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यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर संविधान निर्माताओं के क्या थे विचार, क्यों नहीं कर पाए थे लागू, जानें हर पहलू

अभी देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर बहस काफी सुर्खियों में है. राजनीतिक दलों से लेकर सामाजिक और धार्मिक संगठनों की ओर से इस पर अपने-अपने विचार जाहिर किए जा रहे हैं. जहां बीजेपी के नेता इसके पक्ष में तर्क दे रहे हैं, वहीं कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व इस पर अपना रुख साफ नहीं कर रहा है. इसके अलावा बाकी कई विपक्षी दल बीजेपी पर इस मुद्दे से राजनीतिक लाभ लेने का आरोप लगा रहे हैं

यूनिफॉर्म सिविल कोड के पक्ष-विपक्ष में तर्क

दूसरी तरफ मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने यूनिफॉर्म सिविल कोड का विरोध किया है. बोर्ड का साफ कहना है कि यूसीसी संविधान से मिली धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का हनन है. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अपने रुख से विधि आयोग को अवगत करा दिया है. बोर्ड का कहना है कि यूसीसी पर्सनल लॉ बोर्ड और शरीयत के कानून के तहत नहीं हैं. इसलिए बोर्ड की ओर से इसका विरोध जायज है. वहीं देश के प्रमुख मुस्लिम संगठन जमीयत-ए-उलेमा हिंद ने भी यूसीसी को नागरिकों की धार्मिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने का एक सोचा समझा प्रयास बताया है. इसके प्रमुख मौलाना अरशद मदनी का कहना है कि समान नागरिक संहिता देश के मुसलमानों को स्वीकार्य नहीं है क्योंकि यह देश की एकता और अखंडता के लिए सही नहीं है.

देश के अलग-अलग हिस्सों के आदिवासियों संगठनों की ओर से भी यूसीसी पर आपत्ति जाहिर की गई है. दरअसल विधि आयोग ने पिछले महीने से यूनिफॉर्म सिविल कोड पर रायशुमारी की प्रक्रिया शुरू की थी.

विधि आयोग ने जिस फॉर्मेट के तहत लोगों और संगठनों से विचार मांगे हैं, उनमें यूनिफॉर्म सिविल कोड का कोई ब्लूप्रिंट या परफॉर्मा का जिक्र नहीं है. यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड का क्या प्रारूप रहेगा, इसके बारे में कोई जिक्र नहीं है. लोगों से हां या नहीं और अपने-अपने हिसाब से राय देने को कहा गया है. ये एक ऐसी समस्या है जिससे रायशुमारी की प्रक्रिया में सबसे ज्यादा दिक्कत आ रही है. लोग यूनिफॉर्म सिविल कोड को बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक का मुद्दा बनाकर अपने-अपने विचार सोशल मीडिया के अलग-अलग मंचों पर जाहिर कर रहे हैं.

धार्मिक के साथ कानूनी पहलू भी जुड़ा है

सबसे पहले तो ये समझना होगा कि यूनिफॉर्म सिविल कोड से धार्मिक पहलू के साथ ही कानूनी पहलू भी जुड़ा है. इस वजह से ये संवेदनशील मुद्दा होने के साथ ही जटिल मुद्दा भी है. ऐसा नहीं है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड भारत के लिए कोई नई अवधारणा है. आजादी के बाद जब संविधान बनाने की प्रक्रिया चल रही थी तो बकायदा इस मसले पर संविधान निर्माताओं ने विचार किया था. संविधान सभा  में सदस्यों की ओर से इसके पक्ष और विपक्ष में तर्क रखे गए थे.  जब संविधान को अंतिम रूप दिया गया तो बकायदा यूनिफॉर्म सिविल कोड को इसमें जगह भी दी गई.

