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पहली बार नहीं सांसदों का निलंबन, संख्या हो सकती है कुछ ज्यादा पर सत्तापक्ष और विपक्ष में चलता रहा है यह शह-मात का खेल

संसद से पिछले दो-तीन दिनों में कुल मिलाकर लगभग डेढ़ सौ सांसदों को निलंबित कर दिया गया- लोकसभा और राज्य सभा मिलाकर. यह अनुशासन पर्व है या तानाशाही, इसको लेकर देश में एक बहसा छिड़ गयी है. हालांकि, निलंबन के बाद जिस तरह विपक्षी सांसदों ने उपराष्ट्रपति की नकल की और राहुल गांधी उसको फिल्माते पाए गए, वह उनके कंडक्ट के ऊपर गंभीर सवाल उठाता है. विपक्ष का यह कहना जहां लाजिमी दिखता है कि भाजपा तो विपक्ष की बात सुनना ही नहीं चाहती, वहीं भाजपा का यह दावा भी ठीक दिखता है कि विपक्षी सांसद सदन में मर्यादित व्यवहार नहीं करते हैं. इस मसले पर छिड़ी बहस के बीच यह देखना जरूरी है कि पक्ष हो या विपक्ष, किसी को न तो क्लीन चिट दी जा सकती है, न पूरा अपराधी ठहराया जा सकता है. 

 अनुशासन-पर्व या तानाशाही

इसको आप कैसे देखते हैं, उस नजरिए पर यह निर्भर करता है कि यह अनुशासन-पर्व है या तानाशाही. अगर भाजपा और सरकारी पक्ष और दोनों सदनों के चेयर का पक्ष अगर देखें तो यह अनुशासन-पर्व है. आज विपक्ष ने जिस तरह से उपराष्ट्रपति का मजाक संसद के प्रांगण में बनाया और राहुल गांधी उसको रिकॉृर्ड कर रहे थे, वह भी इसको पुष्ट ही करता है, हालांकि अगर विपक्ष के नजरिए से देखें तो यह निश्चित तौर पर तानाशाही है. हालांकि, इन दोनों के बीच में भी कई चीजें हैं. ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हो रहा है. इसके पहले भी बहुतेरी ऐसी चीजें होती रही हैं. तब आज का सत्तापक्ष विपक्ष में होता था और आज का विपक्ष तब सत्ताधारी था. ऐसी बातें तब भी होती थीं. हां, यह जरूर देखना होगा कि क्या वजह है कि केवल हंगामा ही हो रहा है, क्या इन हंगामों के पीछे कोई रणनीति है और आजकल का एक शब्द है-टूलकिट, तो यह भी देखना होगा कि क्या यह टूलकिट की देन है? हालांकि, पहले भी विपक्ष ऐसा करता ही था और वह भी कोई स्वतःस्फूर्त नहीं होता था, उसके पीछे भी सोची-समझी रणनीति होती थी. जिस तरह की वैधानिकता और अवैधानिकता के खांचे में हमने जिस तरह लोकतंत्र को बांट रखा है, उसमें हरेक राजनीतिक दल अपने हिसाब से फायदा उठाने की कोशिश करता है. इन कोशिशों में कभी देश बहाना बनता है, कभी आम जनता को बहाना बनाते हैं. हर बार यह होता है कि सत्तापक्ष देश के नाम पर हंगामे का विरोध करता है, कहता है कि जरूरी विधायी कार्य इससे नहीं हो पाते और देश का नुकसान हो रहा है, जबकि विपक्ष कहता है कि अगर सरकार को खुला छोड़ दिया जाए, उसकी कमी उजागर न की जाए, तो देश का नुकसान होगा. 

