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केजरीवाल की रिमांड और आम आदमी के सपनों का टूटना...दाग कैसे भी हों, अच्छे नहीं लगते हैं

मुफ्त बिजली एवं पानी के आकर्षक नारों के सहारे कांग्रेस को दिल्ली की राजनीति से बेदखल करके मुख्यमंत्री पद पर काबिज हुए अरविंद केजरीवाल अब 6 दिन के लिए ईडी की रिमांड पर हैं. भारतीय राजनीति के अध्येता अगर लोगों की उम्मीदों पर खरे उतरने वाले नेताओं की सूची बनाना चाहेंगे तो उसमें भी केजरीवाल को जगह मिल ही जायेगी. लेकिन जब जनता का भरोसा जीतकर वोट हासिल करने और फिर उसके उलट आचरण करने वाले लोगों की सूची बनेगी तो नि:संदेह केजरीवाल को सर्वोच्च स्थान प्राप्त हो जायेगा. 

कमजोर नहीं दिल्लीवालों की स्मरण-शक्ति

दिल्लीवासियों की स्मरण शक्ति इतनी कमजोर भी नहीं है कि वे शीला दीक्षित के विकास कार्यों को भूल जाएं. खुद को मसीहा की तरह प्रस्तुत करके केजरीवाल ने पहले लोगों का विश्वास अर्जित किया और फिर एक मंजे हुए राजनेता की तरह पार्टी के अंदर अपने विरोधियों को बाहर का रास्ता भी दिखा दिया. "राजनीतिक व्याकरण" के विशेषज्ञ योगेंद्र यादव की राहें जुदा हो गयीं, कुमार विश्वास कवि सम्मेलनों में ज्यादा दिखाई देने लगे और आम आदमी पार्टी सत्ता के प्यासे विचारधाराविहीन लोगों की शरणस्थली बन गयी. आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा तो मिल गया, लेकिन राष्ट्रीय मुद्दों पर इस पार्टी के प्रवक्ता मुखर नहीं प्रतीत होते हैं. कांग्रेस को हाशिए पर पहुंचाकर केजरीवाल अब भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस से ही समझौता कर रहे हैं. जो मतदाता इस प्रहसन की क्रूरता को समझ नहीं सके हैं, उन्हें अपने प्यारे वतन के लिए वक्त निकालना होगा अन्यथा वोटों के सौदागर उनके सपनों के साथ खेलते ही रहेंगे. मुंशी प्रेमचंद के होरी अपनी गाय बेच कर नगर राज्य दिल्ली में मजदूरी करने के लिए आते हैं. वे अपने हिस्से की खुशियां बटोरने में किस हद तक कामयाब हो रहे हैं , इस मुद्दे को किसी भी राजनीतिक दल ने अपने घोषणा पत्र में  शामिल करना मुनासिब नहीं समझा.

जनांदोलन से पैदा पार्टी और भ्रष्टाचार

जनदोलन की कोख से पैदा हुई पार्टी के नेता का भ्रष्टाचार के आरोपों से घिर जाने की स्थिति मोहभंग को जन्म दे सकती है. असम में जनभावनाओं को स्वर देने वाली पार्टी असम गण परिषद अब अपनी आभा खो चुकी है और इसके नेता भी अप्रासंगिक हो गए हैं. दीर्घकालीन राजनीति के लिए वैचारिक दृढता की जरूरत होती है और इस कसौटी पर अधिकांश राजनीतिक दल खरे नहीं उतरते हैं. गैर-भाजपा एवं गैर-वामपंथी पार्टियां परिवारवाद या भ्रष्टाचार की व्याधि से ग्रस्त है. कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी जब केजरीवाल के पक्ष में बयान देते हैं तो कांग्रेस की दयनीय दशा ही प्रकट होती है. राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जिस नेहरू परिवार ने देशवासियों को आधुनिक जीवन मूल्यों से परिचय कराया था, आज उसके वारिस राष्ट्र की जरूरतों को समझने में विफल हैं. इलेक्टोरल बान्ड के मामले में विपक्षी पार्टियां भाजपा को बैकफुट पर नहीं ला सकीं. चुनावी चंदा एक ऐसा मसला है जिस पर कोई भी राजनीतिक दल देश के नागरिकों को संतुष्ट कर सकने की स्थिति में नहीं हैं.

देश में लोकतंत्र का जज्बा मौजूद

प्रकृति ने मुल्क को दुर्गम भौगोलिक इलाकों से नवाजा है, लेकिन इससे यहां लोकतंत्र का जज्बा कम नहीं होता. इसलिए 1984 के लोकसभा चुनावों में दो सीटों पर सिमट चुकी भाजपा अब सशक्त सत्ताधारी दल है और नेतृत्व के लिए सिर्फ़ नेहरू-गांधी परिवार की ओर देखने वाली कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन को मजबूर दिख रही है. नेशनल काँफ्रेंस, पीडीपी, डीएमके, राजद, समाजवादी पार्टी, बीजू जनता दल, भारत राष्ट्र समिति एवं तृणमूल कांग्रेस जैसे राजनीतिक दलों की कार्यशैली मध्ययुगीन सामंती व्यवस्था की याद दिलाती है, जिसमें सूबेदार देश के हितों को नहीं बल्कि अपने हितों को प्राथमिकता देते थे. वैश्वीकरण के इस दौर में गहरी सामाजिक समझ रखने वाले नेताओं की कमी दिखाई देती है. डॉ राम मनोहर लोहिया की चर्चा करके वोट लेने वाले नेताओं की रुचि उनके आदर्शों में नहीं है. केजरीवाल के कार्यालय में सरदार भगत सिंह और बाबा साहेब डॉ भीम राव अम्बेडकर की तस्वीर तो है, लेकिन आम आदमी पार्टी के नेताओं का आचरण महापुरुषों के पदचिह्नों के अनुरूप नहीं है.

आबकारी नीति के गुनाह में अगर तेलंगाना राज्य से कोई किरदार शामिल हो तो यह "पटकथा" भारत की एकता का पुख्ता प्रमाण है. केजरीवाल ने व्यवस्था जनित भ्रष्टाचार के दलदल से लोगों को बचाने का नारा दिया था जिस पर सबने यकीन भी कर लिया और अन्ना हजारे के मानवीय मूल्यों की गुमशुदगी की किसी ने रपट लिखाने की जरूरत भी नहीं महसूस की. झारखंड की राजनीति में सोरेन परिवार का दबदबा कायम है. हेमंत सोरेन सिर्फ़ मुख्यमंत्री पद से हटे हैं. अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए नेता लोकतांत्रिक मूल्यों की उपेक्षा करने में गर्व की अनुभूति करते हैं. इसलिए जब 1997 में लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले के मामले में जेल जा रहे थे तो उन्होंने  मुख्यमंत्री का पद राबड़ी देवी को सौंपना उचित समझा.

आम आदमी की बेबसी और लाचारी से नेता द्रवित नहीं होते. "सांप्रदायिक वैमनस्य और शोषण" के किस्सों ने वोट बैंक को दृढ़ता प्रदान करके नवधनाड्य नेताओं के तेवर बदल दिये हैं. राष्ट्रप्रेम को युद्ध की पैरोकारी मानने वाले लोग समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को जातिवाद और परिवारवाद के रंग में रंगना चाहते हैं जिसकी इजाजत नहीं दी जा सकती है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.] 

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