अनुच्छेद 44 में यूनिफॉर्म सिविल कोड का जिक्र

संविधान निर्माताओं का इस पर क्या रुख रहा था और इसे वे लागू करने में कामयाब नहीं हो पाए, उससे पहले ये समझना जरूरी है कि संविधान में जिस यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात की गई है, उसकी संवैधानिक स्थिति क्या है. दरअसल संविधान के अनुच्छेद 44 में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता का जिक्र है. अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि "राज्य, भारत के समस्त राज्य क्षेत्र के नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा."

फिलहाल नीति निदेशक तत्व का हिस्सा

अब समस्या यहीं से शुरू हो जाती है. अनुच्छेद 44 संविधान के भाग 4 का हिस्सा है और भाग 4 में राज्य के नीति निदेशक तत्वों को रखा गया है. वहीं संविधान के भाग 3 में मूल अधिकार को शामिल किया गया है. इसके तहत देश के हर नागरिक को 6 मूल अधिकार समता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार, संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार के साथ ही सांविधानिक उपचारों का अधिकार हासिल है. मूल संविधान में संपत्ति के अधिकार को भी मौलिक अधिकार बनाया गया था, जिसे 44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 के जरिए मूल अधिकार से हटा दिया गया और इसे वैधानिक-कानूनी अधिकार बना दिया गया.

नीति निदेशक तत्व होने की वजह से बाध्यकारी नहीं

चूंकि यूनिफॉर्म सिविल कोड राज्य के नीति निदेशक तत्वों वाले हिस्से में शामिल है, इसलिए इसकी प्रकृति अलग हो जाती है. मूल या मौलिक अधिकार हर नागरिक का ऐसा अधिकार है, जिसे देना या लागू करना राज्य या आम भाषा में कहें तो सरकार के लिए बाध्यकारी है. वहीं नीति निदेशक तत्वों के मामले में ये बाध्यकारी वाला प्रावधान सरकार या राज्य पर लागू नहीं होता है.  यानी मूल अधिकार के हनन पर देश के नागरिक अदालतों का दरवाजा खटखटा सकते हैं, लेकिन नीति निदेशक तत्वों के तहत शामिल बातों के लागू नहीं होने पर नागरिक अदालतों से गुहार नहीं लगा सकते हैं.

इस बात को संविधान के भाग 4 यानी राज्य के नीति निदेशक तत्वों के हिस्से के तहत आने वाले अनुच्छेद 37 में ही स्पष्ट कर दिया गया है. इस अनुच्छेद में कहा गया है कि इस भाग में शामिल प्रावधान किसी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होंगे. आगे इसी अनुच्छेद में ये भी कहा गया है कि राज्य के नीति निदेशक तत्व देश के शासन में मूलभूत हैं और विधि बनाने में इन तत्वों लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा.

अनुच्छेद 37 के आधार पर ही नीति निदेशक तत्व राज्य पर बाध्यकारी नहीं हो पाते हैं. चूंकि यूनिफॉर्म सिविल कोड वाला प्रावधान नीति निदेशक तत्व के दायरे में आता है, इसलिए इसे लागू करना राज्य या आम भाषा में कहें तो सरकार पर छोड़ दिया गया. संविधान में 'राज्य' शब्द की परिभाषा में भारत की सरकार और संसद के साथ ही हर राज्य की सरकार और विधानमंडल को शामिल किया गया है.

संविधान सभा में लंबी बहस हुई थी

अब सवाल उठता है कि संविधान निर्माताओं ने यूनिफॉर्म सिविल कोड को मूल अधिकार के हिस्से में न रखकर नीति निदेशक तत्वों के हिस्से में क्यों रखा था. इसे समझने के लिए संविधान सभा में यूसीसी पर तमाम सदस्यों का क्या रुख रहा था और आजादी के बाद देश के सामने कैसी परिस्थिति थी, उसको समझना होगा.

संविधान सभा में 23 नवंबर 1948 को हुई थी बहस

संविधान सभा में जब यूनिफॉर्म सिविल कोड पर जब बहस हुई थी, तो ये बहस के दौरान ड्राफ्ट अनुच्छेद 35 के अंतर्गत था. इस अनुच्छेद के तहत वहीं बात कही गई थी जो अभी संविधान के अनुच्छेद 44 में है. यूसीसी के ड्राफ्ट अनुच्छेद 35 पर संविधान सभा में बहस 23 नवंबर 1948 को हुई थी.

