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हमास से जंग में अमेरिका, ब्रिटेन समेत तमाम पश्चिमी देश इजरायल का ही क्यों कर रहे हैं समर्थन, एक्सपर्ट से समझें

अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी जैसे देशों का इजरायल को समर्थन मिलने के कई कारण हैं. हमास ने सात अक्टूबर को इजरायल पर हमला किया. उस हमले में 14 सौ से अधिक लोग मारे गये. वो हमला एक तरीके से नृशंस हत्या थी. हमास की सेना ने इजरायल की सीमा में घुसकर हमला किया. जो लोग इस हमले में मारे गये, वे इजरायल के सैनिक नहीं थे, आम लोग थे. वे लोग 200 से ज़्यादा लोगों को क़ब्ज़े में लेकर हमास के इलाके में चले गये.

निश्चित तौर से इसी वज्ह से इजरायल को पहली सहानुभूति मिली. यह एक उकसावे वाली घटना थी. इजरायल भी इस इलाके से उतना ख़तरा महसूस नहीं करता था. इस कारण से इस इलाके में सुरक्षा चाक-चौबंद नहीं था. इजरायल की सेना ख़तरों को ज़्यादा अच्छे से भांपती है. इस तरफ़ से उन लोगों को लग रहा था कि ज़्यादा ख़तरा नहीं है.

इजरायल के प्रति सहानुभूति की लहर

ऐसे में जिस तरह की घटना हुई, पूरी दुनिया में इजरायल के प्रति सहानुभूति की लहर गयी. भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी उस हमले को आतंकवादी हमला क़रार दिया. इस आतंकी हमले कि जितनी ज़्यादा से ज़्यादा निंदा हो सकती है, उतनी की. उन्होंने कहा भी कि पूरी दुनिया को आतंकवाद के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करनी चाहिए. दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के नाते भारत की इस आवाज़ को महत्ता मिली और इजरायल को उसेस सहानुभूति भी मिली. अमेरिका हो या यूरोप के तमाम देश, इजरायल के पक्ष में खड़े हो गये.

अरब देश भी अचानक डिफेंसिव मोड में

चाहे सऊदी अरब हो या यूएई हो, जॉर्डन हो ..हमास के हमले के बाद अरब देश भी अचानक डिफेंसिव हो गये.  ईरान ने भी कहा कि हमास से हमारे संबंध हैं, लेकिन हमने हमास को इस हमले में किसी तरह से मदद नहीं की है. ईरान ने कहा कि हिज़बुल्लाह से भी हमारा संबंध है, लेकिन इस मामले में हमारा कोई हाथ नहीं है. कह सकते हैं कि अरब दुनिया एक तरह से डिफेंसिव हो गयी.

जितने लोकतांत्रिक देश हैं और पश्चिमी देश हैं, उनकी पहली सहानुभूति इजरायल को मिली. यही मामला धीरे-धीरे करके मज़बूत होता गया. इजरायल ने हमास पर हमले शुरू कर दिये. इजरायल लगातार कहते रहा कि वो हमास का जो आतंकवादी तंत्र है, उसको नेस्तनाबूद कर देगा. उसके चलते कह सकते हैं कि इजरायल को बहुत ज़्यादा विरोध का सामना नहीं करना पड़ रहा है. अरब दुनिया भी सात अक्टूबर के हमास के हमले के बाद डिफेंसिव है. अरब देश भी खुलकर इजरायल की निंदा नहीं कर पा रहे हैं. हालांकि कुछ देश कह रहे हैं कि इजरायल की जवाबी कार्रवाई हमास के अनुपात में बड़ी कार्रवाई है.

हालांकि अधिकांश देश अभी इजरायल के पक्ष में दिख रहे हैं. इसका एक और कारण है. इजरायल लगातार कोशिश कर रहा था. एक तरफ़ वो फिलिस्तीन को अंतरराष्ट्रीय राजनीति से पूरी तरह से अलग-थलग करते जा रहा था. ख़ासकर वो हमास को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता था. फिलिस्तीन अथॉरिटी इलेक्टेड बॉडी है, वो शांतिपूर्ण तरीक़े से आंदोलन के ज़रिये आज़ादी की मांग करता रहा है. इजरायल उसको आइसोलेट करने की कोशिश कर रहा है. इससे अरब वर्ल्ड में फिलिस्तीन सहानुभूति पा रहे थे.