अपने ढंग से फायदा उठाने का गणित 

पक्ष-विपक्ष हमेशा जनता को बहाना बनाकर खुद को सही ठहराते हैं, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि यह पहली बार हुआ है. जब आंध्र प्रदेश के पुनर्गठन का विधेयक पेश हो रहा था और उसको लेकर हंगामा हुआ था, तो तत्कालीन अध्यक्ष मीरा कुमार ने 25 सांसदों को निलंबित किया था. तभी यह सवाल भी उठा था कि आखिर यह निलंबन और हंगामा कब तक चलता रहेगा, क्योंकि संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर लाखों रुपए खर्च होते हैं और यह करदाताओं की गाढ़ी मेहनत का पैसा खर्च होता है. तभी यह तय हुआ था कि सांसद कागज नहीं फेंकेंगे, तख्तियाँ लेकर नहीं आएंगे, और वेल में नहीं आएंगे- इस तरह की एक पूरी सूची बनी थी. तभी यह भी तय हुआ था कि वेल में आते ही, आसंदी के सामने आते ही सांसद को निलंबित मान लिया जाएगा. हालांकि, बाद में उसमें संशोधन भी हुआ. फिर, यह तय हुआ कि जो भी पीठ (यानी चेयर) होगी, वह अगर नाम ले लेगी तो वे सांसद निलंबित मान लिए जाएंगे. अब, अभी का मामला देखिए. जब गृहमंत्री ने कह दिया है कि 20 दिनों के लिए जो कमिटी लोकसभा स्पीकर ने बनायी है, ताकि संसद में घुसपैठ की पूरी जांच हो सके और उसकी रिपोर्ट आने के बाद वे बात करेंगे, तो विपक्ष को भी कम से कम इतने दिनों का धैर्य रखना चाहिए था. रिपोर्ट आने के बाद अगर उनको खामी लगती, किसी को बचाने की बात लगती तो वे विरोध करते, तब हंगामा करते. विपक्ष का अधिकार हंगामा करना है, लेकिन उसको इस मामले में संयत रहना चाहिए था. 

सत्तापक्ष और विपक्ष के एका की जरूरत 

ऐसा लगता है कि जिस तरह संसद में दो घुसपैठियों के घुस आनेवाले दिन सांसदों ने जिस तरह की एकता दिखाई, उसे पकड़ने में और कार्यवाही स्थगित होने के बाद फिर जब कार्यवाही शुरू हुई तो जिस तरह एक-दूसरे का सहयोग किया, वही व्यवहार कायम रखने की जरूरत है. कहीं न कहीं ये समझ गायब हो रही है और इसी वजह से सरकार भी अनुशासन का डंडा चलाने में कामयाब हो गयी है. जहां तक विपक्षी सांसदों के निलंबन की बात है, तो एक संकेत तो यह जा रहा है कि वह विपक्ष की बात नहीं सुनना चाहती है. हालांकि, सरकार के पास उसके तर्क भी हैं. आज जिस तरह टीएमसी सांसद ने राज्यसभा के सभापति की मिमिक्री की और राहुल गांधी उसका वीडियो बना रहे थे, वह तो सरकारी दावे को ही पुष्ट करता है कि विपक्षी सांसदों का 'कंडक्ट' ठीक नहीं है. साथ ही, 1989 में जब वीपी सिंह की अगुआई में विपक्षी सांसदों ने बोफोर्स को लेकर हंगामा किया था, तो 63 सांसदों को निलंबित किया गया था. तो, सरकारें जिसकी भी हों, वे उसी ढंग से काम करती हैं. बोफोर्स के मामले में तो आजतक कुछ साबित भी नहीं हो सका कि दलाली ली गयी थी. बस, एक परसेप्शन बना था. हां, तब निलंबन को विपक्ष ने एक मौके के तौर पर इसको लिया था और सभी ने सामूहिक तौर पर इस्तीफा दिया था. अब सवाल ये है कि क्या आज का विपक्ष 1989 को दुहरा पाएगा? इसीलिए, इस मामले में विपक्ष भी बहुत पाक-साफ नहीं है. 

सांसद के पास देने पर निशाना गैरजरूरी 

उस दिन जब लड़के लोकसभा में घुसे थे, तो विपक्षी सांसदों ने ही उनको पकड़ा था. दानिश अली और मलूक नागर गैर-भाजपा दलों के ही हैं. हालांकि, उस दिन किसी ने भी इस बात पर सवाल नहीं उठाया था कि सांसद ने जब पास पर हस्ताक्षर किए हैं, तो उनको दोषी ठहराया जाए. ये बात सभी जानते हैं कि सांसदों को अपने गृहनगर या गांव की जनता को जवाब देना होता है. उनमें से कई संसद भी घूमना चाहते हैं और इसी वजह से सांसद पास निर्गत करते हैं. तो, इसलिए अब अधिक से अधिक ये कर सकते हैं कि पास देने के नियमों को और कड़ा करें या बदलें और बाकी नियमों के कार्यान्वयन पर जोर दे. हालांकि, कोई भी सांसद अपने अधिकार पर (पास बनाने के) रोक नहीं लगाना चाहेगा. फिलहाल, जो स्थिति है, उसमें यह कतई नहीं कहा जा सकता है कि सरकार ने अति कर दी और विपक्ष बहुत पाक-साफ है या फिर विपक्ष ने अति की और सरकार बहुत पाक-साफ है. हां, अब ये कहा जा सकता है कि दोनों ही पक्ष जनता के लिए नहीं, अपने लिए राजनीति कर रहे हैं. ये सब राजनीति की बात है और वक्त आ गया है कि पक्ष-विपक्ष दोनों ही अपने काम को समझें और इस पूरे मामले को साफ करें.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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