संविधान सभा में सदस्यों के बीच टकराव

इस मसौदा अनुच्छेद पर बहस के दौरान संविधान सभा में सदस्यों के बीच अपने-अपने विचारों और दलीलों के जरिए जबरदस्त टकराव भी देखने को मिला था. इस मसौदे का ज्यादातर मुस्लिम सदस्यों की ओर से विरोध किया गया था. इन सदस्यों की ओर से यूनिफॉर्म सिविल कोड के दायरे से पर्सनल लॉ को बाहर रखने के लिए संशोधन भी पेश किए गए थे. एक संशोधन तो ऐसा भी था जिसमें कहा गया था कि यूसीसी को हर समुदाय की पूर्व सहमति के बाद ही लागू किया जाए.

संविधान सभा में यूसीसी का विरोध करने वाले सदस्यों की ओर से मुख्य तौर से तीन तर्क दिए गए थे, जो इस प्रकार थे:

  1. यूनिफॉर्म सिविल कोड से धर्म की स्वतंत्रता का उल्लंघन होगा.
  2. इससे मुस्लिम समुदाय के भीतर वैमनस्य और असंतोष पैदा होगा.
  3. विशिष्ट धार्मिक समुदायों की मंजूरी के बिना उनके व्यक्तिगत यानी पर्सनल कानून में हस्तक्षेप करना गलत होगा.

वहीं संविधान सभा में यूनिफॉर्म सिविल कोड के पक्ष में रहने वाले सदस्यों ने इसका बचाव में कुछ इस प्रकार के तर्क दिए थे:

  1. यूनिफॉर्म सिविल कोड देश की एकता और संविधान की धर्मनिरपेक्ष साख को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है.
  2. यूनिफॉर्म सिविल कोड ऐसा प्रावधान नहीं है जिससे सिर्फ़ मुस्लिम समुदाय की प्रभावित हो, इसका प्रभाव हिंदू समुदाय पर भी पड़ेगा.
  3. यूनिफॉर्म सिविल कोड के बिना महिलाओं के अधिकार कभी सुरक्षित नहीं किए जा सकते हैं.

संविधान सभा में यूनिफॉर्म सिविल कोड पर बहस इन्हीं तर्कों के इर्द-गिर्द सीमित रही थी. कई समितियों और जगहों पर चर्चा के बाद 23 नवंबर 1948 को यूसीसी से जुड़े ड्राफ्ट अनुच्छेद 35 पर संविधान सभा में बहस हुई.

यूसीसी के विरोध में मोहम्मद इस्माइल का तर्क

ड्राफ्ट अनुच्छेद 35 पर सबसे पहले मद्रास से सदस्य मोहम्मद इस्माइल साहब ने संशोधन पेश किया. उनके संशोधन प्रस्ताव में कहा गया कि

"बशर्ते कोई भी समूह, वर्ग या लोगों का समुदाय अपने निजी कानून को छोड़ने के लिए बाध्य नहीं होगा यदि उसके पास ऐसा कोई कानून है."

मोहम्मद इस्माइल ने दलील दी कि पर्सनल लॉ का पालन करने का अधिकार उन लोगों की जीवनशैली का हिस्सा है जो ऐसे कानूनों का पालन कर रहे हैं; यह उनके धर्म का हिस्सा है और उनकी संस्कृति का हिस्सा है. यदि व्यक्तिगत कानूनों को प्रभावित करने वाला कुछ भी किया जाता है, तो यह उन लोगों के जीवन के तरीके में हस्तक्षेप के समान होगा जो पीढ़ियों और युगों से इन कानूनों का पालन करते आ रहे हैं. मोहम्मद इस्माइल ने यूरोपीय देशों का मिसाल देते हुए कहा था कि यूगोस्लाविया, यानी सर्ब, क्रोएट्स और स्लोवेनिया का साम्राज्य, अल्पसंख्यकों के अधिकारों की गारंटी के लिए संधि दायित्वों के तहत बाध्य है.