इजरायल के अंदर भरपूर तकनीकी क्षमता

इजरायल के अंदर एक तकनीकी क्षमता है. उसने पूरी पश्चिमी दुनिया से एक आर्थिक संबंध बनाया है. इजरायल ने भारत के साथ भी संबंध मज़बूत किया है. जब डॉनल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति थे, तो अब्राहम एकॉर्ड हुआ था. अब्राहम एकॉर्ड के माध्यम से इजरायल ने यह संदेश देने की कोशिश की कि हम मुस्लिम दुनिया, अरब देशों के ख़िलाफ़ नहीं हैं. हमारा मामला फिलिस्तीन के साथ है, लेकिन उसकी कीमत पर हम बाक़ी देशों के साथ संबंधों पर असर नहीं पड़ने देंगे.

अब्राहम एकॉर्ड के माध्यम से इजरायल ने कई मुस्लिम देशों के साथ समझौता किया. उन देशों में राजनयिक केंद्र खोले. उन्होंने सऊदी अरब के साथ अलग से संबंध स्थापित किये. उसके बाद भारत, अमेरिका और यूएई के साथ मिलकर उन्होंने आई2यू2 बनाया. अभी जो दिल्ली में जी 20 समिट हुआ, उसमें एक आर्थिक गलियारा बनाने का समझौता हुआ. वो कॉरिडोर इजरायल के ज़रिये जायेगा. उसमें सऊदी अरब भी शामिल है.

हमेशा विक्टिम के तौर पर पेश करता रहा है

इजरायल के पास तकनीकी क्षमता है. इसके साथ ही इजरायल हमेशा ही अपने आपको विक्टिम के तौर पर पेश करता रहा है. इजरायल और अरब वर्ल्ड का 1967 में युद्ध हुआ. उसके बाद 1972 में म्यूनिख ओलंपिक में 11 इजरायली खिलाड़ियों की हत्या की गयी. उसके बाद इजरायल को पश्चिमी देशों से सहानुभूति का एक और मौक़ा मिला.

हम सब जानते ही हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यहूदियों को जर्मनी से निकाला गया. हिटलर के समय उनको प्रताड़ित करने का प्रयास हुआ था. उस समय भी उन्हें सहानुभूति मिली थी. पश्चिमी दुनिया के जो बड़े देश थे, उन्होंने इन्हें यहाँ भेजा गया था. इजरायल के लोगों को लगातार इस तरह की सहानुभूति मिलती रही है.

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब यहूदी यहाँ आए और उन्होंने अपना एक होमलैंड बनाया. पहले पश्चिमी दुनिया में इजरायल के लोगों के प्रति उतनी सहानुभूति नहीं थी. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में दो चीज़े बहुत मायने रखती हैं. पहली चीज़ है सहानुभूति और दूसरी चीज़ है आपकी ख़ुद की ताक़त. इजरायल ने 1967 में अरब देशों के साथ युद्ध में अपनी ताक़त दिखा दिया. उस वक़्त उन्होंने दिखा दिया कि चारों तरफ़ से मुस्लिम दुनिया से घिरे होने के बावजूद वहां पर वे एक सक्षम ताक़त हैं. समुद्र के साथ भी इजरायल  की महत्वपूर्ण सामरिक पहुंच है.

प्रचार की मशीनरी में इजरायल काफ़ी आगे

इजरायल तकनीक में भी सक्षम है. उनके पास आर्थिक क्षमता भी है. अगल-बगल के मुस्लिम देशों के साथ लोहा लेने में भी सक्षम है. इजरायल का आतंकवाद के ख़िलाफ़ हमेशा एक कड़ा रुख़ रहा है. आतंकवाद के ख़िलाफ़ सख़्त रुख़ का भी इजरायल को रणनीतिक तौर से फ़ाइदा मिलते रहा है. भारत ने जब रुख़ अपनाया कि आतंकवाद को लेकर कोई सहानुभूति नहीं होनी चाहिए. इस मामले में इजरायल भावनात्मक रूप से भारत का सबसे क़रीबी दोस्त बनकर रहा.

