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दुनिया में हो रहा है दक्षिणपंथ का उभार और मोदी के नेतृत्व में भारत की वैश्विक राजनीति में बढ़ रही है पकड़

पूरी दुनिया में इस वक्त दक्षिणपंथी दलों की एक के बाद एक जीत हो रही है. जर्मनी में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दक्षिणपंथ की जीत हुई है, तो इटली में पहले से मेलिना सत्ता में हैं. अमेरिका में ट्रंप जीतकर राष्ट्रपति बन चुके हैं, तो वहीं मेलिना ने अपने एक वक्तव्य में सभी वामपंथियों की खिंचाई की है. उन्होंने कहा है कि जब बिल क्लिंटन और टोनी ब्लेयर एक विश्वव्यापी गठबंधन बना रहे थे, तो वे स्टेट्समैन कहे गए, लेकिन जब ट्रंप और मेलिना या मोदी बात करते हैं तो वे इसे लोकतंत्र का खात्मा बताते हैं. इन सबमें भारत और मोदी की राजनीति अब वैश्विक रंगमंच पर चर्चा का विषय है और भारत एक ऐसा देश जिसे अब वैश्विक स्तर पर बड़ी भूमिका निभानी है. 

जर्मनी के साथ दुनिया भर  में  उभरता दक्षिणपंथ

जर्मनी की राजनीति में एक बात काबिले गौर है. यहां विपक्षी कंजर्वेटिव गठबंधन क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन (CDU) और क्रिश्चियन सोशल यूनियन (CSU) को 28.5 फीसदी वोट मिले हैं, जिससे वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. वहीं, दक्षिणपंथी अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (AfD) ने 20% वोट हासिल किए, और वह दूसरे स्थान पर रही. वहीं, निवर्तमान चांसलर ओलाफ शोल्ज की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (SPD) को 16.5% वोट मिले, जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का सबसे खराब प्रदर्शन है.

CDU का प्रदर्शन तो चलिए एक बार समझ में आता है. सबसे चौंकाने वाली है AFD पार्टी जो सेकेंड पोजिशन पर आई है. वह फार राइट यानी अतिवादी दक्षिणपंथी पार्टी है. वह इमर्जेंट्स के 20% वोट शेयर लेकर आई है. जो जर्मनी में एक  डिफरेंट पॉलिटिकल सिस्टम आज के समय में आ रहा है. एक राइट पार्टी सत्ता में आ रही है. और एक फार राइट पार्टी सेकेंड पोजिशन पर आ रही है. और जो सोशल डेमोक्रेट हैं, वो तीसरे स्थान पर 16% वोट के साथ पहुंचे हैं. जो अभी सत्ता में चांसलर हैं. अगर जर्मनी की बात करें. यह सारे देशों में ऐसा हो रहा है. फ्रांस में भी ऐसा हुआ है, लेकिन किसी तरह कोई न कोई गठबंधन बनाकर वहां की जो दक्षिण पंथी पार्टी है उनको बाहर रखा जा रहा है.

फ्रांस में, इटली में और हाल ही में अमेरिका में यही हुआ है. मेलोनी ने यही तो कहा है कि लेफ्ट के लोग किस लेवल पर दक्षिणपंथी पार्टियों को बुरा-भला कहते हैं. ये कहते हैं कि लिबरल हैं. हम लोग जनता द्वारा चुने हुए हैं. हमारी पॉपुलैरिटी जनता में है. जनता को बहुत समय तक ये वोक, लिबरल और डेमोक्रेट कहे जाने वाले लोगों ने बेवकूफ बना के रखा. जनता समझ गयी है और मेलोनी ने उसी संदर्भ में मोदी  का भी नाम लिया. मोदी भी बार-बार चुनाव जीत के आ रहे हैं. तीसरी बार पीएम बने हैं. 