यूसीसी के विरोध में नज़ीरुद्दीन अहमद का तर्क

मोहम्मद इस्माइल के बाद पश्चिम बंगाल से सदस्य नज़ीरुद्दीन अहमद ने संशोधन प्रस्ताव पेश किया. उनके संशोधन प्रस्ताव में कहा गया कि

"बशर्ते कि प्रतिमा द्वारा गारंटीकृत किसी भी समुदाय का व्यक्तिगत कानून उस तरीके से समुदाय की पिछली मंजूरी के अलावा नहीं बदला जाएगा जैसा कि केंद्रीय विधानमंडल कानून द्वारा निर्धारित कर सकता है.''

यूसीसी के विरोध में नज़ीरुद्दीन अहमद का तर्क था कि यूसीसी का धार्मिक स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार से विरोधाभास है. सभी व्यक्ति समान रूप से अंतरात्मा की स्वतंत्रता और धर्म को स्वतंत्र रूप से मानने, अभ्यास करने और प्रचार करने के हकदार हैं.

नज़ीरुद्दीन अहमद का ये भी कहना था कि सिविल प्रक्रिया संहिता के कुछ पहलू हैं जो पहले से ही हमारे व्यक्तिगत कानूनों में हस्तक्षेप कर चुके हैं और यह बिल्कुल सही भी है. लेकिन ब्रिटिश शासन के 175 वर्षों के दौरान, उन्होंने कुछ मौलिक व्यक्तिगत कानूनों में हस्तक्षेप नहीं किया. उन्होंने पंजीकरण अधिनियम, सीमा अधिनियम, सिविल प्रक्रिया संहिता, आपराधिक प्रक्रिया संहिता, दंड संहिता, साक्ष्य अधिनियम, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, सारदा अधिनियम और विभिन्न अन्य अधिनियम बनाए हैं. इन्हें अवसर आने पर धीरे-धीरे लागू किया गया और इनका उद्देश्य कानूनों को एक समान बनाना था, हालांकि वे विशेष समुदाय के व्यक्तिगत कानूनों से टकराते हैं. नजीरुद्दीन अहमद ने दलील दी कि इतना होने के बाद भी ब्रिटिश हुकूमत की ओर से  विवाह प्रथा (marriage practice) और उत्तराधिकार (inheritance) के कानूनों में कभी भी हस्तक्षेप नहीं किया गया.

नज़ीरुद्दीन अहमद चाहते थे कि विवाह और विरासत के कानूनों में दखल धीरे-धीरे हो और समय के साथ इस मसले पर आगे बढ़ना चाहिए. उन्होंने भले ही उस वक्त यूसीसी का विरोध किया था, लेकिन संविधान सभा में ये भी उम्मीद जताई थी कि एक वक्त आएगा जब देश में नागरिक कानून एक समान होगा. हालांकि उन्होंने माना था कि ये समय अभी नहीं आया है.

यूसीसी के विरोध में महबूब अली बेग की दलील

नज़ीरुद्दीन अहमद के बाद मद्रास से सदस्य महबूब अली बेग साहब बहादुर ने अनुच्छेद 35 में जोड़ने के लिए इस प्रकार का संशोधन प्रस्ताव रखा:

"बशर्ते कि इस अनुच्छेद में कुछ भी नागरिक के व्यक्तिगत कानून को प्रभावित नहीं करेगा."

महबूब अली बेग का कहना था कि 'नागरिक संहिता' किसी नागरिक के व्यक्तिगत कानून को कवर नहीं करता है. नागरिक संहिता में संपत्ति के कानून, संपत्ति का हस्तांतरण, अनुबंध का कानून, साक्ष्य का कानून शामिल हैं. उन्होंने तर्क दिया था कि मुस्लिमों में विवाह कॉन्ट्रैक्ट (अनुबंध) के रूप में समझा जाता है, वहीं हिंदुओं के बीच विवाह एक संस्कार है. उनकी दलील थी कि मुसलमानों के लिए अनुबंध कुरान द्वारा निर्धारित है और इसका पालन नहीं किया जाता है तो वो विवाद..विवाह नहीं हो सकता है. एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में, हर समुदायों के नागरिकों को अपने धर्म का पालन करने, अपने जीवन का पालन करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए और उनके व्यक्तिगत कानून उन पर लागू होने चाहिए.

