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सही नहीं स्टालिन के इरादे, जरूरी है सहकारी संघवाद की रक्षा

तमिलनाडु में सत्तारुढ़ द्रमुक केंद्र सरकार की "तीन भाषा नीति" का विरोध कर रही है. इस राजनीतिक दल का मानना है कि यह प्रदेश अंग्रेजी एवं तमिल भाषा से संतुष्ट है. दरअसल अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए मुख्यमंत्री एम के स्टालिन जनसंख्या नियंत्रण के दुष्परिणाम एवं हिंदी के उपयोग को राजनीतिक रंग देने की कोशिश कर रहे हैं. उन्होंने नई शिक्षा नीति के भाषा संबंधी प्रावधानों पर आपत्ति व्यक्त करते हुए कहा है कि तमिलनाडु एक और भाषा युद्ध के लिए तैयार है.

हिंदी और परिसीमन पर राजनीति

द्रमुक कार्यकर्ताओं को डाकघर एवं केंद्र सरकार के अन्य प्रतिष्ठानों के "हिंदी नाम बोर्डों" पर कालिख पोतते हुए देखा गया है. स्टालिन राजनीतिक लाभ के लिए विभाजनकारी नीतियों को प्रोत्साहित कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि तमिलनाडु को लोकसभा परिसीमन में आठ सीट खोने का खतरा है, क्योंकि राज्य ने परिवार नियोजन कार्यक्रम को सफलतापूर्वक लागू किया है. इसके फलस्वरूप जनसंख्या नियंत्रण हुआ है.

द्रमुक की आशंकाओं व स्टालिन के आरोपों को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने खारिज किया है. उन्होंने इस प्रकार के आरोपों को ध्यान भटकाने का प्रयास बताया है. शाह ने स्पष्ट रूप से कहा है कि परिसीमन से दक्षिण की एक भी संसदीय सीट कम नहीं होगी. गृह मंत्री के आश्वासन के बावजूद स्टालिन तमिलनाडु में राष्ट्र विरोधी प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रहे हैं. प्रादेशिकता की बढ़ती हुई भावना एकता के विकास में एक अवरोधक तत्व है. द्रमुक की राजनीतिक पहचान प्रादेशिक और क्षेत्रीयता की संकीर्ण भावनाओं को फैलाने से ही बनी है. सनातन धर्म के विरुद्ध विषवमन कर द्रमुक नेता उदयनिधि देशवासियों की भावनाओं से खेलते रहे हैं. दक्षिण भारत के ऊपर उत्तर भारतीय साम्राज्यवाद को थोपने की झूठी कहानी गढ़ना इनका पसंदीदा काम है. द्रविड़ों को अपनी अस्मिता की रक्षा करने हेतु प्रेरित करने वाले पेरियार अपनी जिंदगी के आखिरी दिनों में अप्रासंगिक हो गए थे, लेकिन उनके शिष्य उनकी विचारधारा के बलबूते आज भी सत्ता का उपभोग कर रहे हैं.

महात्मा गांधी और रामास्वामी

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महात्मा गांधी तमिल भाषियों के बीच बेहद लोकप्रिय थे, लेकिन नाकारात्मक सोच की जड़ों को सींचने वाले लोग सामाजिक न्याय के संबंध में गांधी के सामने ईवी रामास्वामी नायकर पेरियार को खड़ा करते हैं. तमिलनाडु की मौजूदा राजनीतिक संस्कृति को देखें तो यही सच्चाई सामने आती है कि पेरियार द्रविड़ कषगम, द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम और ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम की परंपराओं के रूप में जीवित हैं. यह राज्य चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और के कामराज जैसे महान राष्ट्रवादियों की जन्मभूमि है. राजगोपालाचारी स्वतंत्र भारत के प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल थे. बाद के वर्षों में उन्होंने अपने मौलिक विचारों से भारतीय राजनीति पर अमिट छाप छोड़ी. कामराज को आज भी कांग्रेस के शक्तिशाली अध्यक्ष के रूप में याद किया जाता है.

1967 के आम चुनाव के पश्चात् तमिलनाडु में कांग्रेस कमजोर हो गयी और द्रविड़ियन पहचान की राजनीति लोगों को भाने लगी. यद्यपि द्रविड़ कषगम का दर्शन पेरियार ने दिया था किंतु उस कल्पना को राजनीतिक स्वरूप व शक्ति देना अन्नादुरै की उपलब्धि थी. अन्ना के तेजस्वी नेतृत्व के समक्ष कामराज विफल हो गए. एम करुणानिधि एवं एमजी रामचंद्रन की राजनीतिक जमीन अन्ना की लोकप्रियता की वजह से ही तैयार हुई थी. गांधी की तुलना में पेरियार की विचारधारा को ज्यादा महत्व देने की प्रवृत्ति के कारण सामाजिक ढांचे की मनमानी व्याख्या से किसी को हैरानी भी नहीं हो रही है. लेकिन इतिहासकार रामचंद्र गुहा इस विरोधाभास की सही तस्वीर प्रस्तुत करते हैं. गुहा लिखते हैं कि "कई लोग गांधी और पेरियार को राजनीतिक विरोधी मानते हैं पर उनके लक्ष्य समान थे. गांधी हिंदु सीमा में रहकर सुधार चाहते थे."

