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मोदी सरकार को हटाने के लिए राहुल गांधी कर पाएंगे क्या इतना बड़ा त्याग?

भारत जोड़ो यात्रा की कामयाबी से खुद राहुल गांधी और कांग्रेस बेहद खुश व उत्साहित हैं, लेकिन सवाल है कि अब राहुल गांधी आगे क्या करेंगे ? उनके सामने ऐसी कई चुनौतियां हैं, जिससे पार पाकर ही वे एक मंझे हुए नेता की इमेज बना सकते हैं, जो अगले डेढ़ साल तक देश की राजनीति पर भी अपना असर डालेगी. हालांकि बड़ी चुनौती पार्टी के भीतर ही है. पार्टी नेताओं के बड़े वर्ग ने आवाज उठानी शुरु कर दी है कि राहुल गांधी को ही प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जाना चाहिए, लेकिन बड़ा सवाल है कि बाकी विपक्ष क्या राहुल के नाम पर आसानी से तैयार हो जायेगा?

राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा जब पंजाब में थी, तब पार्टी नेता और पंजाब विधानसभा में विपक्ष के नेता प्रताप सिंह बाजवा ने ठेठ पंजाबी में भाषण देते हुए कहा था कि अब दोबारा मौका मिल रहा है,लिहाज़ा राहुल गांधी को पीएम की कुर्सी पर किसी और को बैठाने की गलती नहीं करनी चाहिये.हालांकि उनका इरादा मनमोहन सिंह के महत्व को कम करना नहीं था,बल्कि उनका आशय यही था कि इस पद पर किसी नेता को ही बैठना चाहिए,जिसने राजनीति में कुछ मुकाम हासिल किया हो. राहुल उनका भाषण बड़े गौर से सुन रहे थे लेकिन ठेठ पंजाबी भाषा वे समझ नहीं पाये तो फौरन उन्होंने अपने सहयोगियों से पूछा कि बाजवा क्या कह रहे हैं, इसका अर्थ उन्हें बताया जाये.बाजवा की कही बात का मतलब समझने के बाद राहुल खुश तो नहीं दिखे लेकिन उनकी उस चुप्पी का भी गहरा मतलब निकाला जा रहा है.

इसमें कोई शक नहीं है कि राहुल की इस यात्रा ने पस्त हो चुकी कांग्रेस में नई जान फूंकने का काम किया है और इसीलिये नीचे से लेकर ऊपर तक उन्हें पीएम पद का उम्मीदवार बनाने की मांग जोर पकड़ने लगी है.लेकिन समूचे विपक्ष की रजामंदी के बगैर कांग्रेस की ये मुराद भला कैसे पूरी होगी? कई विपक्षी दल इशारा दे चुके हैं कि वे राहुल के लिये तैयार नहीं हैं.इसलिये कांग्रेस के इस फार्मूले पर ममता बनर्जी,अखिलेश यादव,नीतीश कुमार,अरविंद केजरीवाल और के.चंद्रशेखर राव सरीखे क्षत्रप राहुल के नाम पर अपनी मुहर लगाने की बजाय तटस्थ भूमिका में रहना ज्यादा पसंद करेंगे.

इसके अलावा दूसरा सबसे महत्वपूर्ण पहलू ये भी है कि ये सभी नेता पहले ये देखेंगे कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को कितनी सीटें मिलती हैं.जाहिर है कि ऐसी सूरत में चुनाव से पहले राहुल का संयुक्त विपक्ष की तरफ से उम्मीदवार बनना लगभग मुश्किल ही नजर आ रहा है. हाल ही में देश के लोगों का मूड जानने के लिए इंडिया टुडे ने जो सर्वे कराया था,उसके मुताबिक अगर आज चुनाव होते हैं तो कांग्रेस को 68 सीटें मिल सकती हैं. यानी कांग्रेस जिस यात्रा की कामयाबी से इतनी खुश है,उसकी जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां कर रही है. लिहाज़ा,सोचने वाली बात ये है कि चार हजार किलोमीटर लंबी यात्रा करने के बाद भी अगर कांग्रेस के नंबर में महज़ 16 सीटों का ही इजाफ़ा होता है,तो फिर राहुल गांधी देश की जनता का मूड बदलने में भला कैसे सफल हुए हैं? खैर,कह सकते हैं कि ये सर्वे अभी का है और अगले सवा साल में जनता का मूड बदल भी सकता है लेकिन फिर भी विपक्ष की सरकार में ड्राइविंग सीट पर बैठने के लिए कांग्रेस को कम से कम सवा सौ सीटें हासिल करनी होगी, तभी बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए को वह 272 सीटों से नीचे रोक पायेगी.

हालांकि कुछ बुजुर्ग कांग्रेसी नेताओं की सोच है कि मोदी सरकार को हटाने के लिए कांग्रेस को 1977 वाला फार्मूला अपनाना चाहिये, जब विपक्ष में अलग-अलग विचारधारा रखने वाले नेताओं ने एकजुट होकर इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर किया था.जनसंघ और समाजवादी नेताओं ने मिलकर जनता पार्टी बनाई और अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्ष को किनारे रखते हुए सिर्फ एक ही लक्ष्य सामने रखा था कि इंदिरा सरकार को हटाना है. वे उसमें कामयाब हुए. हालांकि ये अलग बात है कि आंतरिक मतभेदों के चलते जनता सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई औऱ 1980 में इंदिरा गांधी को दोबारा सत्ता मवन आने का मौका मिला. इसलिये संयुक्त विपक्ष को एकजुट करने और मोदी सरकार को हटाने के लिए कांग्रेस को ऐलानिया तौर पर ये कहना होगा कि ये जरुरी नहीं है कि चुनाव के बाद बनने वाली विपक्षी सरकार का नेतृत्व कांग्रेस ही करेगी, लेकिन सवाल ये है कि राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे ऐसा त्याग करने की हिम्मत जुटा पायेंगे?

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

 

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