बी. पोकर साहिब बहादुर का विरोध में तर्क

मद्रास से सदस्य बी. पोकर साहिब बहादुर ने मोहम्मद इस्माइल साहब के संशोधन प्रस्ताव का समर्थन करते हुए अनुच्छेद 35 में ये जोड़ने का प्रस्ताव किया था कि कोई भी समूह, वर्ग या लोगों का समुदाय अपने निजी कानून को छोड़ने के लिए बाध्य नहीं होगा यदि उसके पास ऐसा कोई कानून है.

बी. पोकर साहिब बहादुर ने सभा से अनुरोध किया था कि विरासत, विवाह, उत्तराधिकार, तलाक, बंदोबस्ती और कई अन्य मामलों के संदर्भ में इस संशोधन पर सिर्फ़ मुसलमान समुदाय के दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि विभिन्न संहिताओं का पालन करते हुए इस देश में मौजूद विभिन्न समुदायों के दृष्टिकोण से विचार किया जाना चाहिए.

उन्होंने कहा था कि अगर यूसीसी के जरिए राज्य का इरादा हर समुदाय में  विवाह, विरासत, तलाक आदि जैसे मसलों को सिविल कोर्ट कानूनों के जरिए निपटाने का है, तो ये एक अत्याचारी प्रावधान है, जिसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.  लोकतंत्र में हर अल्पसंख्यक के पवित्र अधिकारों को सुरक्षित करना बहुमत का कर्तव्य है.

हुसैन इमाम का यूसीसी के विरोध में तर्क

बिहार से सदस्य हुसैन इमाम ने यूनिफॉर्म सिविल कोड के विरोध में भारत जैसे विशाल देश की विविधतापूर्ण संस्कृति का हवाला दिया था. उन्होंने अलग-अलग इलाकों के जनजातियों की स्थिति और उनके बीच प्रचलित मान्यताओं के जरिए भी संविधान सभा में यूसीसी के विरोध में अपनी बातें रखी थी. हुसैन इमाम का मानना था कि जब पूरा भारत शिक्षित हो जाए, सामूहिक निरक्षरता दूर हो जाए, जब उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर हो जाए, जब हर शख्स अपने पैरों पर खड़ा हो और अपनी लड़ाई लड़ने में सक्षम हो, तब उस समय पर्सनल लॉ के मामले में समान कानून के बारे में सोचा जा सकता है.

के.एम.मुंशी का यूसीसी के पक्ष में तर्क

बॉम्बे से सदस्य कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने यूनिफॉर्म सिविल कोड के पक्ष में अपनी बातें रखी. उन्होंने विरोध में रखे गए उन तर्कों को निराधार बताया, जिसमें कहा गया था कि यूसीसी से मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा और यह अल्पसंख्यकों के लिए अत्याचारी प्रावधान है. उनका कहना था कि संविधान सभा ने पहले ही इस सिद्धांत को स्वीकार कर लिया है कि अगर अब तक अपनाई गई कोई धार्मिक प्रथा एक धर्मनिरपेक्ष गतिविधि को कवर करती है या सामाजिक सुधार या सामाजिक कल्याण के क्षेत्र में आती है, तो यह अल्पसंख्यक के इस मौलिक अधिकार का उल्लंघन किए बिना संसद के लिए कानून बनाने के लिए खुला होगा.