इजरायल पश्चिमी दुनिया, लोकतांत्रिक देशों के साथ लगातार एक संबंध बनाता रहा. रणनीतिक तौर पर अपने आप को पेश करते रहा कि हम बहुत मज़बूत हैं. हमारे साथ रहने से बहुत फ़ाइदा हो सकता है. कह सकते है कि पीआर मशीनरी या'नी प्रचार की मशीनरी में इजरायल काफ़ी आगे है. इजरायल ने अपनी प्रचार की मशीनरी के माध्यम से सरकारों में भी और पीपुल टू पीपुल कनेक्ट में भी अपने आपको एक उन्नत देश के रूप में, नस्ल के रूप में पेश किया है.

भौगोलिक कारणों से भी लगातार लाभ

इजरायल को भौगोलिक कारणों से भी लगातार लाभ मिलता रहा है. जहाँ इजरायल और फिलिस्तीन के लोग रह रहे हैं, वहाँ तीनों धर्मों मुस्लिम, यहूदी और ईसाई की उत्पत्ति हुई. वो जगह एक तरह से इजरायल के क़ब्ज़े में है, इसलिए उसका लाभ लगातार मिलता रहा.

ईरान लगातार इजरायल के समानांतर दुनिया में खड़ा रहा है. ईरान का हमेशा पश्चिमी दुनिया से टकराव बने रहे, लेकिन ईरान कभी झुका नहीं. ऐसे समूहों को समर्थन भी करता रहा, जो इजरायल विरोधी कहे जा सकते हैं. इसके बावजूद ईरान का संबंध अलग-अलग देशों के साथ अलग-अलग तरीक़ों से रहे हैं. हमास और इजरायल के युद्ध को ईरान पर नियंत्रण करने से सीधे-सीधे नहीं जोड़ा जा सकता है. भले ही कुछ लोग जोड़कर देख रहे हैं.

हमास ने अपने आप को 7 अक्टूबर की घटना से पूरी दुनिया में अपने आपको एक आतंकी संगठन के तौर पर पेश कर दिया. इसके चलते उसकी निंदा भी हो रही है. ईरान नैतिक तौर से हमास का ज़रूर समर्थन करते रहा है, लेकिन इस घटना से उसने अपने पल्ले झाड़ लिए हैं.

अरब देशों के शामिल होने की संभावना नहीं

आर्थिक मामलों की बात करें, तो सऊदी अरब है या यूएई समेत और जो अरब देश हैं.. उनका दुनिया के अलग-अलग देशों के साथ स्वतंत्र संबंध है. ऐसा नहीं है कि इजरायल के कारण वो संबंध प्रभावित हो रहे हैं. लेकिन अगर इजरायल कई देश के साथ इस युद्ध में शामिल हो जाता है, तब निश्चित तौर से एक बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो जायेगी. इसी कारण से अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन, अमेरिका विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन आए थे, उन्होंने आस-पास के सारे अरब देशों में जाकर कोशिश की थी कि इस लड़ाई में आप शामिल मत होइए. युद्ध में अगर शामिल हो जायेंगे तो इलाकाई युद्ध हो जायेगा. तब इसका असर रूस-यूक्रेन युद्ध से भी ज़्यादा ख़तरनाक हो जायेगा.

ये सारे ऊर्जा उत्पादक, तेल-गैस उत्पादक देश हैं. ये सारे देश युद्ध में शामिल हो जायेंगे तो दुनिया संकट में आ जायेगी. अमेरिका और पश्चिमी दुनिया की कोशिश यह है कि एक तरफ़ तो वे इजरायल को समर्थन देते रहें, दूसरी तरफ़ अरब दुनिया के देशों को आमने-सामने की लड़ाई में शामिल होने से बचाया जाए. इसलिए एक के बाद एक नेता वहां पहुंच रहे हैं. फ्रांस के राष्ट्रपति पहुंचे थे. जर्मन चांसलर पहुंचे थे. ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक गये थे.

इन लोगों की कोशिश है कि इजरायल को नैतिक समेत जो भी समर्थन चाहिए दो, लेकिन अरब वर्ल्ड को इस युद्ध में शामिल नहीं होने दो, जिससे 1967 की स्थिति नहीं पैदा हो. अगर ऐसा हुआ तो वैश्विक अर्थव्यवस्था पर ज़्यादा असर देखने को नहीं मिलेगा. अगर शामिल हो जायेंगे, तो निश्चित तौर से दुनिया के सामने बहुत बड़ा संकट खड़ा हो जायेगा.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]

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