थी. जालंधर सीट पर 1999 से कांग्रेस का कब्जा था. कहने का मतलब है कि पंजाब में अब केजरीवाल उस स्थिति में हैं कि अगर विपक्षी गठबंधन के तहत कांग्रेस के साथ चुनाव हो तो वहां की सभी 13 लोकसभा सीटों पर विपक्ष कब्जा करने के बारे में सोच सकता है.

ऐसे भी कई सालों बाद 2024 में पहली बार होगा कि बीजेपी यहां की सभी 13 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारेगी. इससे पहले बीजेपी का प्रकाश सिंह बादल की पार्टी शिरोमणि अकाली दल के साथ गठबंधन रहता था, जिसमें बीजेपी पंजाब में छोटे भाई की भूमिका में नज़र आती थी. 2022 विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के वोट को मिला दें तो साझा वोट शेयर 65 फीसदी के करीब पहुंच जाता है. 2019 लोकसभा के हिसाब से ये आंकड़ा 47.50% तक पहुंच जाता है. अब अगर 2024 में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस एक पाले में रहेंगे और दूसरी तरफ शिरोमणि अकाली दल और बीजेपी अलग अलग ताल ठोकेंगे तो उस हालत में 13 के 13 सीटों पर आम आदमी पार्टी-कांग्रेस गठजोड़ का पलड़ा स्वाभाविक तौर से भारी पड़ेगा.

दिल्ली और पंजाब को मिलाकर लोकसभा की ये 20 सीटें ऐसी हैं, जो एकमुश्त या फिर ज्यादा से ज्यादा विपक्षी गठबंधन के पाले में जा सकती हैं. इसके अलावा गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी आम आदमी पार्टी के संगठन का थोड़ा बहुत फायदा विपक्षी मोर्चा को मिल सकता है. यही वजह है कि नीतीश कुमार इस समीकरण को साधने के लिए केजरीवाल को किसी भी तरह से मनाना चाहते हैं. हालांकि केजरीवाल को इसके लिए तैयार करना इतना आसान नहीं है. इसमें कई पेंच है.

AAP के लिए विपक्षी गठबंधन में आना आसान नहीं

नीतीश जिस विपक्षी दलों की एकता कायम करने की कवायद में हैं, उसका नेतृत्व कांग्रेस करे..ये नीतीश के साथ ही शरद पवार, तेजस्वी यादव समेत कई और नेता भी चाहते हैं. अब तो ममता बनर्जी ने भी इस मसले पर अपने सुर बदल लिए हैं. ये एक ऐसा मसला है जिस पर अरविंद केजरीवाल को आपत्ति हो सकती है और उसके पीछे सबसे बड़ा कारण है आम आदमी पार्टी की राजनीति.

अब भले ही आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल लगातार बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर हमलावर रहते हैं, लेकिन केजरीवाल की राजनीति की शुरुआत कांग्रेस विरोध के साथ ही शुरू हुई थी. इसका दूसरा पहलू ये हैं कि जिस तरह से कांग्रेस पिछले 10 सालों में कमजोर हुई है, आम आदमी पार्टी दिल्ली, पंजाब समेत कई राज्यों में उस गैप को भरने में जुटी है. दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी को सफलता भी मिली है. दिल्ली में 2013 में जब से कांग्रेस सत्ता से हटी है, आम आदमी पार्टी की सरकार है. वहीं पंजाब में भी फरवरी 2022 में आम आदमी पार्टी की सत्ता आने से पहले कांग्रेस की ही सरकार थी. इसके अलावा 2022 के आखिर में गुजरात विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी का प्रदर्शन ये दिखाता है कि वो धीरे-धीरे वहां कांग्रेस का विकल्प बन सकती है.

कांग्रेस उभरी तो भविष्य में AAP को होगा नुकसान

लोकसभा चुनाव के नजरिए से बीजेपी बेहद मजबूत स्थिति में है. आम आदमी पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का विकल्प बन सकती है और अरविंद केजरीवाल की महत्वाकांक्षा इस दिशा में जरूर होगी. जिन-जिन राज्यों में बीजेपी के अलावा कांग्रेस ही बड़ी ताकत थी और धीरे-धीरे कांग्रेस उन राज्यों में कमजोर होते गई, तो इसका सीधा लाभ आम आदमी पार्टी को ही मिल रहा है. ये हमने दिल्ली, पंजाब के बाद गुजरात में देखा है. आम आदमी पार्टी  फिलहाल उन्हीं राज्यों को टारगेट कर रही है, जहां बीजेपी और कांग्रेस ही दो बड़ी ताकत हो. इसके तहत केजरीवाल राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी पार्टी को मजबूत बनाने में जुटे हैं.

आम आदमी पार्टी को एहसास है कि जहां पहले ही बीजेपी के अलावा कुछ और दल बड़ी राजनीतिक ताकत हैं, वहां निकट भविष्य में उनका विस्तार इतना आसान नहीं है. जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड या फिर ओडिशा हो. उसी तरह दक्षिण के राज्य तेलंगाना, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश हैं. इन राज्यों में बीजेपी और कांग्रेस के अलावा बाकी दल भी है जो या तो सत्ता में हैं या फिर जिनका जनाधार अच्छा-खासा है.

ये जो पूरा राजनीतिक समीकरण है, उसके तहत कांग्रेस का कमजोर होना ही, आम आदमी पार्टी के विस्तार होने का आधार है. यही सबसे बड़ी वजह है कि अरविंद केजरीवाल खुलकर उस विपक्षी मोर्चे पर कुछ नहीं बोलना चाहते या शामिल होने की मंशा जाहिर करते हैं, जिसकी अगुवाई कांग्रेस करे. अगर 2024 में लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी गठबंधन बन जाता है और उसकी बदौलत कांग्रेस का रकबा अलग-अलग राज्यों में बढ़ता है, तो ये आम आदमी पार्टी के भविष्य के लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है.

(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)

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