के.एम.मुंशी ने कहा था कि यूनिफॉर्म सिविल कोड से जुड़े अनुच्छेद का पूरा उद्देश्य ये है कि  जब भी संसद उचित समझे या जब संसद में बहुमत उचित समझे तो देश के व्यक्तिगत कानून को एकजुट करने का प्रयास किया जा सकता है. उन्होंने यूसीसी के समर्थन में तर्क देते हुए ये भी कहा कि अधिकांश प्रांतों और राज्यों ने अपने लिए अलग हिंदू कानून बनाना शुरू कर दिया है. क्या हम इस आधार पर इस टुकड़े-टुकड़े कानून को अनुमति देंगे कि यह देश के व्यक्तिगत कानून को प्रभावित करता है? इसलिए यह न सिर्फ़ अल्पसंख्यकों से जुड़ा मुद्दा है, बल्कि यह बहुसंख्यकों को भी प्रभावित करता है.

अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर का पक्ष में तर्क

संविधान का प्रारूप तैयार करने वाली समिति के प्रमुख सदस्य अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर ने बहस के दौरान समान नागरिक संहिता को थोपे जाने के आरोपों को निराधार बताया था. उन्होंने कहा था कि यदि कुछ भी किया जाता है, तो वह सभी संबंधित पक्षों की सहमति से ही किया जाएगा. उनका कहना था कि इस तर्क का कोई औचित्य नहीं है कि यूसीसी लागू होने से धर्म खतरे में आ जाएगा या फिर समुदाय सौहार्दपूर्ण ढंग से नहीं रह पाएंगे. उन्होंने यूसीसी को राष्ट्र को एकजुट और जोड़ने वाला वेल्डिंग करार दिया.

यूसीसी पर डॉ. बीआर अंबेडकर का पक्ष

यूसीसी से जुड़े ड्राफ्ट अनुच्छेद 35 पर बहस के बाद आखिर में संविधान सभा में प्रारूप समिति के अध्यक्ष और देश के संविधान को बनाने में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले डॉ. बीआर अंबेडकर ने इस पूरे मसले पर अपनी बात रखी. उन्होंने शुरुआत में ही ये स्पष्ट कर दिया कि वे इस अनुच्छेद में लाए गए संशोधनों को स्वीकार नहीं कर सकते.

हुसैन इमाम ने इतने विशाल देश के लिए एक समान कानून संहिता बनाने की क्षमता और वांछनीयता पर सवाल खड़े किए थे. अंबेडकर ने उनके इस दलील का हवाला देते हुए कहा कि मुझे उस कथन पर बहुत आश्चर्य हुआ, इसका सीधा सा कारण यह था कि हमारे देश में मानवीय संबंधों के लगभग हर पहलू को कवर करने वाली एक समान कानून संहिता है. हमारे पास पूरे देश में एक समान और पूर्ण आपराधिक संहिता है, जो दंड संहिता और आपराधिक प्रक्रिया संहिता में निहित है. हमारे पास संपत्ति के हस्तांतरण का कानून है, जो संपत्ति संबंधों से संबंधित है और जो पूरे देश में लागू है.

विवाह और उत्तराधिकार को लेकर स्पष्टीकरण

डॉ. बीआर अंबेडकर ने स्पष्ट किया कि विवाह और उत्तराधिकार ही सिर्फ़ दो ऐसे मुद्दे हैं, जो अब तक समान नागरिक संहिता के दायरे में नहीं आए हैं. उन्होंने बेबाकी से कहा कि यह वह छोटा सा कोना है जिस पर हम अब तक आक्रमण नहीं कर पाए हैं और यह उन लोगों का इरादा है जो उस बदलाव के लिए अनुच्छेद 35 को संविधान का हिस्सा बनाना चाहते हैं. अपने इस कथन से अंबेडकर ने यूसीसी को लेकर खराब इरादे से जुड़े आरोपों को बेबुनियाद बताने की कोशिश की.