वामपंथी दुनिया भर में दिक्कत में

जनता उन्हें चुन रही है. तो डेमोक्रेसी तो है. अब ट्रम्प की प्रेसिडेंसी को देख लें. अगर ट्रम्प की प्रेसिडेंसी आई है. तो इसका मतलब वहां की जनता ने तय किया है.  तो यह सारे ऊपर दिए गए नाम और आज हम देखें तो पूरे एशिया और अमेरिका में यह हो रहा है और उसका प्रभाव लैटिन अमेरिका में  भी हो रहा है. अर्जेंटीना के प्रेसिडेंट भी फ्री मार्केट और दक्षिण पंथी विचारधारा के हैं. ये सारे उभार जो पिछले 10-15 सालों में जो हम देख रहे हैं. वह एक मंथन है. दो डेमोक्रेटिक सोसाइटी में कि किस प्रकार से राइट लीनिंग आइडियोलॉजी की पार्टियों को पावर में जनता चुन रही है और उन पर विश्वास कर रही है. और ट्रस्ट कर रही है.  वह समझ रहे हैं कि हमारी समस्याओं का समाधान दक्षिणपंथी करेंगे. उसमें आर्थिक समस्याएं हो सकती हैं. इमीग्रेशन के मुद्दे हो सकते हैं. यूरोप में इमीग्रेशन का बहुत मुद्दा है. चाहे जर्मनी के अंदर हो, फ्रांस के अंदर हो, इटली के अंदर हो, और ट्रम्प भी मोटे तौर पर आर्थिक और इमीग्रेशन जैसे मुद्दों पर ही वहां पर बातचीत किए हैं. तो यह पिछले 10-15 सालों से ट्रेंड है जो हम देख रहे हैं पूरी दुनिया में.

सोवियत यूनियन के विघटन और उदारवाद के उभार के बाद का दौर ट्रायम्फ ऑफ लिबरलिज्म लाया. लिबरल आइडिया, लिबरल पार्टी, प्रो-यूएस में बिल क्लिंटन थे, टोनी ब्लेयर थे. जो सोशलिस्ट लिबरल काइंड ऑफ पॉलिटिकल फॉर्मेशन उन्होंने बनाया. लेकिन पिछले 10-15 सालों में जो प्रो-राइट नैशनलिस्टिक पार्टियों का उदय हो रहा है. आज कंजर्वेटिव across the parties,  और कंट्रीज में सहयोग चाहते हैं. वह सहयोग सिर्फ क्रिश्चन कंट्रीज के बीच नहीं होना चाहिए. यूरोप में और अमेरिका के बीच, तो नॉन-क्रिश्चन पॉपुलेशन भी और कंट्रीज़ कंजर्वेटिव है. लीडर भी कंजर्वेटिव हैं, जैसे मोदी, मेलोनी, ट्रम्प, अर्जेंटीना . ये सभी नेता इंटरनेशनल प्लेटफॉर्म पर लगातार इंटरैक्ट कर रहे हैं. मेलोनी अमेरिका के कंजरवेटिव ग्रुप को एड्रेस कर रहीं हैं. अमेरिका फर्स्ट की बात वहां हो रही है, फिर भी वहां एक दूसरे देश  इटली से उसकी लीडर को बुला रहे हैं तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक नया गठबंधन उभर रहा है. इसलिए आप देखेंगे कि मोदी का बहुत अच्छे संबंध इटली से, मेलोनी से हैं, ट्रम्प से हैं. ऐसे लीडर से, जिनके साथ उनका व्यक्तिगत बहुत अच्छा संबंध है. यह इस समय का एक बहुत ही उभरता हुआ नया फ्रेमवर्क हम लोग देख सकते हैं कि कैसे वह कर रहे हैं आपस में और स्पीक कर रहे हैं.

भारत में जब से प्रधानमंत्री मोदी ने शपथ ली है, तब से तीन प्रेसिडेंट्स बदल चुके हैं. यूरोप में कितने लीडर्स बदले हैं. मोदी कांस्टैंट हैं और उनकी दोस्ती भी. अभी ट्रंप इतनी अच्छी तरह से इसीलिए मिले हैं. तो, भारत की अलग एक पहचान बन भी रही है और स्थापित भी हुई है. भारत ने अमेरिका के साथ बहुत अच्छा समझौता भी किया, यह देखते हुए कि ट्रम्प इकोनॉमी पर जैसी पॉलिसी ला रहे हैं. तो इसमें कहने वाली बात यही है कि भारत ऑलरेडी वैश्विक मंच पर सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुका है. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.] 

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