देश की विविधता को स्वीकारें द्रमुक नेता

द्रमुक नेता इस ऐतिहासिक सच को नहीं झुठला सकते कि मदुरै गांधीवादी गतिविधियों का एक बड़ा केंद्र था. 22 सितंबर 1921 के दिन गांधीजी ने मदुरै में ही खादी के कुर्ते और धोती के बजाय सिर्फ एक गज खादी के कपड़े पहनने का निर्णय लिया था. इस प्रकरण का निहितार्थ यह है कि गांधी तमिलनाडु में ही फकीर बने. स्टालिन को अपने राजनीतिक हितों के संवर्धन हेतु राज्य में वैमनस्य के बीज बोने की इजाजत नहीं दी जा सकती. उनके वक्तव्यों से सहकारी संघवाद की अवधारणा का क्षरण होता है. द्रमुक के शक्ति संचय का एक प्रमुख आधार हिंदी भाषा का विरोध भी है.

संविधान देश की विविधता को स्वीकार करता है. विभिन्न क्षेत्रों की समस्याएं, रहन-सहन के ढंग, सामाजिक मान्यताएं और भौगोलिक यथार्थ इस बात को अनिवार्य बना देते हैं कि उनकी विशिष्टता का खास ख्याल रखा जाए. लेकिन अलगाववादी मनोवृत्तियों को हतोत्साहित करने के लिए मजबूत केंद्र की संकल्पना की गयी थी. संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप अपनी पुस्तक "हमारा संविधान" (भारत का संविधान और संवैधानिक विधि) में लिखते हैं कि "चाहे संविधान निर्माता हों या राज्यों के पुनर्गठन एवं संघ तथा राज्यों के आपसी संबंधों पर विचार के लिए आजादी के बाद नियुक्त विभिन्न आयोग तथा समितियां हों यथा जेवीपी समिति, दर आयोग, राज्य पुनर्गठन आयोग, राजमन्नार समिति, सरकारिया आयोग आदि, सभी की सर्वोपरि चिंता का विषय भारत की एकता व अखंडता रहा है. राज्य पुनर्गठन समिति की रिपोर्ट का निष्कर्ष था : भारत का संघ ही हमारी राष्ट्रीयता का आधार है - राज्य तो केवल संघ के अंग हैं और जहां हम यह मानते हैं कि अंगों को स्वस्थ एवं सशक्त होना ही चाहिए... वहां संघ की सशक्तता तथा स्थिरता तथा विकास एवं संवर्धन की उसकी क्षमता ही वह तत्व है जिसे देश के सभी परिवर्तनों का नियामक आधार माना जाए."

स्टालिन समझें अपनी हकीकत

स्टालिन संविधान में वर्णित संघ तथा राज्यों के बीच वित्तीय संबंधों को भी गंभीरता से नहीं लेते हैं और केंद्र की एनडीए सरकार के साथ असहयोगात्मक रुख अपना रहे हैं. गृह मंत्री शाह ने मुख्यमंत्री को धन आवंटन के मुद्दे पर सच बोलने की चुनौती दी है. उन्होंने कहा कि मोदी सरकार ने तमिलनाडु को 5,08,337 लाख करोड़ दिये जबकि यूपीए सरकार ने 2004 से 2014 के बीच 1.52 लाख करोड़ ही दिये थे. शाह ने दावा किया कि ड्रग माफिया को राज्य में खुली छूट है एवं अवैध खनन माफिया यहां राजनीति को भ्रष्ट बना रहे हैं.

तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने राज्य सरकार की कार्यशैली को सही नहीं माना है. उन्होंने राज्य की भाषा नीति पर असंतोष व्यक्त करते हुए कहा है कि "दो भाषा नीति" तमिलनाडु के युवाओं से अवसर छीन रही है. राज्यपाल ने इसे अनुचित बताते हुए कहा है कि यह क्षेत्र "विकास से वंचित क्षेत्र" बन चुका है. द्रमुक ने रवि की टिप्पणियों की तीखी आलोचना की है. राज्य के कानून मंत्री एस रघुपति ने कहा है कि तमिलों को उनकी भाषा के प्रति प्रेम सिखाने की जरूरत नहीं है.

राष्ट्रीय हितों की फिक्र करने वाले नेताओं को इस किस्म की राजनीतिक गोलबंदी को खत्म करने हेतु पहल करनी होगी. राजनीतिक विमर्श में उत्तर बनाम दक्षिण के द्वंद्व के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए. द्रमुक सांसद सेंथिल कुमार हिंदी पट्टी के राज्यों के लिए "गोमूत्र राज्य" शब्द का उपयोग कर मीडिया की सुर्खियां बटोर चुके हैं. इन विवादों का सम्यक् समाधान ढूंढ़ा जाना चाहिए. उत्तर भारत के नेता भी कोशिश करें कि दक्षिणी राज्यों में चुनाव प्रचार के दौरान उनका संबोधन स्थानीय भाषाओं में हो.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.] 

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