अंबेडकर ने अनुच्छेद 35 पर सदस्यों की ओर से पेश किए गए संशोधन प्रस्ताव पर दो टिप्पणियां की. ये इस प्रकार थीं:

1. मुस्लिम पर्सनल लॉ अपरिवर्तनीय और पूरे भारत में एक समान था, इस पर अंबेडकर ने इस बयान को चुनौती देते हुए कहा कि 1935 तक उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत शरीयत कानून के अधीन नहीं था. इसने उत्तराधिकार के मामले में और अन्य मामलों में हिंदू कानून का पालन किया, यहां तक ​​कि 1939 में केंद्रीय विधानमंडल को इस मामले में दखल देना पड़ा, जिसके बाद उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत के मुसलमानों पर हिंदू कानून के लागू होने को रद्द किया गया.

अंबेडकर ने ये भी जानकारी दी कि उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत के अलावा, 1937 तक शेष भारत में, संयुक्त प्रांत, मध्य प्रांत और बंबई जैसे विभिन्न हिस्सों में, उत्तराधिकार के मामले में मुस्लिम बड़े पैमाने पर हिंदू कानून से शासित थे. शरीयत कानून का पालन करने वाले अन्य मुसलमानों के लिहाज से उन्हें एकरूपता के स्तर पर लाने के लिए, विधानमंडल को 1937 में हस्तक्षेप करना पड़ा और शरीयत कानून को शेष भारत में लागू करने वाला एक अधिनियम पारित करना पड़ा.

अंबेडकर ने करुणाकर मेनन की ओर से कही गई बातों का जिक्र करते हुए कहा  उत्तरी मालाबार में मरुमक्कथायम कानून सभी पर लागू होता है - न केवल हिंदुओं पर बल्कि मुसलमानों पर भी. उत्तरी मालाबार में मुसलमान अब तक मरुमक्कथ्यम कानून का पालन कर रहे थे.

2. दूसरी टिप्पणी के जरिए अंबेडकर ने यूसीसी का विरोध कर रहे सभी सदस्यों को आश्वासन देने का प्रयास किया कि अनुच्छेद 35 में ये कहीं नहीं कहा गया है कि संहिता बनने के बाद राज्य इसे सभी नागरिकों पर सिर्फ़ इसलिए लागू करेगा क्योंकि वे नागरिक हैं. अंबेडकर ने आगे कहा कि यह पूरी तरह से संभव है कि भविष्य की संसद एक शुरुआत करके यह प्रावधान कर सकती है कि संहिता सिर्फ़ उन लोगों पर लागू होगी जो यह घोषणा करते हैं कि वे इसके लिए बाध्य होने के लिए तैयार हैं, ताकि शुरुआती चरण में संहिता का पालन पूरी तरह से स्वैच्छिक हो सके.

अंबेडकर ने सभी संशोधन प्रस्तावों का विरोध किया

इन दलीलों के साथ ही अनुच्छेद 35 को लेकर सदन में पेश संशोधन प्रस्तावों में कोई सार (substance) नहीं होने की बात कहते हुए अंबेडकर ने सभी संशोधन प्रस्तावों का विरोध किया.

एक तरह से यूनिफॉर्म सिविल कोड पर बहस के आखिर में संविधान सभा में अंबेडकर ने ये स्पष्ट करने की कोशिश की कि मौजूदा प्रावधान में कुछ भी नया नहीं है. देश में पहले से ही समान नागरिक संहिता है, बस नए कोड में विवाह और उत्तराधिकार (inheritance) को शामिल किया जाएगा, जो मौजूदा कोड के दायरे में नहीं थे.

संविधान सभा में आखिर में ये भी स्पष्ट किया गया कि इस अनुच्छेद को नीति निदेशक तत्व के तौर पर स्वीकार किया जा रहा है. इससे राज्य इसे तुरंत लागू करने के लिए बाध्य नहीं होंगे. संविधान सभा में तमाम सदस्यों के बीच बहस ये भी बात निकल कर आई थी कि राज्य को तभी ऐसा करना चाहिए जब उसे सभी समुदायों की सहमति हासिल हो जाए. बहस के बाद यूसीसी के मसौदा अनुच्छेद 35 को बिना किसी संशोधन के उसी दिन संविधान सभा में अपना लिया गया और बाद में संविधान के आखिरी प्रारूप में इसे भाग 4 के तहत अनुच्छेद 44 की संख्या के साथ शामिल किया गया.

महिलाओं के नजरिए से महत्वपूर्ण मानते थे अंबेडकर

अंबेडकर समान नागरिक संहिता को महिलाओं के नजरिए से बेहद महत्वपूर्ण मानते थे. अंबेडकर का तर्क था कि देश में महिलाओं को समानता का अधिकार दिलाने के लिहाज से धार्मिक आधार पर बने नियमों में सुधार बेहद जरूरी है. आजाद भारत में महिलाओं की स्वतंत्रता और समानता के लिए आंबेडकर ने समान नागरिक संहिता को बेहद जरूरी बताया था.

मूल अधिकार नहीं बनाने के पीछे तर्क

एक सवाल ये भी उठता है कि संविधान निर्माताओं ने यूनिफॉर्म सिविल कोड वाले अनुच्छेद को मूल अधिकार वाले हिस्से में क्यों नहीं रखा. दरअसल ये उस वक्त की परिस्थितियों के लिहाज से ज्यादा मुफीद था कि धार्मिक तौर से संवेदनशील और कानूनी तौर से जटिल यूनिफॉर्म सिविल कोड के मुद्दे को राज्य पर बाध्यकारी न बनाया जाए. लंबी गुलामी के बाद भारत को आजादी मिली थी. विभाजन की त्रासदी से भी भारत को जूझना पड़ रहा था. उसके साथ ही उस वक्त भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति बेहद दयनीय थी. ऐसे दौर में संविधान निर्माताओं का पूरा ज़ोर इस बात पर था कि संविधान के भाग 3 के तहत मूल अधिकार में उन्हीं प्रावधानों को लागू किया जाए, जिससे लागू करना किसी भी सरकार के लिए ज्यादा कठिन न हो. साथ ही साथ देश का माहौल भी सही बना रहे.

ये भी डर था कि अगर आजादी के तुरंत बाद ही देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड का कानून बनाकर हर समुदाय के पर्सनल लॉ में एकरूपता लाने की कोशिश की गई तो इससे देश का सामाजिक और धार्मिक ताना-बाना बिगड़ सकता था. आजादी के बाद बहुत ही मुश्किल और परिश्रम से सारे रियासतों को भारत में ंमिलाने का प्रयास किया जा रहा था. ऐसे में धार्मिक आधार पर संविधान निर्माता कोई भी मुद्दा उछाने के हक़ में नहीं थे, जिससे भारत की एकजुटता और राष्ट्र के तौर संगठित होने के प्रयासों पर आंच आए.

यहीं वजह है कि संविधान निर्माताओं ने यूनिफॉर्म सिविल कोड को जरूरी तो माना लेकिन इसे नीति निर्देशक तत्त्व के अन्दर शामिल कर उस वक्त राज्य को हर कीमत पर लागू करने की संवैधानिक बाध्यता से बचा लिया गया.

सरकार का आम सहमति बनाने पर हो ज़ोर

अब जब यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर केंद्रीय स्तर पर सक्रियता बढ़ी है, तो ये बेहद जरूरी हो जाता है कि सरकार इस मसले पर सभी धर्मों, सामाजिक और आदिवासी समूहों के प्रतिनिधियों से सलाह-मशविरा करे और उन्हें भरोसे में लेते हुए ही आगे कदम बढ़ाए. ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि ये मुद्दा कोई अल्पसंख्यकों को परेशान करने या दबाने से जुड़ा नहीं और न ही बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक का मुद्दा है. ये सरकार का ही दायित्व है कि अल्पसंख्यक समुदाय या आदिवासी समुदाय में ये भावना नहीं जानी चाहिए कि सिर्फ़ उन्हें परेशान करने या राजनीतिक लाभ लेने के नजरिए से यूसीसी को लागू किया जा रहा है. थोपने के एहसास से ज्यादा आम सहमति बनाने के प्रयास पर ज़ोर दिए जाने की जरूरत है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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